शिमला: छोटे पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश के सियासी समीकरण उपचुनाव के बाद रोचक हो गए हैं. कांग्रेस ने मंडी लोकसभा सीट सहित बेशक विधानसभा की तीन सीटें जीत लीं, लेकिन नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी अभी भी सुरक्षित नहीं है. चौंकिए मत, दरअसल, हिमाचल विधानसभा में कुल 68 सीटें हैं. उनमें से कांग्रेस के पास अब 22 सीटें हो गई हैं. नेता प्रतिपक्ष के लिए सदन में विपक्ष के पास 23 सीट होनी चाहिए. पहले कांग्रेस के पास 22 सीट थीं. इस बार जिन तीन सीटों पर चुनाव हुए थे उनमें से अर्की व फतेहपुर पहले से ही कांग्रेस के पास थी. जुब्बल-कोटखाई सीट कांग्रेस ने भाजपा से छीनी है. ऐसे में कांग्रेस को एक सीट का लाभ हुआ है.
नेता प्रतिपक्ष के लिए 23 सीटें चाहिए. एक सीट कम होने के कारण अभी भी नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी भाजपा सरकार के रहमो करम पर है. इस मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस के बीच तल्खी बनी रहती है. जब भी सदन की बैठकें होती हैं, इस मामले में अदृश्य तनातनी देखी जाती है. फिलहाल, यहां हम मौजूदा सियासी समीकरण की बात करते हैं. कांग्रेस की जीत में प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर का सियासी कद बढ़ा है. उनकी अगुवाई में पहले नगर निगम चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई फिर उपचुनाव में भी कांग्रेस ने फतह हासिल की. ये सही है कि मंडी सीट पर विक्रमादित्य सिंह ने काफी मेहनत की. जीत के बाद जिस तरह से प्रतिभा सिंह ने शिमला में कॉन्फ्रेंस की और कांग्रेस के कई नेताओं ने वीरभद्र सिंह परिवार के साथ निष्ठा रखी है, उससे ये संकेत मिल रहे हैं कि आने वाले समय में सत्ता का केंद्र फिर से होली लॉज हो सकता है.
वहीं, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री जिस तरह से हर समय भाजपा सरकार पर हमलावर होते हैं, उससे भी ये स्पष्ट है कि अग्निहोत्री कांग्रेस में सर्वमान्य नेता बनने के लिए प्रयासरत हैं. उनके तेवर अकसर तीखे रहते हैं. वे भाजपा सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं. सदन में भी वे फ्रंट से लीड करते हैं. कई बार कह चुके हैं कि उन्हें नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी का कोई लालच नहीं है और सरकार इसके लिए अहसान न जताए. फिलहाल, कांग्रेस की सीटें बेशक 22 हो गई हैं, लेकिन अभी भी एक सीट की कमी के कारण कांग्रेस के लिए ये सीट सुरक्षित नहीं है. हालांकि ये सिर्फ एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी कांग्रेस के पास संख्या बल के कारण नहीं, बल्कि भाजपा सरकार की दरियादिली की वजह से है.
खैर, अब दूसरे तथ्य की तरफ आते हैं. भाजपा ने तेजतर्रार नेता राजीव बिंदल के एक विवाद में फंसने के बाद दलित चेहरे के तौर पर सुरेश कश्यप को पार्टी की कमान सौंपी थी. सुरेश कश्यप की सियासी किस्मत ऐसी है कि उन्हें कुर्सी संभालते ही नगर निगम चुनाव में उतरना पड़ा. फिर उपचुनाव सिर पर आ गए. वे अभी संगठनात्मक राजनीति को समझ ही रहे हैं. भाजपा इस तथ्य को भी भली-भांति जानती है कि कैसे पूर्व अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती के नेतृत्व में पार्टी ने लगातार चुनाव जीते थे. भाजपा के अध्यक्ष के पास ये लाभ रहता है कि उसे संगठन व कैडर की मजबूती हासिल है, लेकिन संगठन को सक्रिय करना और कार्यकर्ताओं की नाराजगी को भांपना कोई आसान काम नहीं है. इसके लिए राजनीतिक चतुराई होनी चाहिए.
सुरेश कश्यप विनम्र राजनेता हैं और पार्टी में दलित चेहरे भी हैं, लेकिन जिन परिस्थितियों में उन्हें अध्यक्ष पद की कमान संभालनी पड़ी है, वो विपरीत साबित हुई हैं उनके लिए. ऐसे में सुरेश कश्यप के नेतृत्व पर सवाल खड़े हुए हैं. ये सही है कि चुनाव में जीत के लिए सरकार का काम अहम होता है, परंतु हार के बाद हाईकमान से जो संकेत मिल रहे हैं उससे स्पष्ट है कि सीएम जयराम ठाकुर की कुर्सी सुरक्षित है. ये सही है कि उन्हें बाकी बचे हुए कार्यकाल में कुछ ऐसा करना होगा कि कर्मचारियों व आम वोटर्स की नाराजगी दूर हो सके.
पहले कदम के तौर पर डीजल व पेट्रोल से वैट घटाया गया है. उसका असर भी देखने को मिलेगा. फिलहाल, जहां तक बात सुरेश कश्यप की कुर्सी की है तो हाईकमान को चुनाव में हार की रिपोर्ट सौंपने के बाद ही हाईकमान के अगले कदम को देखना होगा. वरिष्ठ मीडिया कर्मी धनंजय शर्मा का कहना है कि जेपी नड्डा के गृह प्रदेश में ये हार छोटी बात नहीं है. पीएम नरेंद्र मोदी हिमाचल भाजपा के प्रभारी रहे हैं, उनका भी यहां से लगाव है. ऐसे में ये हार कोई छोटी हार नहीं है. इस हार के बाद सुरेश कश्यप को अपने नेतृत्व को साबित करना होगा. उन्हें हाईकमान को ये रोडमैप देना होगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में मिशन रिपीट का नारा केवल नारा न होकर हकीकत में कैसे बदलेगा. फिलहाल, सुरेश कश्यप के नेतृत्व पर भी जल्द ही स्थितियां साफ होंगी. वहीं, ये देखना भी रोचक है कि जीत के बावजूद नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी अभी भी सुरक्षित नहीं है और एक कदम कांग्रेस उससे दूर है.
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