पन्ना :पन्ना से करीब 10 किलोमीटर दूर पन्ना टाइगर रिजर्व के घने जंगलों के बीच स्थित ग्राम जनवार को स्केटिंग वाले गांव के नाम से जाना जाता है. इसी गांव की एक लड़की स्केटिंग की अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बन गई. उसने हाल ही में चीन में स्केटिंग खेलकर अपनी प्रतिभा का परचम लहराया है. स्केटिंग की अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी आशा गौड़ की मां कमला गौड़ ने ईटीवी भारत से खास बातचीत में संघर्ष की कहानी सुनाई.
आशा गौड़ देश के कई हिस्सों में खेल चुकी हैं
स्केटिंग प्लेयर आशा गौड़ की मां कमला गौड़बताती हैं, "मेरी बेटी स्केटिंग खेलने के लिए बाहर जाना चाहती थी, पर मुझे उसे बाहर भेजने में बहुत डर लगता था. मुझे लगता था कि मेरी लड़की कहां जाएगी? डर लगता था कि हम लोग गरीब आदिवासी जंगल से लकड़ी लाकर जीवनयापन करते हैं. हम लोग लड़की को कहां ढूंढेंगे."
स्केटिंग की अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी आशा गौड़ की मां कमला गौड़ (ETV BHARAT) कमला कहती हैं कि, " एक बार लड़की बाहर खेलने गई तो धीरे-धीरे डर छुमंतर हो गया. मेरी लड़की ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन में स्केटिंग प्रतियोगिता में भाग लिया. इसके अलावा तिरुवनंतपुरम, चंडीगढ़, मुंबई, विशाखापट्टनम, बेंगलुरु एवं अन्य शहरों में नेशनल स्तर पर खेली."
पन्ना जिले के जानवर नामक गांव में स्केटिंग पार्क (ETV BHARAT) स्केटिंग वाले गांव से 15 खिलाड़ी नेशनल लेवल पर खेले
कमला गौड़बताती हैं "वर्तमान में आशा गौड़ दिल्ली में है और इसके साथ ही पन्ना में एक एनजीओ संचालित करती है. गांव के छोटे-छोटे बच्चों को स्केटिंग पार्क में स्केटिंग सिखाती है." बता दें कि वर्ष 2013 और 2014 में जनवार ग्राम में एक जर्मन महिला उल रिके रीनहार्ड आईं. उन्होंने अपनी जेब से गांव में एक स्केटिंग पार्क बनवाया.
स्केटिंग पार्क में अभ्यास करती आशा गौड़ (ETV BHARAT) आदिवासी बच्चे एवं बच्चियों को स्केटिंग की ट्रेनिंग दी. इसी कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आशा गौड़ और अरुण गौड़ ने चीन में स्केटिंग प्रतियोगिता में भाग लिया. 15 ऐसे प्रतिभागी गांव से निकले, जिन्होंने नेशनल प्रतियोगिता में भाग लिया.
जर्मन महिला ने बदल दी जनवार गांव की तस्वीर
साल 2019 के लॉकडाउन में जर्मन महिला वापस विदेश लौट गई और जब से बताया जा रहा है कि वह इंडिया वापस नहीं आई पर बच्चों से वीडियो कॉल के जरिए वह आज भी बात करती हैं और बच्चों को मार्गदर्शन देती रहती हैं. कमला गौड़बताती हैं "अब बच्ची कहीं भी जाती है तो रोक-टोक नहीं करती. स्केटिंग से गांव की तस्वीर बदल गई है, जो बच्चे पहले स्कूल नहीं जाते थे, वे आज स्कूल जाते हैं और पढ़ाई करते हैं. क्योंकि जर्मन महिला ने एक रूल बनाया था की "नो स्कूल, नो स्केटिंग", वहीं रूल आज भी चल रहा है."