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बिहार में कसौटी पर खरा नहीं उतरी चिराग की 'हनुमान कथा' - Lalu Prasad Yadav

बिहार की सियासत में सिद्धांत की राजनीति सबसे ऊपर है. वहीं, भरोसे की राजनीति के तहत रामविलास पासवान (Ramvilas Paswan) के सिद्धांत पर चिराग पासवान (Chirag Paswan) ने हनुमान बनने का काम तो जरूर किया, लेकिन बिहार की सैद्धांतिक राजनीति में ये खरी नहीं उतरी है. पढ़ें ये रिपोर्ट..

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Published : Sep 21, 2021, 4:39 PM IST

पटना:राजनीति में सिद्धांत (Principle in Politics) और सैद्धांतिक राजनीति का मजबूत संकल्प ही नेतृत्व को आधार देता है और बिहार (Bihar) ऐसा राज्य है जहां की सियासत राजनीतिक सिद्धांत को सबसे ऊपर रखे हुए है, लेकिन सिद्धांतों में जब राजनीति का साथ न मिले तो सवाल उठने लगते हैं कि राजनीति के लिए कौन सा सिद्धांत सही होगा. बिहार में लोजपा के लिए चिराग के बाद वाली डगर मोदी के साथ की है, लेकिन जब चिराग के साथ लोजपा थी तब लोजपा और चिराग दोनों की डगर मोदी ही थे.

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मोदी का प्रसंग कितना मजबूर था कि चिराग खुद को उनका हनुमान बना लिए, लेकिन हनुमान को जिस सहयोग की जरूरत पड़ी उस में सियासत ने सिद्धांत बदल लिया. अब सवाल यह उठ रहा है कि आज की सियासत में हनुमान वाला सिद्धांत बिहार में भटक क्यों गया.

2014 में रामविलास पासवान (Ramvilas Paswan) नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के साथ आए थे, तो उन्होंने कहा था कि इस गठबंधन के लिए सबसे बड़ा श्रेय चिराग पासवान को जाता है, क्योंकि देश के विकास के लिए जिस राजनीति की जरूरत है वह मोदी के पास है और मोदी के साथ चल कर के देश को नए विकास की जगह पर ले जाया जा सकता है. चिराग ने उसे आत्मसात भी किया, जमुई की गद्दी से उन्हें जीत भी मिली.

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नरेंद्र मोदी के साथ काम करने के दौरान कुछ खट्टे मीठे अनुभव मोदी-1 में जरूर रहे लेकिन जब मोदी-2 की बात आई तो सीटों के नाम पर जिस तरीके से विवाद हुआ और नीतीश को उसमें हस्तक्षेप करके लोकसभा में सीटों का बंटवारा किया गया, उस पर भी चिराग पासवान ने अपना 100 फीसदी मोदी के पक्ष में ही दिया. 2020 के चुनाव के बाद जिस तरीके के राजनीतिक हालात बदले हैं और 2020 में जिन राजनीतिक हालात को चिराग पासवान ने रखा था, उसके पीछे की कड़ी बीजेपी के मोदी को ही माना जाता है.

लेकिन, अब सवाल यह उठ रहा है कि चिराग पासवान वर्तमान समय में जिस राजनीतिक स्थिति में पड़े हैं और जिस राम के भरोसे वह हनुमान बन गए थे, उसकी जो कहानी बन रही है वह आज की सियासत में हनुमान पर सवाल खड़ा कर रहा है कि सिद्धांत की राजनीति और राजनीति में हनुमान कहां तक प्रासंगिक है और इसकी प्रासंगिकता सैद्धांतिक राजनीति पर कितना खरा उतरती है.

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2020 के चुनाव में चिराग पासवान ने नारा दिया था 'तेजस्वी अभी नहीं, नीतीश कभी नहीं'. लेकिन, नीतीश जब फिर से गद्दी पर बैठे और उसके बाद जिस तरह की सियासत नीतीश ने शुरू की उससे तो चिराग पासवान की पूरी राजनीतिक हस्ती ही किनारे आकर खड़ी हो गई है. लड़ने के लिए चिराग पासवान भले दो-दो हाथ कर रहे हैं, लेकिन विश्वास के जिस रंग को लेकर राम का हनुमान बनने का दंभ चिराग ने भर दिया था, वह हर किनारे पर टूटता दिख रहा है.

चिराग ने कह भी दिया कि हनुमान के साथ क्या हो रहा है राम इसे देख लें, लेकिन इस सियासत में फुर्सत किसी के पास नहीं है, क्योंकि सैद्धांतिक राजनीति के आज का जो फार्मूला है, वही सियासत का सिद्धांत बन गया है. ऐसे में सिद्धांत लेकर राजनीति में हनुमान बनने की कवायद बिहार में दूसरी डगर पर चली गई है. नीतीश कुमार उसे बेहतर तरीके से समझ भी रहे हैं और उसे पकड़ कर नई डोर और नई लाइन खींचने की तैयारी में भी हैं. चिराग के लिए जो विश्वास सबसे ज्यादा राजनीति और उसके बाद के लिए भी था वह लगातार टूट रहा है. अब सवाल यह उठ रहा है कि अगर भरोसे की राजनीति की जाए तो भरोसा कहां तक टिक सकता है.

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राम और हनुमान के जिस सैद्धांतिक राजनीति को आज एक बार बिहार फिर से जोड़ने घटाने समझने की कोशिश कर रहा है उसमें एक राजनीति जेपी आंदोलन से भी है. लालू यादव, नीतीश कुमार या फिर रामविलास पासवान सभी जेपी के सिद्धांतों से ही निकल कर आए थे. कांग्रेस की मुखालफत की राजनीति जे पी को आज भी सैद्धांतिक राजनीति में जिंदा रखी है, लेकिन रामविलास पासवान ने जिस तरीके से जे पी को दरवाजे दरवाजे तक पहुंचाया शायद यही वजह है कि रामविलास कोई सिद्धांत नहीं बन पाए.

रामविलास के सिद्धांत पर हनुमान बनने का काम तो जरूर चिराग ने किया, लेकिन उसमें उतना बल नहीं था कि उसे उतनी जगह मिल पाए और जिस जगह की तलाश के लिए रामविलास पासवान ने 2014 में नरेंद्र मोदी से समझौता किया था, उस समझौते की बागडोर भी दूर तक टिक नहीं पाई.

अब यहां से एक सिद्धांत की राजनीति फिर सवाल पूछ रही है कि बिहार में भरोसे की राजनीति का कोई हल निकलना चाहिए कि नहीं निकलना चाहिए. बिहार की जनता ही यह बताए कि इसका क्या परिणाम होना चाहिए, लेकिन बीजेपी जिस फार्मूले को लेकर आगे बढ़ रही है, उससे एक बात तो साफ है कि हनुमान की राजनीति बिहार की सियासत में सफल नहीं हो पाएगी, यह तो लगभग तय है.

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