पटनाः बिहार में जातीय गणना के बाद सरकार ने मंगलवार 7 नवंबर को सामाजिक और आर्थिक रिपोर्ट बिहार विधानसभा में पेश कर दिया. बिहार पहला राज्य बन गया जहां, सफलतापूर्वक जाति आधारित और आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट विधानसभा के पटल पर रखी गई. पहले दो-तीन राज्यों में जाति आधारित गणना करने की कोशिश की गई थी लेकिन अंत तक रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई. बिहार राजनीतिक विशेषज्ञ और वरीष्ठ पत्रकार इस रिपोर्ट को ऐतिहासिक सफलता मान रहे हैं.
क्या होगा पॉलिटिकल असर? ईटीवी भारत ने बिहार के दिग्गज पत्रकार और पॉलिटिकल पंडित से खास बातचीत की. वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार पांडे और वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी ने बिहार के सामाजिक आर्थिक दृष्टिकोण से इसे एक सफल रिपोर्ट माना है. कन्हैया भेलारी ने कहा कि यह पॉलिटिकल रूप से भी एक बड़ा दांव हो सकता है, जिसके सामने दूसरे विपक्षी दल धराशाई हो सकते हैं.
1931 के बाद पूर्ण रुप से जाति आधारित गणना:अरुण कुमार पांडे बताते हैं कि सीएम ने जाति आधारित गणना और आर्थिक सर्वेक्षण सार्वजनिक कर दूसरे राज्यों और केंद्र सरकार को बड़ी चुनौती दी है. अलग-अलग राज्यों में भी इसकी मांग उठने लगी है. जिस तरह से यह रिपोर्ट पेश की गई है, इससे जो वर्ग-जाति पीछे गई है, उसके लिए योजना बनाई जा सकती है. इस पूरे सर्वेक्षण का एक बड़ा आधार यह भी था कि 1931 के बाद पूर्ण रूप से कोई भी जाति आधारित गणना नहीं हुई थी.
2011 में भी हुई थी गणनाः अरुण बताते हैं कि 2011 में जाति आधारित गणना कराई गई थी, लेकिन उसमें कई त्रुटियां थी. जिसकी वजह से उसे रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया. हालांकि विपक्ष की तरफ से यह जरूर कहा जा रहा है कि इस जाति आधारित गणना की रिपोर्ट में कई गलतियां हैं. यदि उन सभी को दरकिनार भी कर दिया जाए तो भी यह एक ऐतिहासिक काम है.
'विपक्षियों के सामने बड़ा मसला':वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी बताते हैं कि इस रिपोर्ट को पूरी तरह से राजनीतिक दांव कहा जा सकता है, लेकिन, इसमें फायदा बिहार के लोगों का है. हालांकि सीएम नीतीश कुमार ने बड़ा मसला खड़ा कर दिया है. अब हर राजनीतिक पार्टी अपने आप को सरकार में लाने से पहले अपने घोषणा पत्र में यह कह रही है कि वह जाति आधारित करना कराएगी. अगर ऐसा होता है तो इसका श्रेय नीतीश कुमार को ही मिलेगा.
'बिहार में श्रेय लेने की होड़':रिपोर्ट के पेश होने के बाद क्या जातीय संघर्ष बिहार में बढ़ेगा? इसका जवाब देते हुए अरुण कहते हैं कि यह रिपोर्ट पेश होने के बाद श्रेय लेने की कोशिश शुरू हो गई है. पहले भाजपा समर्थन भी कर रही थी और अपर कास्ट के वोट के मुताबिक थोड़ी झिझक भी रही थी, लेकिन अब सारी पार्टियां श्रेय लेने की होड़ में जुट गई है. इस रिपोर्ट को पेश करने के बाद नीतीश कुमार इतिहास पुरुष बन गए हैं. लेकिन, यह रिपोर्ट पूरी तरह से दो धारी तलवार है.
'BJP को लग रहा डर': अरुण बताते हैं कि पिछले 30 वर्षों की राजनीति में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के हाथ में बिहार रहा है. लालू यादव और नीतीश कुमार पिछड़ों की राजनीति करते हैं. जब नीतीश कुमार लालू यादव के विरोध में गए थे तो, इसका मतलब यह था कि उन्होंने मुस्लिम और यादव का विरोध किया. अब नीतीश लालू के साथ हैं तो बीजेपी को डर लग रहा है कहीं 2015 की स्थिति न हो जाए.
'जितनी आबादी उतनी हिस्सेदारी': यदि एक बार फिर से जातीय गोलबंदी हुई तो ऐसे में जो धर्म के आधार पर भाजपा राजनीति करती है, उसमें फिसल साबित हो जाएगी. क्योंकि जो रिपोर्ट आई है उसमें आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक जो स्थिति दिखाई दिखाई गई है, उसमें सभी जाति वर्गों को समान रूप से अधिकार चाहिए. अभी सबसे ज्यादा पॉपुलर नारा है, जिसकी जितनी आबादी उतनी उसकी हिस्सेदारी. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल हिस्सेदारी की है तो अभी सबसे बड़ा खेल पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों का होगा.
'हिंदू कार्ड खेल रही भाजपा':अरुण पांडे बताते हैं कि पिछले दिनों मुजफ्फरपुर में अमित शाह आए तो उन्होंने दो-तीन महत्वपूर्ण बात कही. इसमें उन्होंने यह कह दिया कि जो जाति आधारित गणना की रिपोर्ट आई है, उसमें मुस्लिम और यादव को बढ़ाकर दिखाया गया है. उन्होंने तुष्टिकरण का आरोप लगाया तो यह स्वाभाविक सी बात है कि भाजपा हिंदू कार्ड खेल रही है. उन्होंने इशारों में स्पष्ट कहा कि जिसकी जितनी आबादी है, उसको उतनी हिस्सेदारी दो. 36 फ़ीसदी अति पिछड़ा है तो उसके तरफ से कोई मुख्यमंत्री बनना चाहिए.