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पांडवों का इतिहास बयां करने वाले ये मंदिर आज खुद बने इतिहास, जानें इसके पीछे की पूरी कहानी

'बाथू की लड़ी' गांव में बहुत अच्छी खासी आबादी बसती थी, लेकिन 1960 में पौंग बांध निर्माण के कारण यहां से लोगों को विस्थापित होना पड़ा. बांध निर्माण के बाद यह गांव पूरी तरह जलमग्न हो गया. जिसमें यह मंदिर भी उसी में समा गये. अब पूरे वर्ष में मात्र चार महीने ही यह मंदिर पानी से बाहर आते हैं और शेष आठ महीने जलसमाधि लेते हैं. आज भी इन मंदिरों के निर्माण में हुई हस्तकला उस जमाने की समृद्ध शिल्पकारी का बयान करती है.

bathu ki ladi temple in kangra, कांगड़ा के बाथू मंदिर का इतिहास
बाथू मंदिर

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Published : Dec 5, 2019, 1:05 PM IST

नूरपुर:हिमाचल प्रदेश देवभूमि है और यहां कई ऐसे मंदिर हैं जो आज तक रहस्य बने हुए हैं या यूं कहें कि उनके इतिहास को लेकर कभी जागरूक करने का प्रयास ही नहीं किया गया. एक ऐसा ही मंदिर है जिला कांगड़ा के अंतर्गत पड़ती ज्वाली विधानसभा में. इस मंदिर को 'बाथू की लड़ी' के नाम से जाना जाता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार इस शिव मंदिर का निर्माण पांडवों द्वारा उनके अज्ञातवास के दौरान किया गया था. वही, शिवमंदिर के साथ अन्य मंदिरों की श्रृंखला भी है.

इसमें 'बाथू' एक गांव का नाम था वहीं, 'लड़ी' का अभिप्राय है सीढ़ियों से है. किवंदतियों के अनुसार इस स्थान पर आकर पांडवों ने शिव की तपस्या की थी और शिव से वरदान पाया था. दिए गये वरदान के फलस्वरूप उन्हें एक रात में स्वर्ग के लिए सीढ़ियों का निर्माण करना था. कहते हैं उस दिन रात छः महीने की हुई थी, ताकि पांडव एक ही रात में मंदिरों और सीढ़ियों का निर्माण कर सकें.

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इस मंदिर निर्माण से कुछ दूरी पर एक तेलिन रहा करती थी जो कोल्हू से तेल निकाला करती थी. वो रात को बार बार उठकर कोल्हू से तेल निकाल रही थी. छः महीने की रात उसको जब बहुत लम्बी लगने लगी तो उसने शोर मचाना शुरू कर दिया कि आखिर रात खत्म क्यूं नहीं हो रही? उस तेलिन का शोर सुन पांडवों ने सीढ़ियों का निर्माण रोक दिया. उस समय स्वर्ग तक पहुंचने में मात्र अढ़ाई पौड़ियों का निर्माण रहना शेष रह गया था. तेलिन का शोर सुन कर पांडव खिन्न हो गये और यह सारी सीढ़ियां भरभरा कर गिर गई. अब इसमें मात्र 65 सीढ़ियां ही शेष बची हैं जो उस कथा को बल प्रदान करती हैं.

कभी इस गांव में बहुत अच्छी खासी आबादी बसती थी, लेकिन 1960 में पौंग बांध निर्माण के कारण यहां से लोगों को विस्थापित होना पड़ा. बांध निर्माण के बाद यह गांव पूरी तरह जलमग्न हो गया. जिसमें यह मंदिर भी उसी में समा गये. अब पूरे वर्ष में मात्र चार महीने ही यह मंदिर पानी से बाहर आते हैं और शेष आठ महीने जलसमाधि लेते हैं. आज भी इन मंदिरों के निर्माण में हुई हस्तकला उस जमाने की समृद्ध शिल्पकारी का बयान करती है.

यह मंदिर मात्र चार महीने जलसमाधि से बाहर आते है, लेकिन इन चार महीनों में भी काफी संख्या में पर्यटक इस स्थल आते हैं. ऐसे में शासन प्रशासन को चाहिए कि वो चार महीने के लिए ही सही, लेकिन अगर पर्यटक की दृष्टि से इस पर काम करें तो अच्छा खासा पर्यटकस्थल इसे बनाया जा सकता है. आठ महीने जलमग्न रहने के कारण ही शायद सरकार इस पर गंभीर नहीं दिखती, लेकिन अगर इस पर काम किया जाए तो चार महीने ही सही जहां इसे पर्यटन के तौर पर पहचान मिलेगी. वहीं, स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार के साधन भी खुलेंगे.

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