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MP Vinayak Damodar Savarkar: सावरकर और आप्टे को इंसाफ दिलाने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर, लाइव सुनवाई की मांग - सावरकर सुप्रीम कोर्ट याचिका

महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में जेल में बंद रहे दामोदर सावरकर को लेकर एमपी के एक सावरकरवादी ने सुप्रीम कोर्ट में 164 पेज की याचिका लगाई है. यह याचिका फरवरी माह में लगाई गई थी. इसे अब जाकर स्वीकार किया गया है. जिस व्यक्ति ने यह याचिका लगाई है उनका नाम डॉ. पंकज फड़नीस है. ईटीवी भारत से विशेष बातचीत में उन्होंने बताया कि, इस पिटीशन पर जब भी सुनवाई होगी माननीय न्यायालय से प्रार्थना करेंगे वे इसे लाइव स्ट्रीमिंग कराएं, ताकि देश हकीकत देख सके.

vinayak damodar supreme court petition
नारायण आप्टे के ब्रदर इन लॉ भालचंद्र दौलतराव साथ में याचिकाकर्ता डॉ. पंकज फड़नीस

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Published : Mar 10, 2023, 8:16 PM IST

Updated : Mar 10, 2023, 9:37 PM IST

सावरकर और आप्टे को इंसाफ दिलाने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर

भोपाल।मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में रहने वाले सावरकरवादी डॉ. पंकज फडनीस ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष जो याचिका दायर की थी उसे स्वीकार कर लिया गया है. याचिका में दावा किया गया है कि, महात्मा गांधी की हत्या के मामले में एक "मिस्ट्रियल" यानी एक गलत कानून से सावरकर को फंसाया गया था. ताकि, उनके राजनीतिक करियर को समाप्त किया जा सके. उन्होंने बताया कि साक्ष्य के अभाव में सावरकर को बरी कर दिया गया, लेकिन कभी इस बात को लेकर बात नहीं की गई कि किस तरह से उन्हें गलत ढंग से फसाया गया था.

गैरकानूनी केस चलाया:गांधी हत्याकांड की जांच फिर से शुरू करने के लिए याचिका दायर कर चुके डॉक्टर फड़नीस का दावा है, कि, 'जिस कानून के तहत उन पर केस चलाया गया, वह गैरकानूनी है' उन्होंने कहा कि केवल गलत कानून की बात ही जनता के सामने नहीं लाना है. बल्कि लोगों को यह भी बताना है कि सावरकर के सपने क्या थे? उन्होंने बताया सावरकर पर आरोप लगाया जाता है कि वे राष्ट्र के रूप में प्रतिबद्ध थे और बहुसंख्यकों व अल्पसंख्यकों के साथ समान व्यवहार किए जाने पर जोर देते थे. उन्होंने तब सपना देखा था कि भारत के 10 हजार से अधिक युवक-युवतियां वह चाहे किसी भी धर्म या जाति के हो. उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भेज सके ताकि उनमें वैज्ञानिक सोच विकसित हो सके. उन्होंने बताया कि कुल तीन मांग उन्होंने की है.

अमेरिकन कंसल्टेंट द्वारा सावरकर के विचारों को लिखकर भेजा गया पत्र.

ये हैं मांगें:सावरकार को जिस कानून के प्रावधान के अंतर्गत मुकदमा चलाया गया, वह गैर कानूनी थे. 'सावरकर को केवल एक अभियुक्त दिगंबर बड़के नामक एक सरकारी गवाह के कहने पर आरोपी बनाया था. यह वही गवाह है, जिसे 21 जून, 1948 को निचली अदालत द्वारा क्षमा कर दिया गया था. इनके द्वारा दिए गए सबूतों पर गांधी हत्या के मुकदमे में फंसाया गया था. वह गैर कानूनी था. जो भी प्रमाण थे, वह गलत थे. जिस कानून के तहत मुकदमा चलाया गया, उसमें ऐसे प्रावधान ही नहीं थे कि किसी आरोपी को एप्रुवर बनाया जा सके. जिस कोर्ट ने उन्हें अप्रुवर बनाया, उनके पास अधिकार नहीं थे. इसीलिए तत्कालीन कांग्रेस ने 9 सितंबर 1948 यानी तीन महीने बाद एक आर्डिनेंस पास किया और उस अदालत को पुरानी तारीख से अधिकार दे दिया कि, उसे यह अधिकार था. यानी बैकडेट में कर दिया. संविधान अनुसार वह ऐसा आर्डिनेंस पास करने का अधिकार नहीं था. मेरी मांग है कि सुप्रीम कोर्ट ऐसा कहे कि वह अध्यादेश गैरकानूनी था.

सरकार सावरकर का सपना करे पूरा:जब उनसे पूछा कि आज यह याचिका क्याें तो वे बोले कि सावरकर 1966 में गुजर गए. काेई कहे कि यह कानूनी गलत भी था तो इस बारे में आज क्या किया जा सकता है? इसका एक जवाब मेरे पास है. 8 फरवरी 1944 को अमेरिकन काउंसिल ने सावरकर के साथ सावरकर सदन में मुलाकात की और उनसे अनेक मुद्दों पर चर्चा की. जो बातचीत हुई, उसको वाशिंगटन को भेजा. वह पवत्र मेरे पास है. हिन्दुराष्ट की मांग करते है. उसमें अल्पसंख्यक का क्या अधिकार रहेगा. दो टूक जवाब रहेगा. इसमें दोनों को एक समान लॉ लागू रहेगा. दूसरी बात कही कि मेरे वश में होता तो दस हजार भारतीय बच्चों को अमेरिका भेजता, ताकि वे देश का भला कर सके. दूसरी मांग है कि सरकार उनके उस सपने को सरकार आज पूरा कर सकती है.

नारायण आप्टे की तरफ से लंदन सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई याचिका का पत्र.

तीसरा पाइंट:दो लाेगों को इस मुकदमे में फांसी दी गई. नाथूराम गोडसे के बारे में सब जानते हैं, लेकिन दूसरे शख्स थे नारायण दत्तात्रय आप्टे. इस याचिका में स्पष्ट लिखा है कि गोडसे से लेना देना नहीं. इसमें तीन नाम है. पहला विनायक दामोदर सावरकर, दूसरे डॉ. परचरे, हिन्दु महासभा ग्वालियर के नेता और तीसरे नारायण आप्टे. आप्टे आरोपी क्रमांक दो थे. इनको लाल किले में चले मुकदमे में फांसी दी गई. शिमला हाईकोर्ट ने भी फांसी की सजा को बरकरार रखा. 21 जून 1949 को यह मुकदमा का फैसला शिमला हाईकोर्ट ने दिया. उस समय सुप्रीम कोर्ट नहीं था. उस समय लंदन प्रीवी काउंसिल में अपील की. वहां 28 अक्टूबर 1949 को याचिका रद्द कर दी गई.

नारायण आप्टे और याकुब मेमन के मामले में कांग्रेस सरकार द्वारा किए गए पक्षपात के दस्तावेज.

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लाइव प्रोसेडिंग की मांग:सुप्रीम कोर्ट में कभी भी फांसी की याचिका रद्द की जाती है तो उसका एक जजमेंट लिखा जाता है. पूरी डिटेल के साथ लिखा जाता है. रीजन आर्डर हो. वजह देना बहुत जरूरी है. रिसर्च किया तो इंग्लैंड के सुप्रीम कोर्ट से फैसले की कॉपी मिली और सिर्फ एक पन्ने का आर्डर था, जिसमें लिखा गया कि इनकी याचिका खारिज की गई और इसे नॉन स्पीकिंग आर्डर कहते हैं. कभी नॉन स्पीकिंग आर्डर से खारिजी नहीं हो सकती. जब यह फैसला सुनाया तो सर्टिफाइड कॉपी मिलनी चाहिए थी. सर्टिफाइड कॉपी मिलने में ही दो तीन महीने लग जाते और वो कॉपी भी नहीं मिली. 5 नवंबर को एक मर्सी पिटीशन गवर्नर जनरल को करी तो 48 घंटे में उसे खारिज कर दिया और 15 नवंबर को फांसी दे दी. आखिर इतनी जल्दी क्या थी. जबकि सबको पता था कि 26 जनवरी 1950 को सुप्रीम कोर्ट लागू हो जाएगा. कोर्ट से निवेदन करने वाला हूं कि टेक्नोलॉजी बढ़ गई है. जब भी सुनवाई हो तो इसका लाइव स्ट्रीम करें, ताकि लोगों को पता चल सके.

Last Updated : Mar 10, 2023, 9:37 PM IST

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