पूर्णिया:कहते हैं कि 'सपने उन्हीं के सच होते हैं जिनके सपनों में जान होती है, पंखों से कुछ नहीं होता बल्कि हौसलों से उड़ान होती है' इन्हीं पंक्तियों को चरितार्थ कर जीवन जी रहे हैं जिले के रामबाग में रहने वाले दिव्यांग शिक्षक रमन कुमार और श्रवण कुमार. पैरों से दिव्यांग ये दोनों सामान्य नहीं हैं. ये अपनी दिव्यांगता के बावजूद गांव व कस्बों में जाकर केवल मतदाताओं को जागरूक ही नहीं कर रहे बल्कि वोटिंग के दिन मतदाताओं को उनके तय पोलिंग बूथ तक ले जाने का प्रबंध भी कर रहे हैं.
इन दिव्यांगों का जीवन
दरअसल जिले में रहने वाले, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले और मैथ्स से ऑनर्स कर रहे शिक्षक रमन कुमार दोनों पैरों से दिव्यांग होने के बावजूद इसे अपनी कमजोरी नहीं बनने देते. बल्कि अपनी अनूठी सोच, मेहनत और जज्बे से इसे अपनी ताकत बनाया.
कुछ ऐसी ही सोच बी. कोठी इलाके के निवासी और एक पैर से दिव्यांग श्रवण की. लिहाजा, ऐसे दिव्यांगों को 'लोकतंत्र के प्रहरी' का तमगा देना कतई गलत नहीं होगा.
लोगों की मताधिकार के प्रति जागरुक करते रमन घर-घर घूमकर वोटरों को कर रहे जागरूक
शिक्षक रमन कुमार व श्रवण की मानें तो "एक सजग वोटर में ही एक विकसित समाज की परिकल्पना छिपी है. लोकतंत्र में एक वोटर हमेशा से ही निर्णायक भूमिका में रहा है." लिहाजा, इन पंक्तियों का सार समझते हुए इन दोनों ने इसे अपनी जिंदगी में उतार लिया है. मतदाताओं को जागरूक बनाने की पहल छेड़ने के साथ ही वे लोगों के घर-घर जाकर वोटिंग करने व बेहतर उम्मीदवार को जीत दिलाने की अपील करते हैं. बता दें कि यह काम ये दोनों बीते दो सालों से कर रहे हैं.
बूढ़े-बुजुर्गों को पोलिंग बूथ तक ले जाने में करते हैं मदद
जहां ये दोनों मतदाताओं को पहले वोटिंग के प्रति जागरूक करते हैं वहीं मतदान के दिन पहले वे अपना मत देने जाते हैं. फिर अपने इलाके व आस-पास सटे बस्तियों में घूम-घूमकर घर के बड़े-बुजुर्गों, महिलाओं को उनके तय पोलिंग बूथ तक ले जाकर मतदान कराते हैं.
भ्रष्टाचार से तंग आकर दिव्यांगों ने छेड़ी मुहिम
महज इतना ही नहीं ये दोनों जिले की झुग्गी बस्तियों में रहने वाले बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देने का भी नेक काम कर रहे हैं. रमन और श्रवण कुमार बताते हैं कि इस जागरुकता मुहिम को छेड़ने के पीछे उनकी एक वजह उनकी जरुरत थी. दरअसल दोनों को ही एक ट्राई साईकल की जरूरत थी. जब बार-बार जन प्रतिनिधियों के दरवाजे तक चक्कर लगाने के बाद भी इन्हें ट्राई साईकल नहीं दी गयी तो इन्होंने उसी दिन ठान लिया कि ऐसा इसीलिए हो रहा है क्योंकि हम बेहतर प्रतिनिधि का चयन नहीं कर रहे हैं. इसलिए अब ऐसे प्रतिनिधियों को सत्ता की चाभी नहीं थमानी है.
बहरहाल मत की कीमत परखते हुए उन्होंने इस दिशा में काम करना शुरू किया और आज दो साल से जन भागीदारी बढ़ाने में निरंतर कार्यरत्त हैं.