पटना:नीतीश कुमार के चेहरे के बल पर बिहार में बीजेपी लालू प्रसाद यादव (RJD President Lalu Yadav) को सत्ता से बाहर करने में कामयाब तो हो गई लेकिन अपने लिए आज तक नीतीश कुमार का विकल्प (Bihar Government Without Nitish Kumar Is A Challenge For BJP) तैयार नहीं कर पाई है. 2005 में जदयू को कम सीट मिलने के बाद भी बीजेपी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही बनाया था. 2020 में भी नीतीश कुमार कम सीट लाने के बाद भी मुख्यमंत्री बने हुए हैं. एक तरह से 17 साल में भी बीजेपी (challenge for BJP) अपने लिए मुख्यमंत्री का चेहरा ढूंढ नहीं पाई है.
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आरजेडी प्रवक्ता का बयान:नीतीश आज भी बीजेपी की जरूरत बने हुए हैं. आरजेडी प्रवक्ता शक्ति यादव (RJD spokesperson Shakti Yadav) का भी कहना है कि नीतीश मजबूरी हैं इसलिए बड़े दल होने के बाद भी बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री बनाए हुए है. असल में बीजेपी का आईडियोलॉजी ही है प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन करना और इसलिए नीतीश कुमार को चाह कर भी बीजेपी छोड़ नहीं पा रही है.
"बीजेपी सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है. प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बस सत्ता में रहना है.बड़े दल होने के बाद भी घुटने टेके हुए है. बिहार में नीतीश कुमार के साथ चलना बीजेपी की मजबूरी है. यही मजबूरी उन्हें जीने भी नहीं दे रहा और नाही निकलने ही दे रहा है."- शक्ति यादव, आरजेडी प्रवक्ता
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बोले बीजेपी प्रवक्ता-मजबूरी नहीं संयोग: वहीं बीजेपी प्रवक्ता विनोद शर्मा (BJP spokesperson Vinod Sharma) का कहना है कि, यह मजबूरी नहीं संयोग है. बिहार के विकास के लिए नीतीश कुमार को आगे रखकर काम करना पड़ रहा है. बीजेपी हमेशा से बड़ा दिल दिखाती रही है. शुरू में भी बड़ा दल होने के बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाई थी और अभी भी एनडीए में सबसे बड़ा दल होने के बाद भी नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाई है.
"नीतीश जी को हमने बिहार के विकास के लिए समर्थन दिया था. निश्चित रूप से उनके नेतृत्व में बिहार का विकास हो रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने दिल बड़ा करके पहली बार भी नीतीश जी को मुख्यमंत्री बनया था. हम बिहार के विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं. मजबूरी नहीं ये संयोग है. हम चुनाव मिल जुलकर लड़े थे इसलिए ये आम सहमति है मजबूरी नहीं."-विनोद शर्मा, बीजेपी प्रवक्ता
'जिधर नीतीश कुमार उधर सरकार':जदयू तो पहले से ही कहती रही है कि जिधर नीतीश कुमार उधर सरकार. 2015 में नीतीश कुमार महागठबंधन के साथ थे जिसमें आरजेडी और कांग्रेस शामिल थी. सरकार महागठबंधन की बनी लेकिन नीतीश कुमार जब महागठबंधन से निकले तो फिर से सरकार एनडीए की बन गई और इसलिए अभी भी जदयू के प्रवक्ता निखिल मंडल का कहना है कि नीतीश जिधर जाएंगे सरकार उधर ही बनेगी.
"नीतीश कुमार की सोच रही है कि राजनीति को विकास के मॉडल पर स्थापित किया जाए. विकास के कारण ही वे सीएम के पद पर हैं. हम तो हमेशा से कहते आए हैं कि जिधर जिधर नीतीश कुमार उधर उधर बिहार में सरकार. यह सच्चाई है कि नीतीश जी एक ऐसा चेहरा हैं जिसके साथ हर दल हर गठबंधन काम करना चाहता है. चाहे गठबंधन का स्वरुप कुछ भी हो लेकिन मकसद एक ही रहता है विकास. इसलिए लोग उन्हें विकास पुरुष भी कहते हैं."-निखिल मंडल, जदयू प्रवक्ता
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सत्ता से बाहर होने का डर: पिछले 17 सालों में बीजेपी ने कई चेहरे को आगे लाने की कोशिश की, लेकिन सारा प्रयोग अब तक नीतीश कुमार के आगे दम तोड़ देता है. बिहार का जातीय और सामाजिक समीकरण भी ऐसा है कि बीजेपी नीतीश कुमार को छोड़ने का साहस नहीं दिखा पाती है. क्योंकि जब नीतीश बीजेपी को छोड़ आरजेडी के साथ हुए थे तो बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई थी. यही कारण है कि नीतीश कुमार ने अबतक बीजेपी को कई शर्तों को मानने के लिए मजबूर भी कर चुके हैं.
बीजेपी के लिए नीतीश कुमार जरूरी: हालांकि, नीतीश कुमार दबाव की सियासत करने में माहिर माने जाते हैं. इसलिए दबाव के साथ अपना पाला भी बदल लेते हैं. पिछली बार यानी 2015 के चुनाव के दौरान नीतीश कुमार भाजपा का साथ छोड़कर महागठबंधन का हिस्सा थे. चुनाव में विजय मिलने के बाद उनकी पार्टी की स्थिति दो नंबर की थी, लेकिन राजद उनकी वरिष्ठता को देखते हुए और भाजपा को सरकार बनाने से रोकने के लिए बलिदान समझकर उन्हें कुर्सी पर बैठा दिया. लेकिन पहले से ही यह अनुमान लगाया जा रहा था कि यह बेमेल गठबंधन है, ज्यादा दिनों तक चलेगा नहीं और जदयू और राजद के गठबंधन को तोड़ने के लिए भाजपा की तरफ से लगातार प्रयास किए गए.
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अंततः भाजपा अपने मिशन में कामयाब हो गई. लेकिन जदयू की तरफ से सार्वजनिक तौर पर यह कहा गया कि सरकार चलाने में नीतीश कुमार को दिक्कतें आ रही थीं. उनके ऊपर बहुत अधिक दबाव होता था. वो खुलकर काम नहीं कर पा रहे थे. इसलिए राजद का साथ छोड़ना जरूरी हो गया था.
लालू यादव से बीजेपी के थे अच्छे संबंध:वहीं आज की राजनीति में हर जगह लालू यादव को बीजेपी के मुखर विरोधी के रूप में जाना जाता है लेकिन सियासत में सबकुछ हमेशा एक जैसा नहीं रहता. आज जो दल या नेता दोस्त हैं वो कभी विरोधी खेमे में दिख सकते हैं तो आज के दुश्मन कभी सियासी दोस्त. ऐसी ही सियासी दोस्ती और दुश्मनी का नजारा कभी बिहार ने भी देखा था. जब लालू यादव को सीएम की कुर्सी बीजेपी के समर्थन से मिली थी.
बात है साल 1990 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव की. इमरजेंसी के विरोध में जब देश में मंडल आंदोलन की लहर थी और दूसरी ओर बीजेपी कमंडल की राजनीति को धार देने में जुटी थी. लेकिन कांग्रेस विरोध के मामले पर दोनों एकजुट थे. केंद्र में वीपी सिंह की अगुवाई में जनता दल की सरकार चल रही थी और बीजेपी का समर्थन उसे हासिल था. इसी बीच बिहार में विधानसभा का चुनाव हुआ. तब झारखंड का हिस्सा भी बिहार राज्य में ही था. 324 सदस्यीय विधानसभा में सत्तारूढ़ कांग्रेस को सिर्फ 71 सीटें सीटें मिलीं. बहुमत के लिए कम से कम 163 विधायकों के समर्थन की जरूरत थी. जनता दल को 122 सीटें मिलीं, लेकिन बहुमत के लिए उसे और सीटों की जरूरत थी.
लालू ने कांग्रेस को दिया था झटका: बीजेपी के 39 विधायक जीतकर पहुंचे थे. केंद्र की वीपी सिंह सरकार की तर्ज पर बीजेपी ने बिहार में भी जनता दल सरकार को समर्थन दिया. जनता दल में चली रस्साकस्सी के बीच पार्टी के अंदर हुई वोटिंग में पूर्व मुख्यमंत्री राम सुंदर दास को हराकर लालू यादव नेता चुने गए. 10 मार्च 1990 को लालू पहली बार बिहार के सीएम की कुर्सी पर बैठे. इसी के साथ लालू ने बिहार में कांग्रेस पार्टी के शासन का खात्मा कर दिया.
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बीजेपी से लालू की तल्खी: हालांकि, लालू के साथ बीजेपी का ये साथ लंबा नहीं चल सका. जल्द ही कांग्रेस विरोध की ये दोस्ती मंडल बनाम कमंडल की राजनीति का शिकार हो गई. सोमनाथ से अयोध्या के लिए निकले लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को लालू ने 23 सितंबर 1990 को समस्तीपुर में रुकवा दिया और आडवाणी को गिरफ्तार करा दिया. लालू के इस कदम के बाद बीजेपी ने केंद्र की वीपी सिंह सरकार और बिहार के लालू यादव की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया.
बीजेपी के इस कदम से केंद्र की वीपी सिंह की सरकार तो गिर गई, लेकिन बिहार में लालू प्रसाद यादव अपना किला बचाने के लिए बड़ा दांव खेल गए.उन दिनों प्रदेश बीजेपी के बड़े नेता हुआ करते थे, इंदर सिंह नामधारी. नामधारी लालू के समर्थन में आ गए और बीजेपी में टूट हो गई. नामधारी का गुट लालू यादव के समर्थन में आया और इस तरह लालू ने अपनी कुर्सी बचा ली.लालू ने पिछड़े और मुस्लिम वोटों को मिलाकर एमवाई समीकरण का व्यूह रचा और उसी के बल पर बिहार में 15 साल तक राज किया.
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