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विशेष: संकल्प नहीं विकल्प की राजनीति की राह खोज रहे दल

बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव की सियासी बिसात बिछ चुकी है. नेताओं के दल-बदल का खेल शुरू हो चुका है. मंगलवार को आरजेडी के 5 एमएलसी जदयू में शामिल हो गया. जिसके बाद पूरा दिन राजनीतिक उठापटक वाला रहा.

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पटना

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Published : Jun 23, 2020, 9:42 PM IST

Updated : Jun 23, 2020, 11:01 PM IST

पटना: 1990 के बाद बिहार की सियासत में संकल्पित राजनीति का दौर ही लगभग खत्म सा हो गया. जेपी आंदोलन के बाद जिस संकल्प की राजनीति को लेकर बिहार की गद्दी जिन लोगों के हाथों में गई वे लोगों के सिद्धांत के संकल्पित राजनीति की बात तो करते रहे लेकिन सैद्धांतिक तौर पर इतने मजबूत नहीं रह पाए कि उस पर टिका रहा जा सके. यही वजह थी कि संकल्प की नहीं विकल्प की राजनीति को लेकर राजनीतिक दल चल निकले और वह बिहार की राजनीति का राजतिलक बन गया.

बिहार में कमजोर हुई कांग्रेस और मजबूत हुए लालू के बाद जब लालू राज का बिहार में दौर चला तो कांग्रेस ने विकल्प की राजनीति में राजद के पीछे बैठना स्वीकार कर लिया. राजद और कांग्रेस के गठबंधन में लंबे समय तक बिहार में सरकार चली. सवाल भी कई उठे. जेपी के सिद्धांत पर, सियासत पर, सैद्धांतिक राजनीति के संकल्प पर, और चल रही राजनीति के विकल्प पर, लेकिन सत्ता के दौर में जातीय समीकरण की गोलबंदी कुछ ऐसी थी कि लालू बिहार के ब्रांड बन गए. हालांकि जिस तरह की सियासत लालू के समय में हुई उससे बहुत कुछ बदलने और भटकने लगा. जिसके बाद सियासत ने भी बदलाव का दौर समझ लिया.

भाजपा से अलग होकर सिमट गये नीतीश कुमार
2000 में हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार अपनी मजबूत हनक बिहार को दिखा तो गए, लेकिन गद्दी पर ज्यादा दिन नहीं रह पाए. हालांकि उसके बाद जो राजनीतिक हालात बने, उससे बिहार के लोगों ने बदलाव का मन बना लिया. 2005 में सुशासन के नाम पर नीतीश कुमार गद्दी पर बैठे. बीजेपी सहयोगी पार्टी रही और एक बेहतरीन सरकार बिहार को मिल गई. नीतीश कुमार ने विकास को एजेंडा बनाया और 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में विपक्ष का सूपड़ा ही साफ कर दिया. नीतीश की राजनीतिक जमीन बिहार में इतनी मजबूत हुई कि उन्हें उखाड़ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो गया. हालांकि बीजेपी के बदले हुए हालात ने जिस तरीके से नरेंद्र मोदी को 2013 से मजबूती देनी शुरू किया, बिहार में नीतीश बनाम नरेंद्र मोदी की एक पहल शुरू हो गई. बात यहीं नहीं रुकी. बीजेपी के सबसे पुराने सहयोगी पार्टी के रूप में रहे समता पार्टी और उसके बाद जदयू ने 2014 में नीतीश विरोध के कारण भाजपा से अपना दामन छुड़ा लिया. नीतीश अलग हुए. लोकसभा चुनाव अपने बूते लड़ गए. परिणाम हुआ कि पार्टी बुरी तरह धराशाई हो गई. 20 सीट जीतने वाली जदयू 2 सीट पर सिमट गई.

नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार(फाइल फोटो)

पिछड़ा और अति पिछड़ा की राजनीति
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय माना और मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. 16 मई 2014 को लोकसभा चुनाव के परिणाम आए जिसमें देश के फलक पर नरेंद्र मोदी इतनी मजबूती से उभरे कि देश के प्रधानमंत्री बन गए. हालांकि बिहार में संकल्प की राजनीति के बाद जिस विकल्प की बात शुरु हुई उसमें जिस लालू विरोध के बदौलत नीतीश कुमार बिहार की गद्दी पर बैठे थे. उसी पार्टी के साथ नीतीश का अंदरूनी समझौता हो गया. बदले हुए हालात में नीतीश कुमार ने अपना उत्तराधिकारी जीतन राम मांझी को बना दिया. उद्देश्य साफ था कि जाति की राजनीति का एक और सिद्धांत बिहार में पिछड़ा और अति पिछड़ा के रूप में जगह बना रहा था, जिसकी एक राजनीतिक धुरी नीतीश कुमार को खड़ी करनी थी और यही वजह है कि जीतन राम मांझी को जदयू की सियासत और बिहार की राजनीति का केंद्र बिंदु बना दिया गया.

नीतीश का मांझी पर दांव
2014 में नीतीश कुमार ने अपनी गद्दी छोड़ी तो उत्तराधिकारी के तौर पर जीतन राम मांझी को कमान दी. लेकिन जीतन राम मांझी ने नीतीश के संकल्पित राजनीति से इतर जाकर के वैकल्पिक राजनीति को ही अपना सिद्धांत बना लिया और बीजेपी के समर्थन के बाद जीतन राम मांझी के विरोध कुछ इस कदर मुखर हुए कि उन्होंने नीतीश कुमार को ही बड़ा चैलेंज दे दिया. जदयू के भीतर मचे घमासान के बीच नीतीश कुमार को यह लगने लगा कि जिस बिहार को उन्होंने खड़ा किया है और जिस सुशासन की बात लगातार वह करते रहे हैं, जीतन राम मांझी के गद्दी पर रहते वह पूरा नहीं हो पाएगा. यही वजह थी कि नीतीश कुमार ने मांझी से इस्तीफे की बात की तो मांझी मुकर गए, क्योंकि मांझी के पास सैद्धांतिक नहीं वैकल्पिक राजनीति का एक हथकंडा था जिसे मांझी कैश करा लेना चाहते थे, लेकिन राजनीति उस जगह पर नहीं जा पाई जहां माझी चाहते थे और परिणाम में 20 फरवरी 2015 को जीतन राम मांझी ने इस्तीफा दे दिया. बीजेपी से विरोध और सरकार चलाने की चुनौती में बिहार एक बार फिर उलझ कर रह गया.

नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी (फाइल फोटो)

2015 में भाजपा और जदयू अलग हुये
नीतीश कुमार ने जिस सुशासन के सैद्धांतिक राजनीति को 2005 में बिहार में रखा था उसमें लालू विरोध ही नीतीश की सियासत का सबसे बड़ा मुद्दा था, लेकिन 2015 में उन्हें भी समझौता करना पड़ा. लालू विरोध को छोड़कर नीतीश कुमार फिर वैकल्पिक राजनीति के रास्ते पर चल निकले और जिस लालू के विरोध को लेकर उन्होंने इतनी बड़ी राजनीतिक दूरी तय की थी उसे 2015 में उन्होंने साथ कर लिया. 2015 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में नरेंद्र मोदी का विकास मॉडल और नीतीश के सुशासन का मॉडल काफी चर्चा में रहा और इसी को लेकर चुनाव लड़ा भी गया, लेकिन जाति समीकरण की गोलबंदी में मजबूती से उलझे बिहार ने विकास के उस मापदंड को नकार दिया जो 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में पाया था. हालांकि एक बात बीजेपी के पक्ष में रही. 21 फीसदी वोटर्स को बीजेपी 2005, 2010 और 2015 के चुनाव में अपना वोट बैंक मानती थी, लेकिन 2015 के हुए चुनाव में बीजेपी का वोट बैंक 4% बढ़ा और विधानसभा चुनाव में उसे कुल 34 फीसदी वोट हासिल हुआ.

नीतीश ने राजद का छोड़ा साथ
नीतीश के लिए चुनौती और चिंता दोनों इसी विषय की थी कि लालू के सोशल इंजीनियरिंग और नीतीश के विकास के बाद भी बीजेपी के वोट बैंक में कोई कमी नहीं आई. एक चीज और जो काफी अहम थी, वो बिहार में हिंदूवादी व्यवस्था और हिंदू धर्म का इतना बड़ा आभार भी नहीं खड़ा हुआ था. बिहार की राजनीति में संकल्पित व्यवस्था बार-बार भटकता रहा. जदयू और राजद में एक बार फिर तनातनी हुई और संकल्प में महागठबंधन जिस सियासत को लेकर चला था. नीतीश कुमार फिर अपनी वैकल्पिक राजनीति की तरफ बढ़ने के लिए राष्ट्रीय जनता दल से नाता तोड़कर नीतीश कुमार फिर अपने पुराने साथी भाजपा के साथ हो लिये. 2015 के विधानसभा चुनाव में जिस संकल्प की राजनीति के साथ नीतीश कुमार ने सरकार बनाई थी वह अपने अधूरे कार्यकाल में ही नए विकल्प की राजनीति के साथ चल निकला और एक बार फिर संकल्पित नहीं वैकल्पिक राजनीति के सहारे ही सरकार बना बैठे.

गठबंधन और बिखराव
इन तमाम चीजों के बीच सियासत में जिस जगह को खोजा जा रहा है उसमें नीति और नीतीश के बाद के बिहार को लेकर 18 चीजें उलझी जा रही हैं. भाजपा को यह लगा था कि जीतन राम मांझी बिहार में नीतीश की नैया डुबो देंगे और बीजेपी मांझी के भरोसे किसी भी चुनावी वैतरणी को पार कर जाएगी लेकिन ये नहीं हुआ. उपेंद्र कुशवाहा भी बीच में खिसक लिए और यह जब अपनी राजनीतिक शाह को नापने में फैल रहे तो जदयू और भाजपा को बाय बाय कर गठबंधन में राजद के साथ जा चुके लेकिन विधानसभा चुनाव के ऐन पहले जिस तरीके की सियासी ड्रामेबाजी बिहार में शुरू हुई है, उससे एक बार फिर लगने लगा है कि राजनीतिक दलों को संकल्पित नहीं वैकल्पिक राजनीति के तहत ही नए चुनाव समर में जाना है.

नीतीश कुमार और लालू यादव (फाइल फोटो)

वैकल्पिक सियासत का सिद्धांत बन रहा बिहार की राजनीति का मूल
जीतन राम मांझी अल्टीमेटम दे रहे हैं. राष्ट्रीय जनता दल की हालत खस्ता हो चली है और नीतीश कुमार इस दम के साथ चुनावी मैदान में हैं कि भाजपा ने उन्हें पहले ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर रखा है. ऐसे में दिल्ली दरबार की चिंता भी लाजमी है कि अगर राष्ट्रीय जनता दल के साथ समझौता नहीं हो पाया तो कांग्रेस क्या करेगी? जीतन राम मांझी दिल्ली पहुंचे हैं. सोनिया गांधी से बात होगी. विषय यही है कि अगर राजद के साथ बात नहीं बनी, सीट समझौते का तालमेल नहीं हुआ, सैद्धांतिक व्यवस्था की बातें जमीन पर नहीं उतरी तो फिर वैकल्पिक राजनीति ही एक सहारा बच पाएगा. यह सही है कि जीतन राम मांझी के भरोसे कांग्रेस बिहार में बहुत कुछ नहीं कर पाएगी. जिस जमीन और जनाधार को कांग्रेस बहुत पहले खो चुकी है उसे इतनी जल्दी मजबूती से नहीं उतार पाएगी.

कांग्रेस से जदयू में गये अशोक चौधरी
यह कहना मुश्किल है कि 2015 में जिस अशोक चौधरी के भरोसे कांग्रेस ने 26 सीटें जीती थी वह भी उनके हाथ से निकल चुके हैं. अशोक चौधरी जदयू के हिस्से हो चुके हैं. ऐसे में अपनी जमीन को मजबूत करने के लिए माझी पर भरोसा करना कांग्रेस की मजबूरी सी दिख रही है. वह भी इस आधार पर कि अगर राजद ने मनमाफिक सीट नहीं दिया तो फिर पार्टी का क्या होगा. ऐसे में संकल्प व्यवस्था के तहत कुछ होगा कहना मुश्किल है, क्योंकि वैकल्पिक सियासत का सिद्धांत ही बिहार की राजनीति का मूल बनता जा रहा है.

विधानसभा चुनाव के लिये तैयार हो रहा बिहार
बिहार 2020 के लिए तैयार हो रहा है. अगले एक-दो महीने में 2020 के सत्ता के हुकूमत की जंग जमीन पर उतर आएगी. ऐसे में पार्टियों के लिए सैद्धांतिक सियासत जनता के बीच रखने के लिए मुद्दे किए जाने वाले वादे और वादों पर खरा उतरने का संकल्प राजनीतिक दलों को लेना है. अब कौन किसके साथ होगा उसमें सैद्धांतिक जुड़ाव और वैचारिक विभेद कहां तक जमीन पर उतरेंगे और जमीन पर उतरी चीजें कितने विभेद को खत्म कर पाएंगी. इसी के बीच का द्वंद राजनैतिक दलों के लिए वैकल्पिक राजनीति का रास्ता खोजने के लिए मजबूर कर देती हैं. नीतीश कुमार बीजेपी के साथ पूर्व समझौते में हैं. इसमें फिलहाल कोई परिवर्तन होता नहीं दिख रहा है लेकिन जो चीजें बदल रही हैं वह गठबंधन में उन नेताओं के साथ जो सियासत में अपने चेहरे को दम बना रहे हैं.

2020 का चुनावी समर
बात तेजस्वी की हो तो राजद की विरासत उनके साथ है. बात माझी की हो तो नीतीश कुमार का नेतृत्व संभाल चुके हैं. उत्तराधिकारी रह चुके हैं. उपेंद्र कुशवाहा की करें तो जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी के नारे पर आज भी टिके हुए हैं. पप्पू यादव की करें तो वे युवाओं के नेता बन रहे हैं और इन तमाम चीजों के बीच अगर सिद्धांत की राजनीति बिखरी पड़ी है तो कांग्रेस का वोट बैंक जो कभी कांग्रेस के लिए बिहार एक धरोहर होती थी, जहां से बिहार में जीतना बिल्कुल तय था. इन तमाम चीजों को ही 2020 की रणनीति को खड़ा करना है. उसमें मांझी सोनिया को कितना समझा पाएंगे और सोनिया मांझी के भरोसे चुनावी वैतरणी को पार कर पाएंगे यह तो सियासी ताने-बाने के बीच है, लेकिन एक बात तो साफ है कि 2020 में भी विपक्ष की राजनीति के सैद्धांतिक राजनीति के साथ नहीं होगी. वैकल्पिक सियासत ही महागठबंधन के लिए सैद्धांतिक राजनीति का मुद्दा होगा यह चीजें धीरे-धीरे साफ होने लगी है.

Last Updated : Jun 23, 2020, 11:01 PM IST

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