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बिहार की सियासत में जातीय जमींदारी का खलिहान

बिहार की राजनीति कभी जाति से अलग नहीं हो पाई. कांग्रेस ने जातीय समीकरण का वर्चस्व कायम कर सत्ता की गद्दी हासिल की. नीतीश भी अपने महादलित कार्ड के जरिए सफलता हासिल करने में सफल रहे. वहीं, अब आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर महादलित का बड़ा चेहरा बनने की होड़ लगी है.

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Published : Sep 22, 2020, 7:40 PM IST

Updated : Sep 22, 2020, 9:01 PM IST

पटनाः 2020 की सत्ता के हुक़ूमत की शुरू हो रही जंग को लेकर सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी दावेदारी लेकर मैदान में उतर रहे हैं. किसी के पास विकास के आधार पर खडे हुए जनाधार की थाती है तो किसी के पास उसके समाज की बात और उसकी जाति है. बिहार की राजनीति में ऐसा कभी रहा ही नहीं कि सिर्फ विकास के नाम पर चुनाव लड़ा गया हो और विकास का नारा जीत गया हो.

बिहार में जीत का मुकुट उसी के सिरताज सजा है जिसने जाति की जमींदारी से पकी फसल से राजनीति के मैदान वाले खलिहान को भर दिया है. 2020 की राजनीति में राजद एक पक्ष बन गया है, जबकि एनडीए में चिराग पासवान की पार्टी लोजपा और जीतनराम मांझी की पार्टी हम ने अपनी जंग में ऐसी जमीन तैयार कर ली है जिसका खामियाजा भाजपा और जदयू को चुकाना पड़ रहा है. 2005 में जब नीतीश और भाजपा ने मिलकर बिहार की सरकार बदली तो नीतीश चेहरा थे और भाजपा उनकी हमराही. 2010 में भी यही रहा, नीतीश की पार्टी ने 141 सीटों पर चुनाव लड़ा और 115 सीट जीतकर पूर्ण बहुमत पाया. 2010 में नीतीश के मन के अनुसार भाजपा 102 सीटों पर चुनाव लड़ी. जिसमें 91 सीटों पर जीत मिली. नीतीश और भाजपा के बीच हुए मतभेद के बाद बिहार की बदली राजनीति में नए दल और चेहरे आ गए. जिसके बाद चुनाव से नए समीकरण का रंग बिहार की राजनीति में जगह बनाने लगा.


बिहार की राजनीति कभी जाति से अलग नहीं गयी. यहां जितने दिन कांग्रेस सत्ता में रही उसने हर चुनाव में जातीय समीकरण का वर्चस्व कायम कर सत्ता की गद्दी हासिल की. हालांकि, कांग्रेस के लिए स्थानीय नीतियां ज्यादा मायने नहीं रखती थी क्योंकि राज्य की राजनीति का फरमान भी दिल्ली से ही आता था. श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण के बीच की गोल बंदी और श्रीकृष्ण सिंह के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बीच खड़ा हुआ विवाद इसका एक बड़ा उदाहरण है. मंडल कमीशन के बाद देश की राजनीति का जिस तरह से मन मिजाज बदला उससे बिहार भी अछूता नहीं रहा. बिहार की राजनीति में बदलाव का बड़ा कारण जेपी आंदोलन को माना जाता है, लेकिन सिर्फ जेपी के आंदोलन का फार्मूला बिहार को ऐसी सरकार नहीं दे सका जो मंडल कमीशन के बाद बदले राजनीतिक हालात ने दिए. मंडल कमीशन आया तो लालू यादव इतने मजबूत हुए कि उनकी सियासत और ठेठ राग ने जातीय राजनीति की ऐसी बुनियाद गढी की बिहार में कांग्रेस भी उनके पीछे चलने को मजबूर हो गयी.

लालू यादव के गद्दी पर काबिज होने का फार्मूला सोशल इंजीनियरिंग रहा. जिससे वो पूरे देश में एक ऐसी छवि लेकर उभरे जिसने गरीबों के मुंह में जुबान दी. हालांकि, जातिवाद की राजनीति में लालू यादव की राजनीति फंसी तो नीतीश कुमार अपनी विकास वाली छवि को लेकर बिहार बदलने निकले और 2005 की दूसरी लड़ाई में उन्होंने गद्दी पाने में फतह हासिल कर ली. विकास के नारे की बदौलत जदयू और भाजपा की सरकार गद्दी पर जरूर बैठ गयी लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में लालू यादव और उनके साथ रहे रामविलास पासवान की जातीय गोलबंदी कुछ हद तक भेद पाने में सफल रहे. नीतीश कुमार ने बिहार में दलितों को अलग कर महादलित और पिछड़ी जातियों से अत्यधिक पिछड़ा वर्ग (एमबीसी) तैयार किया था. नीतीश ने पासवान जाति को छोड़कर दलित मानी जाने वाली अन्य 21 उप जातियों के लिए 'महादलित' कैटगरी बना दिया. 'महादलित' कैटगरी बनने से 2009 के चुनाव में रामविलास हाशिए पर चले गए और उनकी पार्टी बिहार की सियासत में अपने जनाधार की जमीन खोजने लगी.

'महादलित' कैटगरी नीतीश का मास्टर स्ट्रोक था. नीतीश कुमार इस बात को बहुत बेहतर तरीके से जानते थे कि भाजपा के साथ रहने पर उन्हें यादव और मुस्लिम वोट नहीं मिलेगा और बिहार की गद्दी पर काबिज रहने के लिए इन दोनों का वोट आवश्यक है. 'महादलित' कैटगरी बनाने के जिस फायदे की उम्मीद नीतीश को थी वह 2010 के विधानसभा चुनाव में फलीभूत हुई. नीतीश के नेतृत्व में जदयू ने 141 सीटों पर चुनाव लड़कर 115 सीटे जीतीं जबकि बीजेपी ने 102 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीटें जीती. 2010 के चुनाव में यह मान लिया गया कि नीतीश कुमार का 'महादलित' कैटगरी कार्ड लालू यादव की जातीय सियासत पर भारी पड़ा और महादलितों का 10 फीसदी और दलितों का 4 फीसदी वोट एनडीए ले गई. हालात यह हुए कि 2010 में राजद को विपक्ष की पार्टी बनने तक की सीट नहीं मिली. 2014 में एनडीए के बीच हुए विवाद के बीच नीतीश ने भाजपा से नाता तोड़ लिया. नीतीश के लालू यादव के साथ होते ही यह समीकरण बैठाया गया कि 'महादलित' कैटगरी कार्ड वाला 14 फीसदी वोट उनके साथ आएगा. हालांकि, 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की लहर में सारे जातीय कार्ड फेल हो गए. लेकिन बिहार में रामविलास पासवान ने बीजेपी से हाथ मिलाकर नालंदा को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर कब्जा जमा लिया. रालोसपा के उपेन्द्र कुशवाहा ने भी उसी वैतरणी में अपनी नाव पार लगा ली.


बिहार की राजनीति मेंं 2014 जातीय राजनीति का एक और अघ्याय लिख गया. लोकसभा चुनाव में नीतीश का 'महादलित' कैटगरी का कार्ड और विकास दोनों को जनता ने नकार दिया. नीतीश ने राजनीति की नैतिकता को आगे रखते हुए अपनी गद्दी पर जीतन राम मांझी को बैठा दिया. नीतीश कुमार ने जिस विकास की छवि को लेकर बिहार में लालू यादव की गद्दी को बदला था, उसी की आड़ लेकर उन्होंने अपनी पार्टी को मजबूत करने का काम शुरू कर दिया. यह अलग बात है कि नीतीश कुमार जातीय राजनीति की जिस नाव पर बैठकर बिहार में अकेले के दम पर सरकार का सपना 2015 के लिए देख रहे थे मांझी ने उसे मंझधार में लाकर अटका दिया और खुद को महादलित का नेता मान नीतीश को चुनौती दे डाली. मांझी और रामविलास पासवान जिस वोट बैंक पर अपनी पकड़ होने का दावा करते थे उसे पकड़ने के लिए उन्हें दूसरे दल की नीतियों के साथ समझौता करके ही रखना था और यही से इनकी जातीय पकड़ की राजनीतिक दावेदारी दम तोड़ने लगी. नीतीश कुमार ने 'महादलित' कैटगरी का कार्ड इसलिए खेला था कि राजद के कोटे में रामविलास के रहने के बाद भी वे वोट का समीकरण बीजेपी के साथ बैठा लें.

नीतीश कुमार जब भाजपा से अलग हुए तो यह सोचकर उन्होंने मांझी को गद्दी दी कि पासवान के भाजपा में जाने के बाद भी 'महादलित' कैटगरी का मास्टर स्ट्रोक वाला उनका कार्ड चल जाय. 2014 में राजनीति इसी जातीय गोलबंदी वाली सियासत के घेरे में रही, लेकिन 2015 में मांझी के बगावत के बाद नीतीश कुमार को अपने इस कार्ड को लेकर डर हुआ और उन्होंने ने मांझी को गद्दी से उतार दिया. इसके बाद मांझी ने खुद को महादलितों का नेता बताते हुए अपनी पार्टी हम को खड़ा कर दिया. 2015 के विधान सभा चुनाव में नीतीश लालू साथ चले गए. चुनाव में भाजपा के पास लालू के पासवान वाली राजनीति और नीतीश के 'महादलित' कैटगरी के मास्टर स्ट्रोक वाली राजनीति थी. भाजपा को यह लगने लगा कि बिहार में विकास की राजनीति की तरह जाति वाली राजनीति चल जाएगी, लिहाजा बीजेपी ने हम और लोजपा को साथ रखते हुए उनकी मांग के अनुसार उन्हें सीटें दे दी.

2015 में जाति की राजनीति वाला जाल भी खूब बुना गया, लेकिन जिस परिणाम की उम्मीद हम और लोजपा से भाजपा को थी वह जमीनी हकीकत नहीं ले पायी. नीतीश कुमार अपने 'महादलित' कैटगरी के मास्टर स्ट्रोक और लालू की जमीनी राजनीति ने महागठबंधन की सरकार को गद्दी पर बैठा दिया. हालांकि, बदले राजनीतिक हालात के कारण लालू और नीतीश बहुत दूर तक साथ नहीं रह सके और दोनो का रास्ता अलग हो गया. महागठबंधन की राजनीति में मांझी फिट नहीं हुए तो उन्होंने नीतीश की पार्टी की तरफ राह बना ली. रामविलास पासवान अपनी विरासत बेटे चिराग पासवान को दे चुके हैं. ऐसे में अब महादलित का बड़ा चेहरा कौन इस बात की जंग मांझी और चिराग के बीच शुरू हो गई है. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले मांझी एनडीए में शामिल हो गए और लोजपा एनडीए का हिस्सा है. मांझी की मांग को सुना गया लेकिन लोजपा की बात को तरजीह नहीं मिल रही है. ऐसे में भाजपा और नीतीश के बीच जाति की जंग है. नीतीश अपने 'महादलित' कैटगरी के मास्टर स्ट्रोक का दम दिखना चाहते हैं और बीजेपी चिराग के सहारे इसी वोट बैंक को बचाने के फिराक में है.

लोजपा और हम की लड़ाई का राजनीतिक निहतार्थ जदयू और भाजपा की बिहार की जमीनी जातीय सियासत से जुड़ी है. इसमें जाति को लेकर जिस फसल को नीतीश ने बोया है वह राजनीति मैदान में दिख तो रही है लेकिन जबतक पूरे भरे दाने के साथ जीत के खलिहान मेंं न पहुंचे तब तक उसका सही फायदा नहीं होगा. यही हाल बीजेपी का भी है. अप्रैल 2014 से लोजपा बीजेपी के साथ है और रामविलास केन्द्र में मंत्री, उद्देश्य यही है कि इस वोट बैंक को बीजेपी से जोड़े रखा जाय. बिहार में मांझी और लोजपा की टकराव को जितनी जल्द हो उसे नीतीश और भाजपा को पाटना होगा क्योंकि राजनीति के इस लडाई मेंं भले दिखने वाले किरदार के रूप में हम और लोजपा हो, लेकिन घाटा जदयू और भाजपा को होगा यह सभी हो पता है.

Last Updated : Sep 22, 2020, 9:01 PM IST

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