नई दिल्ली : संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़े, इसके लिए लंबे समय से कोशिश की जा रही है, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी है. सिद्धान्तः सभी राजनीतिक पार्टियां इस पर सहमत हैं. हालांकि, आरक्षण को लेकर कुछ मतभेद हैं, जिस पर बार-बार विवाद उत्पन्न हो जाता है. साथ ही सीटों का रोटेशन किस प्रकार से होगा, इस पर भी अलग-अलग दलों की अलग राय है.
अब फिर से महिला आरक्षण को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने बड़ा दांव चला है. अगले साल लोकसभा चुनाव है, और इस दौरान यह मुद्दा बड़ा बन सकता है. संभवतः यही वजह है कि भाजपा ने इस बिल को लेकर बड़े फैसले किए हैं. वैसे, इस बिल को लेकर कब-कब प्रयास किए गए हैं, आइए इस पर एक नजर डालते हैं.
महिला आरक्षण को लेकर सबसे बड़ा फैसला राजीव गांधी की सरकार ने लिया था. उन्होंने 1989 में पंचायती राज और सभी नगरपालिकाओं में एक तिहाई आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था. हालांकि, इस बिल को राज्यसभा से पारित नहीं करवाया जा सका. उसके बाद इस बिल को पीवी नरसिंह राव की सरकार के समय में लाया गया और इसे लागू किया गया.
इसके बाद संसद और विधानसभाओं में भी इसी तर्ज पर महिलाओं को रिजर्वेशन मिले, इसके लिए पहला प्रयास एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने किया था. देवेगौड़ा ने संसद में संकल्प व्यक्त किया था कि संसद और सभी विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी रिजर्वेशन दिया जाना चाहिए. वैसे, उनकी सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली, इसलिए यह प्रयास सफल नहीं हुआ.
दरअसल, 12 सितंबर 1996 को देवेगौड़ा सरकार ने विधेयक पेश किया था. उस समय कुछ सांसदों ने विरोध किया. उनका आधार ओबीसी आरक्षण था. वह चाहते थे कि इस रिजर्वेशन के भीतर ओबीसी को रिजर्वेशन दिया जाए. इस पर सहमति नहीं बन सकी. बिल पर विचार करने के लिए स्टैंडिंग कमेटी ने गहनता से इसकी समीक्षा की. उस कमेटी में सुषमा स्वराज, उमा भारती, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और शरद पवार जैसे दिग्गज मौजूद थे. इस कमेटी की अध्यक्षता सीपीआई नेता गीता मुखर्जी कर रहीं थीं.
इसके बाद जब आईके गुजराल सरकार ने इस पर विचार किया. उनके समय में भी यही बात उठी. कहा गया कि एससी और एसटी को आरक्षण तो मिलेगा, लेकिन ओबीसी महिलाओं को आरक्षण क्यों नहीं.