पटना: बिहार को राजनीति का गढ़ माना जाता है. फिर चाहें बात इतिहास की करें या वर्तमान की. ये वो भूमि है जहां पर राजनीति की पाठशाला आपको हर घर, गली और चौराहे पर मिल जाएगी. यही कारण है एक ओर जहां बिहार में कई नेता लोकप्रिय हुए तो उनके बेटों को जनता की तरफ से वैसा प्यार नहीं मिला. शायद बिहार के लोग राजनीति में परिवारवाद की परिभाषा को अच्छी तरह समझते बूझते है. भले ही बिहार में कई करिशमाई नेताजनता के समर्थन से सत्ता और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हो. लेकिन अपने प्रियजनों को सत्ता में उसी जनसमर्थन से स्थापित करने की उनकी कोशिश हमेशा नाकाम रही है.
इसे भी पढ़े:बिहार : समाजवादी आंदोलन से निकले नेताओं ने अपनाई 'मैं' की नीति!
बिहार में हुए एक से बढ़ कर एक करिश्माई नेता
राज्य की जनता राजनीतिक तौर पर बेहद जागरूक है. करिश्माई नेतृत्व के बदौलत बिहार में कई नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी तक तो पहुंचे लेकिन उनके बेटों को जनता ने खारिज कर दिया, बाद में भले ही पिता के प्रभाव के कारण उन्हें राजनीति में पद मिल गए हों. ये सिलसिला बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह से चली आ रही है. श्री बाबू के पुत्र गौरीशंकर सिंह राजनीति में तो सक्रिय थे, लेकिन उन्हें श्री बाबू वाला जनसमर्थन हासिल न हो सका.
राजनीतिक विश्लेषक डॉ संजय कुमार श्री कृष्ण सिंह के अलावा महामाया प्रसाद, भोला पासवान शास्त्री, विनोदानंद झा, केबी सहाय, सतीश प्रसाद सिंह, बीपी मंडल, हरिहर सिंह, दरोगा राय, कर्पूरी ठाकुर, केदार पांडे, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, विंदेश्वरी प्रसाद मंडल, हरिहर प्रसाद सिन्हा, अब्दुल गफूर, डॉ जगन्नाथ मिश्र, डॉ राम सुंदर दास, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिंह और अब लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार, ये सभी जन समर्थन और अपने करिश्माई नेतृत्व के कारण मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे.
पुराने नेताओं ने किया परिवारवाद का विरोध
श्री कृष्ण सिंह, भोला पासवान शास्त्री, केदार पांडे, विनोदानंद झा, केबी सहाय, अब्दुल गफूर, कर्पूरी ठाकुर सरीखे नेताओं ने परिवारवाद की मुखालफत की और अपने जिंदा रहते परिवार के किसी सदस्य को राजनीति में नहीं आने दिया. कर्पुरी ठाकुर के बाद उनके पुत्र रामनाथ ठाकुर को हालांकि पिता के नाम पर राजनीति में जगह मिली और वह आज की तारीख में राज्यसभा सांसद हैं. बिहार की राजनीति में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जो मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे और अपने बेटों के लिए भी बाद में जद्दोजहद किया. बिहार में कई पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे राजनीति में सक्रिय हैं.
इसे भी पढ़ें:समाजवादी आंदोलन से निकले नेताओं ने अपनाई 'मैं' की नीति! इन वृक्षों के नीचे नहीं बन सका कोई पेड़
तेजस्वी यादव संघर्ष में दिख रहे हैं आगे
इनमें पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के पुत्र रामनाथ ठाकुर, जगन्नाथ मिश्र के पुत्र नीतीश मिश्र, दरोगा राय के पुत्र चंद्रिका राय, भागवत झा आजाद के पुत्र कृति झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिंह के पुत्र निखिल कुमार, रामाश्रय प्रसाद सिंह के पुत्र, जीतन राम मांझी के पुत्र संतोष सुमन और लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव राजनीति के मैदान में डटे हैं. इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी है, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए तकदीर और तदवीर दोनों की जरूरत होती है. ऐसे में इस रेस में सबसे आगे लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव ही दिखाई देते हैं. तेजस्वी यादव खुद को बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट भी कर रहे हैं और पिछला विधानसभा चुनाव तेजस्वी यादवके नेतृत्व में लड़ा गया था महागठबंधन नेता भी तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानते हैं ।
किसी भी मुख्यमंत्री का बेटा नहीं बना सीएम
भाजपा नेता और वरिष्ठ विधान पार्षद नवल किशोर यादव का कहना है कि बड़े नेताओं के बेटा-बेटी हो सकते हैं लेकिन नेता नहीं हो सकते क्योंकि राजनीति में वह संघर्ष की बदौलत नहीं पहुंचते. राजनीतिक विश्लेषक डॉ संजय कुमार का मानना है कि कांग्रेस के शासनकाल में मुख्यमंत्री दिल्ली से तय होते थे और जिसका नाम दिल्ली में तय हो जाता था वहीं मुख्यमंत्री बनता था. यहीं कांग्रेस के पतन का कारण भी बना. बाद में समाजवादी नेता सत्ता में आए, कुछ ने तो परिवारवाद के खिलाफ झंडा बुलंद किया लेकिन कुछ नेताओं ने बेटों को जगह दिलाने के लिए संघर्ष किया. पूर्व मुख्यमंत्रियों के पुत्र होने के नाते उन्हें राजनीति में जगह तो मिल गई लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी तक अब तक कोई नहीं पहुंच पाया. शायद उनके अंदर काबिलियत का अभाव था, इस वजह से जनता ने उनके नाम पर मुहर नहीं लगाया.