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छठ में सूप से लेकर दउरा का होता है खास महत्व, बदहाल है इसे बनाने वाले बांस कारीगरों का जीवन

छठ को आस्था का महापर्व कहा जाता है. महापर्व पर बांस से बने सामानों का विशेष महत्व है. पूजा में इस्तेमाल किए जाने वाले सामानों में सूप, डाला, डगड़ा और दउरा का खास महत्व होता है. इन सब चीजों के बिना छठ पर्व अधूरा माना जाता है.

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Published : Nov 18, 2020, 8:42 AM IST

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सूप, दउरा से पटा बाजार

नवादा: लोक आस्था का पर्व छठ की तैयारी जोरों पर है. छठ को आस्था का महापर्व कहा जाता है. यही वजह है कि कोरोना काल होने के बावजूद लोगों में उत्साह चरम पर है. लोग छठ के लिए उपयोग में आने वाले बांस के बने सामान, सूप, दउरा, डाला आदि की खरीददारी कर रहे हैं. क्योंकि छठ में बांस के बने सामानों का एक अलग ही महत्व है

बदहाल है बांस कारीगरों का जीवन

छठ महापर्व आते ही बांस की कमाची को विभिन्न आकार प्रदान करने वाले लोगों को आज भी सामाजिक वजूद नहीं मिल पाया है. भले ही धार्मिक उत्सवों, पर्व-त्योहार, शादी-विवाह के मौके पर इनकी ओर से निर्मित वस्तु पवित्र मानी जाए, लेकिन इसे बनाने वाले समुदाय को पहचान नहीं मिल पाई है.

काम में जुटी महिला.

नहीं जाती किसी की नजर
दरअसल, हम बात कर रहे हैं जिले गोविन्दपुर प्रखंड के एकतारा गांव के महादलित बस्ती के लोगों के बारे में जिनके बनाएं बांस के दउरा, डाला, सूप से लोग अपनी मन्नते पूरी तो कर लेते हैं, लेकिन इनकी दिन पर दिन माली हालत खराब होती जा रही है. इनकी हालत पर किसी की नज़र नहीं जाती.

'हमारा पुश्तैनी धंधा है'
छठ को आस्था का महापर्व कहा जाता है. इस महापर्व पर बांस से बने सामानों का विशेष महत्व है. पूजा में इस्तेमाल किए जाने वाले सामानों में सूप, डाला, डगड़ा और दउरा का खास महत्व होता है. सबसे खास बात यह है कि भगवान भास्कर को जिस सूप में प्रसाद अर्पित किया जाता है उसे समाज के सबसे अत्‍यंत पिछड़ी जाति के लोग बनाते हैं. ऐसे में जिले के गोविन्दपुर प्रखंड के एकतारा गांव में जब सूप और दौरा बनाने वाले लोगों के हालात का जायजा ईटीवी भारत की टीम ने लिया तो इस काम में लगे लोगों ने बताया कि यह हमारा पुश्तैनी धंधा है. इस काम के अलावे हमें कोई अन्य काम नहीं आता है. इसी काम के सहारे हमारे साल भर के रोजी-रोटी का जुगाड़ होता है.

कोनिया बनाते कारीगर.

सामाजिक रूप से हैं काफी पीछे

बांस की कमाची से सूप, डाला और टोकरी बनाने वाले समुदाय के लोग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से काफी पीछे हैं. वे लोग रात-दिन एक कर काम करते हैं. जिनमें पुरुष और महिलाओं के साथ-साथ बच्चे भी शामिल हैं. ऐसे में अपनी आजीविका चलाने के लिए यह लोग सालों भर काम करते हैं.

'नहीं मिल पाता सरकारी लाभ'
सूप बनाने वाले कारीगर बताते हैं कि सरकार की ओर किसी भी तरह की कोई मदद नहीं की जा रही है. छठ पर्व पर उनके हाथों से बने सूप और डाले की काफी मांग होती है. इसके बावजूद उनको मेहनत का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है.

देखें रिपोर्ट.

उन्होंने बताया कि इस बार पिछले साल की तुलना में बांस की कीमत ढाई गुना बढ़ गई है पर उस हिसाब से सूप की कीमत में इजाफा नहीं हो पाया है. अब इससे परिवार चलाना मुश्किल हो रहा है लेकिन क्या करें पुश्तैनी धंधा है और लोगों का इसके प्रति आस्था को देखते हुए इस धंधे से मूंह मोड़ना भी अच्छा नहीं लगता है. ऐसे में जीवन गुजारा करना मुस्किल है.

बांस की महंगाई की पड़ी मार
दिन रात मेहनत करने के बावजूद बाजार में दुकानदारों की ओर से इन्हें अच्छी कीमत नहीं मिल रही है. सूप-डाला बनाने वाले कारीगरों का कहना है कि बांस की महंगाई की वजह से सामान महंगा होता जा रहा है. कारीगर दिनरात मेहनत कर सूप, डाला, दउरा बनाते हैं लेकिन बाजार में उनके मेहनत के अनुकूल दाम नहीं मिल पाता है. खुद बेचने जाते हैं तो दो से तीन बांस के सामान बेचने में सारा दिन लग जाता है. मजबूरन उन्हें औने-पौने दामों में बेचना पड़ता है.

दउरा बनाती महिला.

सरकार को इन कारीगर के लिए कुछ करना चाहिए ताकी इनकी पुस्तैनी धंधा बरकार रहे और इनके परिवार का गुजारा सही तरीके से हो सके. इसके लिए सरकार को कोई ठोस कदम उठाए ताकि इनकी भी छठ अच्छे से मन सकें.

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