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प्रयागराज महाकुंभ; श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन निर्वाण से जुड़ने के लिए देनी होती है कठिन परीक्षा, पढ़िए इतिहास और परंपरा

Panchayat Akhara Bada Udasin : गुरु जिसे चुने वहीं बन पाता है शिष्य. 5 से लेकर 24 साल तक करनी होती है गुरु की सेवा.

पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन.
पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन. (Photo Credit : ETV Bharat)

By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Dec 3, 2024, 9:04 AM IST

प्रयागराज :सनातन संस्कृति की रक्षा करने से लेकर उसके प्रचार-प्रसार तक में अखाड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. सनातन धर्म से जुड़े सभी प्रकार के बड़े धार्मिक आयोजनों में अखाड़ों ने अहम किरदार निभाया है. ईटीवी भारत ने आम लोगों को अखाड़ों के इतिहास, परंपरा और महत्ता से रूबरू कराने का बीड़ा उठाया है.

1825 में हुई थी स्थापना :श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन निर्वाण की स्थापना 1825 में बसंत पंचमी के दिन हरिद्वार में की गई थी. हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा किनारे देशभर से पहुंचे साधु-संतों की मौजूदगी में विधि-विधान के साथ अखाड़े की स्थापना की गई थी. अखाड़े के इष्टदेव उदासीन आचार्य चंद्रदेव जी हैं. अखाड़े का मुख्यालय प्रयागराज के कीडगंज में है. साथ ही अखाड़े की शाखाएं वाराणसी, हरिद्वार, मथुरा के अलावा देश के अलग-अलग राज्यों में हैं. उसके संत महंत पूरे देश में अलग-अलग स्थानों पर रहकर धर्म का प्रचार प्रसार कर रहे हैं.

जानकारी देते महंत दुर्गादास जी महाराज. (Video Credit : ETV Bharat)

सनातन धर्म के प्रचार प्रसार और लोक कल्याण के उद्देश्य से इस अखाड़े की नींव रखी गई थी. अखाड़े के महंत दुर्गादास महाराज ने बताया कि आज भी यह अखाड़ा सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ समाज सेवा के कार्यों में लगा हुआ है. अखाड़े के पथ प्रदर्शक शिव स्वरूप उदासीन आचार्य जगतगुरु चंद्र देव महाराज हैं और उन्हीं के बताए रास्ते पर चलकर उनका अखाड़ा धर्म और समाज के कल्याण के कार्य मे जुटा हुआ है.

उदासीन संप्रदाय:श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन निर्वाण के महंत दुर्गादास जी महाराज ने बताया कि पौराणिक मान्यता के मुताबिक संसार की रचना परमपिता ब्रह्मदेव ने की है. परमब्रह्म को मानने वाले और उनमें विश्वास आस्था रखने वाले जो लोग परब्रह्म में लीन हो जाएं, उन्हें ही उदासीन कहा जाता है.

जो व्यक्ति सांसारिक मोहमाया और वासनाओं से दूर होकर ब्रह्म का चिंतन और ध्यान करता है, उसे भी उदासीन कहा जाता है. मध्यकाल में जब उदासीन परंपरा कमजोर होने लगी, तो अविनाशी मुनि ने इस परंपरा को मजबूत किया. वहीं भगवान श्री चंद्र देव जी ने क्षीण हो रही इस परंपरा को अखंडता प्रदान कर पुनः जीवित किया है.

अखाड़े का इष्ट देवता :श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन निर्वाण के इष्ट देव शिव स्वरूप भगवान चंद्रदेव हैं. चंद्रदेव उदासीन संप्रदाय के 165वें आचार्य भी हुए थे. अखाड़े से जुड़े सभी लोग और अखाड़े से जुड़े साधु-संत उन्हीं की आराधना करते हैं. अखाड़े के साधु-संत महंत सभी ईष्ट देव के बताए रास्ते पर चलकर समाजसेवा करते हैं. उदासीन संप्रदाय में पंचदेव उपासना पढ़ी जाती है. इसमें भगवान विष्णु, भगवान शिव, माता भगवती, गणेश भगवान और सूर्य नारायण भगवान की भी उपासना शामिल है.

अखाड़े के ईष्ट देव शिव स्वरूप श्री चंद्र जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य समुच्चय सिद्धांत दिया है. इससे राग द्वेष से रहित होकर के इन पांच देवताओं से निर्मित हमारा भौतिक शरीर पांच देवताओं में से एक की पूजा करते हैं, लेकिन मुख्य रूप से सभी लोग भगवान श्री चंद जी की ही उपासना करते हैं. उदासीन अखाड़े में उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके कई संत महंत हैं. इसमें से एक डॉ. भरत दास महाराज भी हैं.

अखाड़े में चार मुख्य महंत लेते हैं सभी फैसले :श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन की परंपरा रही है, कि यहां पर 4 मुख्य महंत होते हैं. वे अखाड़े से जुड़े सभी प्रकार के फैसले लेते हैं. मौजूदा समय में अखाड़े के अध्यक्ष महंत महेश्वर दास जी महाराज हैं. उनके साथ ही महंत दुर्गा दास महाराज और महंत अद्वैतानंद महाराज भी शामिल हैं. ये चार महंतों के आदेशों का अखाड़े के सभी साधु-संत पालन करते हैं.

कुंभ और महाकुंभ मेले में अखाड़े की ओर से भंडारा चलाने की परंपरा है. पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन का उद्देश्य सनातन धर्म की रक्षा के साथ ही लोक कल्याणकारी काम करना है. अखाड़े की ओर से निशुल्क शिक्षा और चिकित्सा के साथ ही लोगों के रहने के लिए धर्मशाला का भी निर्माण कराया गया है.

गुरु जिसे स्वीकार करे, वही बनता है शिष्य :महंत दुर्गादास जी महाराज बताते हैं कि उदासीन संप्रदाय में प्राचीन परंपरा चली आ रही है. शिष्य बनने के बाद शिष्य अपने गुरु की सेवा में रहते हैं. 5 साल से लेकर 10 साल, 12 साल या 24 साल में जब भी गुरु की नजरों में शिष्य में जब संत बनने के संपूर्ण लक्षण दिखने लगते हैं, तब गुरु उन्हें शिक्षा दीक्षा देकर अपने साथ अखाड़े में जोड़ लेते हैं.

मेले में दी जाती है दीक्षा :कुंभ मेले में निर्वाण संत बनाने की परंपरा है. जो 24 साल से कम उम्र के बाल युवा संत होते हैं, उन्हें यहां पर मेले में दीक्षा दी जाती है. उन्हें पंच परमेश्वर के द्वारा शपथ ग्रहण कराया जाता है. वह आकाश के नीचे निर्वस्त्र रहते हैं. वे कुंम्भ मेले में भी अखंड भस्मी लगाकर तपस्या करते हैं. कुंभ मेला समाप्त होने के बाद भी वे तपस्या आध्यात्मिक कार्यों में लीन रहते हैं. यही नहीं, वो शस्त्र और शास्त्र के जरिए विद्या अध्ययन भी करते हैं.

महंत दुर्गादास ने बताया कि उनके अखाड़े में संतों के प्रवेश की जो परंपरा है कि उसके मुताबिक जिस शिष्य को गुरु धारण करेगा उसी को अखाड़े में शामिल कराया जाएगा. उसमें से जो उदासीन संप्रदाय परंपराएं है. उसका जो पालन करता रहेगा.

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