पटना: 1990 के बाद बिहार की सियासत में संकल्पित राजनीति का दौर ही लगभग खत्म सा हो गया. जेपी आंदोलन के बाद जिस संकल्प की राजनीति को लेकर बिहार की गद्दी जिन लोगों के हाथों में गई वे लोगों के सिद्धांत के संकल्पित राजनीति की बात तो करते रहे लेकिन सैद्धांतिक तौर पर इतने मजबूत नहीं रह पाए कि उस पर टिका रहा जा सके. यही वजह थी कि संकल्प की नहीं विकल्प की राजनीति को लेकर राजनीतिक दल चल निकले और वह बिहार की राजनीति का राजतिलक बन गया.
बिहार में कमजोर हुई कांग्रेस और मजबूत हुए लालू के बाद जब लालू राज का बिहार में दौर चला तो कांग्रेस ने विकल्प की राजनीति में राजद के पीछे बैठना स्वीकार कर लिया. राजद और कांग्रेस के गठबंधन में लंबे समय तक बिहार में सरकार चली. सवाल भी कई उठे. जेपी के सिद्धांत पर, सियासत पर, सैद्धांतिक राजनीति के संकल्प पर, और चल रही राजनीति के विकल्प पर, लेकिन सत्ता के दौर में जातीय समीकरण की गोलबंदी कुछ ऐसी थी कि लालू बिहार के ब्रांड बन गए. हालांकि जिस तरह की सियासत लालू के समय में हुई उससे बहुत कुछ बदलने और भटकने लगा. जिसके बाद सियासत ने भी बदलाव का दौर समझ लिया.
भाजपा से अलग होकर सिमट गये नीतीश कुमार
2000 में हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार अपनी मजबूत हनक बिहार को दिखा तो गए, लेकिन गद्दी पर ज्यादा दिन नहीं रह पाए. हालांकि उसके बाद जो राजनीतिक हालात बने, उससे बिहार के लोगों ने बदलाव का मन बना लिया. 2005 में सुशासन के नाम पर नीतीश कुमार गद्दी पर बैठे. बीजेपी सहयोगी पार्टी रही और एक बेहतरीन सरकार बिहार को मिल गई. नीतीश कुमार ने विकास को एजेंडा बनाया और 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में विपक्ष का सूपड़ा ही साफ कर दिया. नीतीश की राजनीतिक जमीन बिहार में इतनी मजबूत हुई कि उन्हें उखाड़ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो गया. हालांकि बीजेपी के बदले हुए हालात ने जिस तरीके से नरेंद्र मोदी को 2013 से मजबूती देनी शुरू किया, बिहार में नीतीश बनाम नरेंद्र मोदी की एक पहल शुरू हो गई. बात यहीं नहीं रुकी. बीजेपी के सबसे पुराने सहयोगी पार्टी के रूप में रहे समता पार्टी और उसके बाद जदयू ने 2014 में नीतीश विरोध के कारण भाजपा से अपना दामन छुड़ा लिया. नीतीश अलग हुए. लोकसभा चुनाव अपने बूते लड़ गए. परिणाम हुआ कि पार्टी बुरी तरह धराशाई हो गई. 20 सीट जीतने वाली जदयू 2 सीट पर सिमट गई.
पिछड़ा और अति पिछड़ा की राजनीति
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय माना और मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. 16 मई 2014 को लोकसभा चुनाव के परिणाम आए जिसमें देश के फलक पर नरेंद्र मोदी इतनी मजबूती से उभरे कि देश के प्रधानमंत्री बन गए. हालांकि बिहार में संकल्प की राजनीति के बाद जिस विकल्प की बात शुरु हुई उसमें जिस लालू विरोध के बदौलत नीतीश कुमार बिहार की गद्दी पर बैठे थे. उसी पार्टी के साथ नीतीश का अंदरूनी समझौता हो गया. बदले हुए हालात में नीतीश कुमार ने अपना उत्तराधिकारी जीतन राम मांझी को बना दिया. उद्देश्य साफ था कि जाति की राजनीति का एक और सिद्धांत बिहार में पिछड़ा और अति पिछड़ा के रूप में जगह बना रहा था, जिसकी एक राजनीतिक धुरी नीतीश कुमार को खड़ी करनी थी और यही वजह है कि जीतन राम मांझी को जदयू की सियासत और बिहार की राजनीति का केंद्र बिंदु बना दिया गया.
नीतीश का मांझी पर दांव
2014 में नीतीश कुमार ने अपनी गद्दी छोड़ी तो उत्तराधिकारी के तौर पर जीतन राम मांझी को कमान दी. लेकिन जीतन राम मांझी ने नीतीश के संकल्पित राजनीति से इतर जाकर के वैकल्पिक राजनीति को ही अपना सिद्धांत बना लिया और बीजेपी के समर्थन के बाद जीतन राम मांझी के विरोध कुछ इस कदर मुखर हुए कि उन्होंने नीतीश कुमार को ही बड़ा चैलेंज दे दिया. जदयू के भीतर मचे घमासान के बीच नीतीश कुमार को यह लगने लगा कि जिस बिहार को उन्होंने खड़ा किया है और जिस सुशासन की बात लगातार वह करते रहे हैं, जीतन राम मांझी के गद्दी पर रहते वह पूरा नहीं हो पाएगा. यही वजह थी कि नीतीश कुमार ने मांझी से इस्तीफे की बात की तो मांझी मुकर गए, क्योंकि मांझी के पास सैद्धांतिक नहीं वैकल्पिक राजनीति का एक हथकंडा था जिसे मांझी कैश करा लेना चाहते थे, लेकिन राजनीति उस जगह पर नहीं जा पाई जहां माझी चाहते थे और परिणाम में 20 फरवरी 2015 को जीतन राम मांझी ने इस्तीफा दे दिया. बीजेपी से विरोध और सरकार चलाने की चुनौती में बिहार एक बार फिर उलझ कर रह गया.
2015 में भाजपा और जदयू अलग हुये
नीतीश कुमार ने जिस सुशासन के सैद्धांतिक राजनीति को 2005 में बिहार में रखा था उसमें लालू विरोध ही नीतीश की सियासत का सबसे बड़ा मुद्दा था, लेकिन 2015 में उन्हें भी समझौता करना पड़ा. लालू विरोध को छोड़कर नीतीश कुमार फिर वैकल्पिक राजनीति के रास्ते पर चल निकले और जिस लालू के विरोध को लेकर उन्होंने इतनी बड़ी राजनीतिक दूरी तय की थी उसे 2015 में उन्होंने साथ कर लिया. 2015 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में नरेंद्र मोदी का विकास मॉडल और नीतीश के सुशासन का मॉडल काफी चर्चा में रहा और इसी को लेकर चुनाव लड़ा भी गया, लेकिन जाति समीकरण की गोलबंदी में मजबूती से उलझे बिहार ने विकास के उस मापदंड को नकार दिया जो 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में पाया था. हालांकि एक बात बीजेपी के पक्ष में रही. 21 फीसदी वोटर्स को बीजेपी 2005, 2010 और 2015 के चुनाव में अपना वोट बैंक मानती थी, लेकिन 2015 के हुए चुनाव में बीजेपी का वोट बैंक 4% बढ़ा और विधानसभा चुनाव में उसे कुल 34 फीसदी वोट हासिल हुआ.