शिमला: प्राणघातक रेबीज की रोकथाम का सबसे सस्ता उपाय खोजने वाले पदमश्री डॉ. ओमेश भारती की सलाह पर अमल हो तो कोविड टीकाकरण में क्रांतिकारी लाभ की संभावना है. डॉ. भारती की सलाह है कि कोविड वैक्सीन को इंट्रामस्कुलर लगाने की बजाय इंट्राडर्मल लगाना चाहिए.
डॉ. भारती का कहना है कि इसका ट्रायल किया जाए तो देश में वैक्सीनेशन की रफ्तार भी बढ़ेगी, कॉस्ट भी कम होगी और वैक्सीन की कमी से टीकाकरण भी प्रभावित नहीं होगा. इंट्राडर्मल वैक्सीन से अभिप्राय वैक्सीन को स्किन के भीतर दिए जाने से है. इसमें वैक्सीन की डोज कम लगती है.
इस तकनीक का सबसे बड़ा लाभ तो ये होगा कि अभी कोवैक्सीन की पॉइंट पांच मिलीलीटर की डोज एक आदमी को लगती है. यदि इसे इंट्राडर्मल दिया जाए तो यही पॉइंट पांच एमएल की डोज 2 से 5 लोगों को लग पाएगी. फिर ट्रायल में इसके प्रभाव का आंकलन किया जा सकता है कि कितनी इम्यूनिटी डेवलप हुई.
यही नहीं, इसका प्रभाव भी इंट्रामस्कुलर तरीके से दी जा रही डोज से अधिक होगा. कारण ये है कि रेबीज की रोकथाम के लिए दिया जाने वाले इंट्राडर्मल इंजेक्शन की उत्पादन तकनीक और कोरोना की रोकथाम के लिए दिए जा रहे कोवैक्सीन इंजेक्शन की तकनीक एक जैसी है.
डॉ. ओमेश भारती के अनुसार अभी कोवैक्सीन इंजेक्शन जिस तकनीक से डेवलप किया गया है, रेबीज की रोकथाम के लिए दिए जाने वाला टीका भी उसी तकनीक पर है. ऐसे में इस बात की भरपूर संभावना है कि कोवैक्सीन को भी इंट्राडर्मल तकनीक से दिया जाए तो इसके कई लाभ होंगे.
पदमश्री डॉ. ओमेश भारती ने ईटीवी को बताया कि देश भर में वैक्सीन की कमी के समाचार आते रहते हैं. इसके उत्पादन की एक सीमा है. कोवैक्सीन या कोविशील्ड को अभी इंट्रामस्कुलर यानी मसल्स में दिया जाता है. मसल्स में इंजेक्ट करने के लिए डोज अधिक लगती है.
यदि मसल्स की बजाय स्किन के अंदर इंजेक्ट किया जाए तो एक आदमी को लगने वाली डोज 2 से 5 लोगों को लग जाएगी. इसका प्रभाव भी अधिक होता है और कोविड वैक्सीन की कमी भी दूर होगी. डॉ. भारती ने सलाह दी है कि यदि इंट्राडर्मल इंजेक्शन दिया जाए तो इम्यूनिटी उतनी ही होगी या उससे भी अधिक हो सकती है. उन्होंने कहा कि कोवैक्सीन को उक्त तकनीक से लगाने के लिए ट्रायल किया जाना चाहिए, ताकि अधिक से अधिक लोगों को लाभ मिल सके.
उल्लेखनीय है कि रेबीज की रोकथाम का सबसे सस्ता उपाय खोजने वाले डॉ. ओमेश भारती के प्रोटोकॉल को विश्व स्वास्थ्य संगठन की मंजूरी मिली है. अब रेबीज की रोकथाम के लिए पूरी दुनिया में डॉ. ओमेश भारती द्वारा डेवलप प्रोटोकॉल का इस्तेमाल होता है. उन्हें इस खोज के लिए वर्ष 2019 में पदमश्री अवार्ड (मेडिसिन) से सम्मानित किया गया था.
डॉ. भारती इस समय हिमाचल सरकार के स्वास्थ्य विभाग में राज्य महामारी विशेषज्ञ के तौर पर सेवारत हैं. डॉ. ओमेश भारती ने शिमला के इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस करने के बाद डीएचएम व आईसीएमआर से एमएई की डिग्री हासिल की है. वे 27 साल से हिमाचल प्रदेश स्वास्थ्य विभाग में विभिन्न पदों पर सेवाएं दे रहे हैं.
रेबीज की रोकथाम के लिए खोजे गए सबसे सस्ते उपाय के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन को उनका प्रोटोकॉल मंजूर करना पड़ा है. उनके नाम देश और विदेश में कई प्रतिष्ठित सम्मान दर्ज हैं. ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में उनका शोध पत्र साउथ एशिया में बेस्ट पाया गया.
लो कोस्ट इंट्रा डर्मल एंटी रेबीज वैक्सीनेशन पर इंटरनेशन सेमीनार में उनकी प्रेजेंटेशन को वर्ष 2011 में 83 देशों के प्रतिभागियों ने सुना था. विश्व के कई देशों में उन्हें आमंत्रित किया गया है. डॉ. भारती के कम कीमत वाले रेबीज प्रोटोकॉल से 35000 रुपए का इलाज घटकर सौ रुपये से भी कम रह गया. यही नहीं, रेबीज से होने वाली मौतें भी लगभग थम सी गई हैं. इस तकनीक का सबसे अधिक लाभ गरीबों को हुआ है. पहले गरीब लोग महंगा इंजेक्शन नहीं लगवा पाते थे और रेबीज से मौत का शिकार हो जाते थे. अब हिमाचल सरकार इस इंजेक्शन को निशुल्क उपलब्ध करवाती है.
डॉ. ओमेश भारती ने अपने शोध से साबित किया था कि अगर रेबीज इमोग्लोबिन नाम के सीरम को सीधे घाव या जख्म पर लगाया जाता है तो ये जल्द असर भी करता है और दवाई की मात्रा भी कम प्रयोग होती है. हिमाचल में 2017 से इसी तकनीक से इलाज किया जा रहा है.
डॉ. भारती ने 17 सालों के अपने शोध के दौरान कई मरीजों पर इस तकनीक का प्रयोग किया लेकिन वर्ष 2013 के बाद डॉ भारती ने 269 मरीजों पर इस सीरम का उपयोग किया जिसके बेहतर परिणाम सामने आए. इंट्राडर्मल तकनीक से इस इलाज के बाद हिमाचल में एक भी मामला रेबीज का नहीं आया है और ना ही इस बीमारी से किसी की मौत हुई है.
अपने इस शोध को मान्यता दिलवाने के लिए भी डॉ. भारती को लंबी लड़ाई लडऩी पड़ी और लंबे शोध के बाद मरीजों पर प्रयोग के बाद वो इसे मान्यता दिलवाने में सफल हुए. लोगों को नई तकनीक पर विश्वास दिलवाना मुश्किल था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और लगातार शोध को सही साबित करने के लिए प्रयोग करते गए और उन्हें सफलता तब मिली जब इस शोध को वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने अपनी मान्यता दी और इस तकनीक को विश्व भर के लिए बेहतर बताया.
इससे पहले इस सीरम को जब मांसपेशियों में लगाया जाता था तो इसकी मात्रा करीबन दस मिलीलीटर के आसपास रहती थी, लेकिन अब घाव में लगाने से इसकी मात्रा एक मिलीलीटर रह गई जिससे इसकी उपलब्धता और इस पर होने वाले खर्च में विश्व स्तर पर भारी कमी आई है. यही कारण है कि डॉ. ओमेश भारती अब कोविड की वैक्सीन के लिए भी इंट्रामस्कुलर तकनीक की बजाय इंट्राडर्मल इंजेक्शन की सलाह दे रहे हैं. इस विषय पर देश के विशेषज्ञों को भी डॉ. भारती ने अपने तर्क से कायल किया है.
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