हैदराबाद : देशभर में आज यानी पांच जून को संत गुरु कबीर जयंती मनाई जा रही है. गुरुजी की विरासत जीवित है और कबीर पंथ के माध्यम से जारी है, जिसे कबीर के पंथ के रूप में जाना जाता है, जो उन्हें अपने संस्थापक के रूप में पहचानता है. हालांकि संत कबीर के जन्म का ब्यौरा अस्पष्ट है, लेकिन इतिहासकारों का कहना है कि उनका जन्म ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को हुआ था.
प्रारंभिक जीवन
संत कवि कबीर भारतीय रहस्यवाद के इतिहास में सबसे दिलचस्प व्यक्तित्वों में से एक हैं. कबीर का जन्म बनारस के एक मुस्लिम परिवार में हुआ था. प्रारंभिक जीवन में वह प्रसिद्ध हिन्दू तपस्वी रामानंद के शिष्य बने, जो एक महान धार्मिक सुधारक और एक सम्प्रदाय के संस्थापक थे, जिसमें लाखों हिन्दू आस्थावान शामिल थे.
कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदंतियां हैं. इनके जन्म के विषय में यह प्रचलित है कि इनका जन्म स्वामी रामानन्द के आशीर्वाद से एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था, जो लोक-लाज के दर से इन्हें 'लहरतारा' नामक तालाब के पास फेंक आई. संयोगवश वह नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपती को मिले, जिन्होंने उनका पालन-पोषण किया.
विवाह
कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या लोई के साथ हुआ था. कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतानें भी थीं. दोनों ने अपना जीवनयापन एक बुनकर के रूप में किया. कबीर की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी बानियों में कहीं नहीं मिलता. कहा जाता है कि कबीर के घर में रात-दिन फक्कड़-मवालियों का जमघट रहने से बच्चों को भोजन तक मिलना कठिन हो गया था. इस कारण कबीर की पत्नी झुंझला उठती थीं.
कबीर कैसे बने स्वामी रामानंद के शिष्य
कबीर दास जी को ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हुई तो वह गुरु की खोज करने लगे. उन दिनों काशी के स्वामी रामानंद की प्रसिद्धि चारों ओर फैली हुई थी. कबीरदास जी उनके पास गए और उनसे गुरु बनकर ज्ञान देने की प्रार्थना की. स्वामी रामानंद ने उन्हें शिष्य बनाना अस्वीकार कर दिया. लेकिन कबीरदास अपनी धुन के पक्के थे. उन्हें पता था कि स्वामीजी नित्य गंगा स्नान के लिए जाते हैं. एक दिन उसी मार्ग पर वह गंगा घाट की सीढ़ियों पर लेट गए. प्रात: जब हमेशा की तरह स्वामी रामानंद जी गंगा स्नान के लिए गए तो उनका पैर कबीरदास की छाती पर पड़ गया. उनके मुख से अकस्मात निकला, राम-राम कहो भाई. यहीं कबीर दास जी की दीक्षा हो गई और यही वाक्य उनका गुरूमंत्र बन गया. वह जीवनभर राम की उपासना करते रहे.
कबीर के व्यक्तित्व व कृतित्व पर रामानंद का प्रभाव
कबीर के जीवन और उनकी कृतियों पर रामानंद का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है. कबीर के गुरु रामानंद धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, जिन्होंने ब्राह्मणवाद और यहां तक कि ईसाई धर्म के पारंपरिक धर्मशास्त्र के साथ रहस्यवाद को समेटने का सपना देखा था. यह कबीर की प्रतिभा की उत्कृष्ट विशेषताओं में एक है कि वह अपनी कविताओं में इन विचारों को एक करने में सक्षम थे.
कबीर हिन्दी साहित्य के महिमामण्डित व्यक्तित्व हैं. उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता का निरंतर प्रयास किया. हिन्दी साहित्य जगत में उनका विशिष्ट स्थान है. अशिक्षित होते हुए भी उन्होंने जनता पर जितना गहरा प्रभाव डाला, उतना बड़े-बड़े विद्वान भी नहीं डाल सके हैं. वह सच्चे अर्थों में समाज सुधारक थे.
कबीदास की रचनाओं को उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र तथा शिष्यों ने बीजक के नाम से संग्रहीत किया. इस बीजक के तीन भाग हैं– (1) सबद (2) साखी (3) रमैनी. बाद में इनकी रचनाओं को 'कबीर ग्रंथावली' के नाम से संग्रहीत किया गया. कबीर की भाषा में ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी और अरबी फारसी के शब्दों का मेल देखा जा सकता है. उनकी शैली उपदेशात्मक है.
द लीजेंड ऑफ कबीर का अंतिम संस्कार
एक सुंदर किंवदंती बताती है कि कबीर की मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था. हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से. इसी विवाद के बीच जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहां फूलों का ढेर पड़ा देखा. बाद में वहां से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने. मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिन्दुओं ने हिन्दू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया. मगहर में कबीर की समाधि भी है.
जन्म की भांति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद है, किन्तु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी (सन 1518 ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 को मानते हैं.