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Women Reservation : संसद में महिला आरक्षण बिल की ऐसी रही है यात्रा

महिला आरक्षण बिल को लेकर लंबे समय से प्रयास किए जा रहे हैं. लेकिन किसी न किसी वजह से बिल लंबित रह जा रहे हैं. ऐसा भी समय आया था जब संसद में बिल की कॉपी तक फाड़ दी गई थी. आइए इस पर एक नजर डालते हैं.

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महिला आरक्षण

By ETV Bharat Hindi Team

Published : Sep 19, 2023, 1:35 PM IST

Updated : Sep 19, 2023, 1:45 PM IST

नई दिल्ली : संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़े, इसके लिए लंबे समय से कोशिश की जा रही है, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी है. सिद्धान्तः सभी राजनीतिक पार्टियां इस पर सहमत हैं. हालांकि, आरक्षण को लेकर कुछ मतभेद हैं, जिस पर बार-बार विवाद उत्पन्न हो जाता है. साथ ही सीटों का रोटेशन किस प्रकार से होगा, इस पर भी अलग-अलग दलों की अलग राय है.

अब फिर से महिला आरक्षण को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने बड़ा दांव चला है. अगले साल लोकसभा चुनाव है, और इस दौरान यह मुद्दा बड़ा बन सकता है. संभवतः यही वजह है कि भाजपा ने इस बिल को लेकर बड़े फैसले किए हैं. वैसे, इस बिल को लेकर कब-कब प्रयास किए गए हैं, आइए इस पर एक नजर डालते हैं.

महिला आरक्षण को लेकर सबसे बड़ा फैसला राजीव गांधी की सरकार ने लिया था. उन्होंने 1989 में पंचायती राज और सभी नगरपालिकाओं में एक तिहाई आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था. हालांकि, इस बिल को राज्यसभा से पारित नहीं करवाया जा सका. उसके बाद इस बिल को पीवी नरसिंह राव की सरकार के समय में लाया गया और इसे लागू किया गया.

इसके बाद संसद और विधानसभाओं में भी इसी तर्ज पर महिलाओं को रिजर्वेशन मिले, इसके लिए पहला प्रयास एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने किया था. देवेगौड़ा ने संसद में संकल्प व्यक्त किया था कि संसद और सभी विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी रिजर्वेशन दिया जाना चाहिए. वैसे, उनकी सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली, इसलिए यह प्रयास सफल नहीं हुआ.

दरअसल, 12 सितंबर 1996 को देवेगौड़ा सरकार ने विधेयक पेश किया था. उस समय कुछ सांसदों ने विरोध किया. उनका आधार ओबीसी आरक्षण था. वह चाहते थे कि इस रिजर्वेशन के भीतर ओबीसी को रिजर्वेशन दिया जाए. इस पर सहमति नहीं बन सकी. बिल पर विचार करने के लिए स्टैंडिंग कमेटी ने गहनता से इसकी समीक्षा की. उस कमेटी में सुषमा स्वराज, उमा भारती, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और शरद पवार जैसे दिग्गज मौजूद थे. इस कमेटी की अध्यक्षता सीपीआई नेता गीता मुखर्जी कर रहीं थीं.

इसके बाद जब आईके गुजराल सरकार ने इस पर विचार किया. उनके समय में भी यही बात उठी. कहा गया कि एससी और एसटी को आरक्षण तो मिलेगा, लेकिन ओबीसी महिलाओं को आरक्षण क्यों नहीं.

गुजराल के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इस बिल पर सहमति बनाने का प्रयास किया, लेकिन वह भी ऐसा करने में कामयाब नहीं हो सके. दरअसल, संसद में कानून मंत्री थंबी दुरई बिल पेश करने आए थे. तभी राजद के सांसद सुरेंद्र यादव ने उनके हाथ से बिल छीन लिया. राजद के दूसरे सांसद अजीत कुमार मेहता ने उस बिल की कॉपी फाड़ दी थी.

वाजपेयी सरकार ने जब दूसरा प्रयास किया, तब समाजवादी पार्टी ने इस बिल को रोक दिया. उस समय सांसद ममता बनर्जी ने सपा सांसद दरोगा प्रसाद सरोज का 'कॉलर' पकड़ लिया था. वह चाहती थीं कि कोई भी सपा का सांसद बिल का विरोध करने के लिए स्पीकर की ओर न जाएं. इस बार भी राजद और सपा ने बिल का खुलकर विरोध किया.

वाजपेयी के बाद यूपीए के समय में भी कोशिश की गई. 2010 में राज्यसभा में बिल पास भी हो गया. लेकिन लोकसभा में सांसदों के विरोध की वजह से इस बिल को पास नहीं करवाया जा सका. इस समय मुख्य चुनाव आयुक्त एमएस गिल ने एक फॉर्मूला दिया था. उनके अनुसार लोकसभा और विधानसभाओं के लिए राजनीतिक पार्टियों के लिए अनिवार्य हो कि वे एक न्यूनतम प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को दें.

भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में इसे जगह दी है. 2019 के घोषणा पत्र में भी इस संकल्प को दोहराया गया. 2014 में भी इसके प्रति संकल्प व्यक्त किया था.

क्या है स्थिति- देश में कुल 91 करोड़ मतदाता हैं. इनमें से 44 करोड़ मतदाता महिलाएं हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में 67 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया था. 12 राज्यों में महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले अधिक संख्या में मतदान किया. इन 12 राज्यों में लोकसभा की 200 सीटें हैं. आंकड़े बताते हैं कि अगर महिला आरक्षण बिल पारित हो गया, तो 160 सीटों पर स्थिति बदल जाएगी.

चुनाव विश्लेषक बताते हैं कि 2019 में भाजपा को 37 फीसदी मत मिला था, और जितनी महिलाओं ने मतदान किया था, उनमें से महिलाओं के 36 फीसदी वोट भाजपा को मिले थे. प्रतिशत के हिसाब से गुजरात से भाजपा को सबसे अधिक महिलाओं के वोट मिले थे, 64 फीसदी तक. यूपी, बिहार, ओडिशा और असम से महिलाओं ने भाजपा को खूब वोट दिए थे.

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Last Updated : Sep 19, 2023, 1:45 PM IST

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