देहरादून: उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में तकरीबन 3 हजार मीटर के ऊपर पाए जाने वाले वाली थुनैर-रांसुली वनस्पति आज विलुप्त के कगार पर हैं. आज भले ही इस वनस्पति का मेडिकल साइंस में बड़ी भूमिका देखने को मिल रही हैं लेकिन देवभूमि के परंपरा और देवा संस्कृत में इसका पौराणिक महत्व आदिकाल से है. मां शक्ति के सिद्ध पीठ में कभी इसकी पत्तियां चढ़ती थी, मगर आज ये हिमालयी औषधीय विलुप्ति की कगार पर है.
चमत्कारिक औषधि है थुनेर-रासुंली:रामायण में भगवान लक्ष्मण जब मेघनाथ के बाढ़ से लक्ष्मण मूर्छित हुए थे तो भगवान राम के आदेश पर हनुमान ने हिमालय से संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण के प्राण बचाए थे. संजीवनी बूटी हिमालय से आई थी. उत्तराखंड के हिमालयी भाग में संजीवनी बूटी के पौराणिक प्रमाण मिलते हैं. हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड राज्य में मौजूद असीमित जैव विविधता में कई ऐसी रहस्यमय और चमत्कारी औषधियां मौजूद हैं जो समय के साथ-साथ लगातार प्रमाणित हो रहे हैं. थुनेर-रांसुली ऐसी ही एक चमत्कारिक औषधि है. यह उत्तराखंड के उच्च हिमालय क्षेत्र में तकरीबन 3 हजार मीटर के ऊपर वाले इलाकों में पाई जाती है.
थुनैर, रांसुली और देवदार तकरीबन एक जैसे मिलते जुलते वृक्ष हैं. जिनमें बेहद बारीकी से ही देखने पर फर्क को समझा जा सकता है. थुनैर और रांसुली की पत्तियों का आकार और रंग बिल्कुल एक जैसा होता है. फर्क सिर्फ इतना होता है कि रांसुली की खुशबू काफी दूर से उसके होने का एहसास करा देती है. उसकी टहनियां हल्के लाल रंग की होती हैं. इसी के जैसे देखने वाली दूसरी वनस्पति थुनैर की टहनियां थोड़ा सफेदिया रंग की होती हैं.
उत्तराखंड में पौराणिक काल से मान्यता:औषधीय गुणों वाली वनस्पति थुनैर-रांसुली का भले ही आज मेडिकल साइंस लोहा मान रहा है, लेकिन इसकी विशेषता और मान्यता उत्तराखंड की लोक परंपराओं में पौराणिक काल से चली आ रही है. यहां की देव संस्कृति में इन वनस्पतियों का महत्व आदिकाल से मौजूद है. मां शक्ति के 52 सिद्ध पीठों में से एक टिहरी गढ़वाल, धनोल्टी के पास मौजूद मां सुरकंडा देवी मंदिर में इस औषधीय वनस्पति रांसुली को प्रसाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. माता सुकांडा देवी के पुरोहित गांव के प्रधान पूरन सिंह दंदेला बताते हैं मां शक्ति के 52 सिद्ध पीठ में से एक मां सुरकंडा देवी इस पूरे क्षेत्र की कुलदेवी है. इस मंदिर के चारों तरफ इन वनस्पतिय वृक्षों की भरमार हुआ करती थी. पुराने लोग बताते हैं कि गांव के लोग बेहद पुराने समय से इन औषधीय वनस्पतियों के गुणों के बारे में जानते थे. आज भी मां सुरकंडा देवी में प्रसाद के रूप में रांसुली के पत्तियों को ही दिया जाता है. कहा जाता है कि रांसुली की पत्तियां अगर घर ला कर अपने पूजा स्थल रखें तो यह काफी लंबे समय तक सूखती नहीं हैं.
1960 में वृक्ष का खाल से निकला एंटी-कैंसर कम्पाउंड:हिमालय की तलहटी में पाए जाने वाली इन औषधि वनस्पतियों को लेकर के लगातार मेडिकल साइंस रिसर्च कर रहा है. उत्तराखंड में पाए जाने वाले इसी 'थुनैर-रांसुली' से कैंसर के इलाज की दवा बनाई जाती है. 'थुनैर-रांसुली' अपने साइंटिफिक नेम taxus baccata के नाम से मेडिकल साइंस में जाना जाता है. उत्तराखंड उद्यान विभाग में थुनेर-रांसुली पर शोध कर रहे सहायक विकास अधिकारी दीपक प्रकाश ने बताया थुनैर का साइंटिफिक नेम टेक्सास बकाटा है. यह हाई एल्टिट्यूड में पाया जाना वाला एक वृक्ष है. उन्होंने बताया 1960 के दशक में इस वृक्ष की खाल से पहली बार एंटी-कैंसर कम्पाउंड निकाला गया. जिसे टेक्सोल कहते हैं. इस वनस्पति से स्तन कैंसर, डिम्बग्रंथि कैंसर सहित अन्य कई तरह के कैंसर की बीमारी के लिए दवा बनाने में इस्तेमाल किया जाता रहा है.