मधेपुरा: साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है. लेकिन आज साहित्य के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. यही कारण है कि बच्चों में पुस्तकें पढ़ने की आदत खत्म सी होती जा रही है. इसका मुख्य कारण है मोबाइल और सोशल मीडिया. वहीं साहित्य की हो रही उपेक्षा से साहित्य जगत के लोग चिंतित नजर आ रहे हैं.
आज हम और हमारा देश विकास के रास्ते पर तेजी से चल पड़ा है. हम चांद और मंगल पर बसने की तैयारी में हैं. लेकिन जो हमारी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर साहित्य थी, जिसे कभी समाज का दर्पण कहा जाता था. आज वह दर्पण उपेक्षा का शिकार हो रहा है. अब हालत ऐसी हो गई है कि साहित्य और उपन्यास की पुस्तकें कोई खरीदने वाला नहीं है. जिसके कारण दुकानदार सिर्फ क्लास में चलने वाली पुस्तकें ही रखते हैं.
क्या है कारण
यही कारण है कि साहित्य से जुड़ी पुस्तकें अब समाज के गिने-चुने साहित्य प्रेमी के घर में ही देखने को मिलती है. मधेपुरा के साहित्यकार डॉ.शांति यादव का मानना है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और मोबाइल ने संपूर्ण समाज को अपने गिरफ्त में ले रखा है. इसलिए लोग हर तरह की जानकारी आसानी से व्हाट्सएप से प्राप्त कर लेता है. इससे सुविधा तो बढ़ी है. लेकिन पुस्तकें पढ़ने और पढ़ाने की आदत बच्चों और बुजुर्गों में भी समाप्त हो गया है. विकसित भारत के साथ साथ कदम में कदम मिलाकर चलना जरूरी है.
सामाजिक संस्कार खत्म होने के कगार पर
इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी सभ्यता,संस्कृति और साहित्य को खत्म कर दें. साहित्य हो या अन्य कोई भी विषय. अगर इसमें महारथ हासिल कर समाज को सार्थक दिशा की ओर ले जाना हो तो पुस्तकों की गहन अध्ययन जरूरी है. यही वजह है कि साहित्य की उत्थान के लिए समाज के प्रबुद्ध लोगों को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. ताकि हमारी सभ्यता ,संस्कृति और साहित्य जैसी धरोहर बच सके. अगर साहित्य की उपेक्षा इसी तरह होती रही तो हमारे देश से सामाजिक संस्कार ही खत्म हो जाएगा. अब जरूरत है इसे बचाने की.