वाराणसी: शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती (Shankaracharya Swami Swaroopanand Saraswati) का 99 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया. वह लंबे वक्त से बीमार थे. रविवार को उन्होंने मध्यप्रदेश में अंतिम सांस ली. लेकिन इन सबके बीच स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का काशी से अद्भुत जुड़ाव रहा. जी हां वाराणसी के श्री विद्या मठ में रहते हुए वह धर्म की रक्षा के लिए कई बड़े आंदोलनों में शामिल रहे. देश की आजादी की लड़ाई से लेकर वाराणसी में गंगा आंदोलन, ज्ञानवापी आंदोलन, श्री राम मंदिर आंदोलन समेत कई अन्य धर्म रक्षार्थ किए जाने वाले आंदोलनों में उनकी सीधी भागीदारी रही. उनके शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती हमेशा उनके आदेश पर कठोर से कठोर आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम करते हैं.
सबसे बड़ी बात यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के प्रयासों के बाद ही गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किए जाने का कार्य संपन्न हुआ था. इसके अतिरिक्त स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की मौजूदगी में काशी में पहली धर्म संसद का आयोजन भी किया गया था. आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से दो पीठों (शारदापीठ, द्वारका एवं ज्योतिष्पीठ, बदरिकाश्रम) को सुशोभित करने वाले स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज करोड़ों सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों के प्रेरणापुंज और उनकी आस्था के ज्योतितस्तम्भ हैं, लेकिन इससे भी परे वे एक उदार मानवतावादी सन्त थे.
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म संवत् 1980 के भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि (तदनुसार 2 सितम्बर, 1924 ई.) के शुभ दिन भारत के हृदयस्थल माने जाने वाले मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में सनातन हिन्दू परम्परा के कुलीन ब्राह्मण परिवार में पिता धनपति उपाध्याय एवं माता गिरिजा देवी के यहां हुआ था. माता-पिता ने विद्वानों के आग्रह पर इनका नाम पोथीराम रखा था. पोथी अर्थात शास्त्र, मानो यह शास्त्रावतार हों. ऐसे संस्कारी परिवार में पूज्यश्री के संस्कारों को जागृत होते देर न लगी और मात्र नौ वर्ष की कोमल अवस्था में आपने गृह त्याग कर धर्म यात्राएं प्रारम्भ कर दीं.
अध्ययन भारत के प्रत्येक प्रसिद्ध तीर्थों, स्थानों और संतों के दर्शन करते हुए काशी पहुंचे. वहां आपने पहले गाजीपुर की रामपुर पाठशाला में और फिर काशी आकर ब्रह्मलीन धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज और स्वामी महेश्वरानन्द जैसे तल्लज विद्वानों से वेद-वेदांग, शास्त्र-पुराणेतिहास सहित स्मृति एवं न्याय ग्रन्थों का विधिवत अनुशीलन किया और अपनी प्रतिभा और विद्या के बल पर स्वल्पकाल में ही विद्वानों में अग्रणी बन गए.
स्वतंत्रता संग्राम वह काल था जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी. महाराजश्री भी इस पक्ष के थे, इसलिये जब 1942 में 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' का घोष मुखरित हुआ तो महाराज जी भी स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े और मात्र 19 वर्ष की अवस्था में 'क्रांतिकारी साधु' के रूप में प्रसिद्ध हुए. पूज्य श्रीचरणों को इसी सिलसिले में वाराणसी और मध्यप्रदेश के जेलों में क्रमशः 9 और 6 महीने की सजाएं भोगनी पड़ी. महापुरुषों की संकल्प शक्ति से 1947 में देश स्वतन्त्र हुआ. अब पूज्य में तत्त्वज्ञान की उत्कण्ठा जागी.
दण्ड-सन्यास भारतीय इतिहास (Dand Sanyas Indian History) में एकता के प्रतीक सन्त श्रीमदादिशङ्कराचार्य द्वारा स्थापित अद्वैत मत को सर्वश्रेष्ठ जानकर, आज के विखण्डित समाज में पुनः शंकराचार्य के विचारों के प्रसार को आवश्यक जान और तत्त्वचिन्तन के अपने संकल्प की पूर्ति हेतु ईसवी सन् 1950 में ज्योतिष्पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती महाराज से विधिवत दण्ड संन्यास दीक्षा लेकर 'स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती' नाम से प्रसिद्ध हुए. धार्मिक नेतृत्व जिस भारत की स्वतन्त्रता के लिए आपने संग्राम किया था, उसी भारत को आजादी के बाद भी अखण्ड, शान्त और सुखी न देखकर और भारत के नागरिकों को दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति दिलाने के लिए पू. स्वामी करपात्री महाराज द्वारा स्थापित 'रामराज्य परिषद' पार्टी के अध्यक्ष पद से सम्पूर्ण भारत में रामराज्य लाने का प्रयत्न किया और हिन्दुओं को उनके राजनैतिक अस्तित्व का बोध कराया.
सर्वोच्च आचार्यत्व ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम महाराज के ब्रह्मलीन हो जाने पर सन् 1973 में द्वारकापीठ के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी अभिनव सच्चिदानन्द तीर्थ महाराज एवं पुरीपीठ के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेवतीर्थ महाराज, शृंगेरी पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी अभिनव विद्यातीर्थ महाराज के प्रतिनिधि सहित देश के तमाम संतों, विद्वानों द्वारा आप ज्योतिष्पीठ पर विधिवत अभिषिक्त हुए और ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य के रूप में हिन्दू धर्म को अमूल्य संरक्षण देने लगे.
विश्व-कल्याणकृत आपका संकल्प है 'विश्व का कल्याण'. इसी शुभ भावना को मूर्तरूप देने के लिए आपने तत्कालीन बिहार अब झारखण्ड प्रान्त के सिंहभूम जिले में 'विश्व कल्याण आश्रम' की स्थापना की. जहां जंगल में रहने वाले आदिवासियों को भोजन, औषधि और रोजगार देकर उनके जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास किया. सम्प्रति दो करोड़ की लागत से एक विशाल और आधुनिक अस्पलाल वहां निर्मित हो चुका है, जिससे क्षेत्र के तमाम गरीब आदिवासी लाभान्वित हो रहे हैं.
आध्यात्मिकोन्नतिदाता पूज्य महाराज ने समस्त भारत की आध्यात्मिक उन्नति को ध्यान में रखकर 'आध्यात्मिक उत्थान मण्डल' नामक संस्था स्थापित की, जिसका मुख्यालय भारत के मध्य भाग में मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के उस स्थान में रखा जहां के जंगलों में उन्होंने आरम्भ में उग्र तप किया था और अब जहां पूज्य महाराजश्री ने ही राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी भगवती का विशाल मन्दिर बनाया है. सम्प्रति सारे देश में आध्यात्मिक उत्थान मण्डल की 1200 से अधिक शाखाएं लोगों में आध्यात्मिक चेतना के जागरण और ज्ञान तथा भक्ति के प्रचार के लिये समर्पित है.