पटना:बिहार को 20 मुख्यमंत्री देने वाली कांग्रेस पार्टी आज हाशिए पर खड़ी है. हर चुनाव में भले ही कांग्रेस खुद को पुनर्जीवित करने की कोशिश करती दिखती हो लेकिन नतीजा कुछ खास बेहतर नहीं हुआ. आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 2015 की तुलना में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा भी कर रही है. इस बाबत कांग्रेस के कई नेताओं ने बयान देकर कई बार सहयोगियों को परेशान भी कर दिया है.
सवाल यह है कि जिस कांग्रेस ने बिहार में मजबूती से कई दशकों तक सरकार चलाई, आज भी अपने सहयोगी के भरोसे क्यों टिकी है ? एक और जहां कांग्रेस के नेताओं का दावा है कि राहुल गांधी के निर्देश पर कांग्रेस लगातार काम कर रही है और वह आगामी विधानसभा चुनाव में पहले से कहीं बेहतर प्रदर्शन करेगी. तो वहीं, सत्ता पक्ष के नेताओं का मानना है कि कांग्रेस का सिर्फ भग्नावशेष बचा है.
पटना से अभिषेक की रिपोर्ट इस बार मिलेगी सफलता- प्रदेश अध्यक्ष, कांग्रेस
हालांकि, इस बार पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा का मानना है कि 2015 की तुलना में पार्टी अधिक सीटों पर चुनाव लड़ेगी भी और जीतेगी भी. उन्होंने कहा कि 38 जिलों में वरिष्ठ नेताओं को कई तरह के कार्य भार दिए गए हैं. किन-किन सीटों पर कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ सकती है. इसका आकलन कर, रिपोर्ट दिल्ली भेजी जाएगी. डिजिटल मेंबरशिप से राज्य में नए सदस्य बनाए जा रहे हैं.
डॉ. मदन मोहन झा, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बिहार में कांग्रेस का अस्तित्व खत्म- जदयू
वहीं, जदयू के प्रवक्ता राजीव रंजन का तो मानना है कि बिहार में कांग्रेस का अस्तित्व खत्म हो चुका है. 100 वर्ष से ज्यादा पुरानी पार्टी का सिर्फ भग्नावशेष बचा है. जदयू नेता कहते हैं कि बिहार में एक ओर नीतीश कुमार और उनके सहयोगियों की सुशासन की सरकार है, तो दूसरी ओर राजद और कांग्रेस का गठबंधन. राज्य की जनता राजद के कार्यकाल को भी भलि-भांति झेली है और जानती है, जिसमें कांग्रेस बराबर की साझेदार रही है. आगामी चुनाव में भी कांग्रेस के लिए बिहार में कुछ भी खास करने के लिए नहीं होगा.
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
तीन दशकों में आखिर कांग्रेस हाशिए पर क्यों चली गई? इस सवाल के जवाब में एएन सिन्हा शोध संस्थान के प्रोफेसर डीएम दिवाकर कहते हैं कि जब क्षेत्रीय पार्टी की राजनीति शुरू हुई, तो देश में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ही थी. कांग्रेस सरकार बनाने के लिए क्षेत्रीय पार्टी के साथ तो जरूर गई थी लेकिन इसका परिणाम कांग्रेस के पक्ष में नहीं आया. इसका एक उदाहरण बिहार भी है.
राजनीतिक विशेषज्ञ प्रो. डीएम दिवाकर उन्होंने कहा कि अगर कांग्रेस खुद को बिहार में पुनर्जीवित करना चाहती है तो सबसे पहले उन्हें सभी सीटों पर चुनाव लड़ना होगा ताकि राज्य में उनके कार्यकर्ताओं और समर्थकों की संख्या लगातार बढ़े. यह काम एक बार नहीं, कई बार चुनाव लड़ने पर ही संभव हो सकेगा. दिवाकर का यह भी मानना है कि कांग्रेस में पुराने और वरिष्ठ नेताओं से नहीं, बल्कि नौजवानों और नई पीढ़ी के नेताओं को कमान सौंपने पर ही कुछ बेहतर हो सकेगा.
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर 'भागलपुर दंगे का खामियाजा भुगत रही कांग्रेस'
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर कहते हैं कि भागलपुर दंगे का खामियाजा कांग्रेस को बुरी तरह से भुगतना पड़ा, जिसके बाद मुस्लिम समाज कांग्रेस से अलग हो गया. इसके अलावा मंडल कमीशन पर कांग्रेस की स्पष्ट नीति नहीं आने की वजह से पिछड़ा समाज भी कांग्रेस से अलग हो गया. लालू-राबड़ी की सरकार को समर्थन करने के कारण सवर्ण वोट बैंक भी कांग्रेस के साथ नहीं रह सका.
बिहार प्रदेश कांग्रेस का 30 साल का इतिहास
- 1985 में 196 कांग्रेस के विधायक थे.
- 1990 में 71 विधायक कांग्रेस के जीते.
- इस इस वर्ष बिहार में बड़ा बदलाव हुआ और लालू प्रसाद जनता दल की ओर से मुख्यमंत्री बने.
- 1995 में कांग्रेस सिमटकर के 29 सीटों पर पहुंच गई.
- इस बार लालू प्रसाद को पहले से भी बड़ी जीत हासिल हुई थी.
- सन 2000 में कांग्रेस की सीटों में गिरावट होते हुए 23 विधायक बने.
- वर्ष 2005 में कांग्रेस का ग्राफ काफी नीचे गिर गया और मात्र 9 विधायक बने.
- इस बार लालू यादव को शिकस्त देकर उन्हीं के पुराने सहयोगी नीतीश कुमार ने पहली बार सीएम बने.
- वर्ष 2010 में तो कांग्रेस की और भी बुरी हार हुई.
- वर्ष 2015 में एक बार फिर नीतीश कुमार की अगुवाई में कांग्रेस को 27 सीटें मिली.
गौरतलब है कि पिछले 30 वर्षों में कांग्रेस जमीनी स्तर पर काफी कमजोर पड़ गई है. एक ओर जहां कांग्रेस के परंपरागत वोटर भाजपा के साथ चले गए, तो वहीं एक धड़ा राजद के साथ. आगामी विधानसभा चुनाव के पहले तो कांग्रेस के कई नेता कई दावे कर रहे हैं लेकिन क्या कुछ नया बदलाव कांग्रेस में दिखेगा, यह तो वक्त ही बताएगा.