बक्सरः हिंदुस्तान में शहनाई को पहचान दिलाने वाले भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पहचान मिटती जा रही है. यादों में सिमटती वो शहनाई की गूंज आधुनिकता की चकाचौंध में खो गई है. लेकिन आज भी जब जिक्र शहनाई का होता है तो दिल व दिमाग में सिर्फ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का ही चेहरा घूमता है. उनकी 106 वीं जयंती (Bismillah Khan Birth Anniversary Celebrate In Dumraon) जिला प्रशासन द्वारा उनके पैतृक शहर डुमरांव में इस बार धूम-धाम से मनाई जा रही है. आज 21 मार्च 2022 को संगीत के इस विरले फनकार की जयंती के मौके पर हम आपको बताएंगे कुछ खास बातें...
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आज ही के दिन जन्मे थे उस्तादःउस्ताद का जन्म 21 मार्च, 1916 को बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव गांव के मुस्लिम परिवार में हुआ था. पिछली पांच पीढ़ियों से इनका परिवार शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा. उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे और उनके पिता बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई बजाया करते थे. आपको जानकर हैरानी होगी, बिस्मिल्लाह महज 6 साल के थे जब वे अपने पिता पैंगंबर ख़ां के साथ बनारस आ गए. बनारस में बिस्मिल्लाह खां को उनके चाचा अली बक्श ‘विलायती’ ने संगीत की शिक्षा दी. वे बनारस के पवित्र विश्वनाथ मंदिर में अधिकृत शहनाई वादक थे.
14 साल में इलाहाबाद संगीत परिषद में बजाई थी शहनाईः जब उस्ताद 14 वर्ष के थे तब उन्होंने पहली बार इलाहाबाद के संगीत परिषद में शहनाई बजाने का कार्यक्रम किया था. इस कार्यक्रम के बाद उन्हें यह आत्मविश्वास हुआ की वे शहनाई के साथ संगीत के क्षेत्र में आगे बढ़ सकते है. फिर उन्होंने ‘बजरी’, ‘झूला’, ‘चैती’ जैसी प्रतिष्ठित लोक धुनों में शहनाई वादन किया और अपने कार्य की एक अलग पहचान बनाई. 15 अगस्त 1947 को जब देश आज़ादी का जश्न मना रहा था, लाल किले पर भारत का तिरंगा फहरा रहा था. तब बिस्मिल्लाह खां की शहनाई ने उस वातावरण को और भी मधुर कर दिया था.
अंतरराष्ट्रीय कला मंचों पर गूंजने लगी शहनाईःउस्ताद बिस्मिल्लाह खान भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह हस्ती हैं, जो बनारस के लोक सुर को शास्त्रीय संगीत के साथ घोलकर अपनी शहनाई की स्वर लहरियों के साथ गंगा की सीढ़ियों, मंदिर के नौबतखानों से गुंजाते हुए न सिर्फ आजाद भारत के पहले राष्ट्रीय महोत्सव में राजधानी दिल्ली तक लेकर आए. उनकी शहनाई सरहदों को लांघकर दुनिया भर में अमर हो गई. इस तरह मंदिरों, विवाह समारोहों और जनाजों में बजने वाली शहनाई अंतरराष्ट्रीय कला मंचों पर गूंजने लगी. वह अपने फन के इस कदर माहिर थे कि उन्हें साल 2001 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया. वर्ष 1956 में बिस्मिल्लाह खां को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वर्ष 1961 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. वर्ष 1968 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. वर्ष 1980 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. वहीं, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उन्हें तानसेन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था.
अपनी कमाई गरीबों को करते थे दानःउनको जानने वाले लोगों ने बताया कि शहनाई बजाने के बाद उन्हें जो भी राशि मिलती थी, वे उस राशि को गरीबों में दान कर देते थे या फिर अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने में लगा देते थे. वे हमेशा दूसरों के बारे में सोचते थे. खुद के बारे में सोचने के लिए उनके पास समय नहीं होता था. लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचने के बाद भी उनके अंदर जो सादगी थी, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है. ऐसा कहा जाता है कि जब बिस्मिल्लाह खां साहब के जन्म की खबर उनके दादा जी ने सुनी तो अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हुए 'बिस्मिल्लाह' कहा और तब से उनका नाम बिस्मिल्लाह पड़ गया. लेकिन बिस्मिल्लाह खां का बचपन का नाम कमरूद्दीन खान बताया जाता है.