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दीपोत्सव पर फीका पड़ा नालंदा का 'दीपनगर', चाइनीज लाइटों ने किया कुम्हारों के घरों में 'अंधेरा' - DEEPOTSAV 2025

चाइनीज झालर के चलते दीयों की रौनक लुप्त होने लगी है. नालंदा का दीपनगर आज खुद 'अंधेरे' में है. क्या है दीपनगर का इतिहास पढ़ें-

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चाइनीज झालर से पिट गया दीपों का बाजार (Etv Bharat)

By ETV Bharat Bihar Team

Published : Oct 29, 2024, 5:13 PM IST

Updated : Oct 29, 2024, 5:57 PM IST

नालंदा : मिट्टी के दीयों के बगैर दीपोत्सव की खुशियां अधूरी सी लगती है. लेकिन आज के आधुनिक युग में जगमगाते चाइनीज रोशनी के सामने मिट्टी का दीया दम तोड़ता दिख रहा है. कभी दूसरों के घरों को रौशनी करने वाले कुम्हारों के घरों में आज अंधेरा छाया हुआ है.

क्या है दीपनगर का इतिहास : प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय जब 7 वीं शताब्दी में संचालित की जाती थी, तो मुख्यालय बिहारशरीफ से 5 किमी दूर स्थित दीपनगर एक गांव बसा हुआ था. जहां सैकड़ों लोगों की आबादी थी. जिनका मुख्य पेशा मिट्टी का दीया बनाने का था, जो सिर्फ़ दीपावली के अवसर पर घर को रौशनी करने के लिए नहीं बल्कि उस ज़माने में बिजली की सम्पूर्ण व्यवस्था नहीं थी और विश्विद्यालय में पढ़ने वाले विदेशी छात्रों को 365 दिन मिट्टी के दीप की रौशनी से पूरे विश्व में प्राचीन नालंदा विश्विद्यालय ने ज्ञान की रौशनी जगाया.

दीया बनाते कुम्हार (ETV Bharat)

कुम्हार हो गए मजदूर: हालांकि मौजूदा समय दीपनगर में एक भी कुम्हार नहीं रहते हैं, ये सभी बिहारशरीफ के गगन्दीवान मोहल्ले में सड़क किनारे झोपड़ीनुमा मकान में रहते हैं. जब ईटीवी भारत की टीम ने मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार से बात की तो पप्पू पंडित और राजू पंडित ने कहा कि वे लोग 4 महीने मिट्टी के बर्तन, दीया व छोटी-छोटी प्रतिमा खिलौनों बना जीविकोपार्जन चलाते हैं, बाकी के समय मज़दूरी करते हैं.

''चाइनीज़ सतरंगी लाइट की वजह से व्यवसाय ठप पड़ चुका है. हम लोगों को किसी प्रकार का कोई सरकारी लाभ नहीं मिलता है. ये अपने पूर्वजों की परंपराओं को जीवित रखे हुए हैं, हो सकता है कि आने वाली पीढ़ियां इस व्यवसाय से दूर हो जाएंगी. सरकार का इस ओर कोई ध्यान नहीं है. कभी 300 से 400 रुपए कमा लेते हैं, कभी कुछ नहीं बिकता है.''- राजू पंडित, स्थानीय कुम्हार

दीपावली से पहले की तैयारी (ETV Bharat)

चाइनीज झालर से पिट गया दीपों का बाजार: यहां पर 4 परिवार हैं जो मिट्टी से सामग्री बनाने का कार्य करते हैं. चाइनीज़ लाइटें नहीं थी तो 10 दिनों में लाखों दीया बनाकर बेचते थे, आज मात्र 10-15 हज़ार ही दीया बिकता है. इस रोजगार से परिवार का पेट पाल सकते हैं, मगर बच्चों का भविष्य नहीं संवार सकते हैं.

दीपनगर का नालंदा विश्वविद्यालय से है कनेक्शन : वहीं, इस संबंध में पत्रकार राज कुमार मिश्रा और सुजीत सिंहा बताते हैं कि जब 7वीं शताब्दी में नालंदा विश्वविद्यालय संचालित होता था उस समय बिजली की व्यवस्था नहीं थी. दियों के सहारे ही लोग रहते थे. इसी को लेकर एक गांव दीपनगर बनाया गया था. जहां सिर्फ़ दिया बनाने का कार्य चलता था. उस गांव को प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय द्वारा गोद लिया गया था. उन्हीं के द्वारा इस गांव के लोगों का जीविकोपार्जन चलता था.

कभी दीपनगर समृद्ध था : पहले भी 100 गांव को गोद लिया गया था, जिसमें विभिन्न चीज़ों का उत्पादन विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने वाले छात्रों को ही बेचा जाता था. जिसमें, चावल, गेहूं, चना, दाल इत्यादि सामग्रियां होती थी. वर्तमान में भी नव निर्माण नालंदा विश्वविद्यालय के द्वारा आसपास के गांव को गोद लेने की बात चल रही है.

कुम्हार कर रहे जद्दोजहद : मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पूर्व दिवंगत राष्ट्रपति APJ अब्दुल कलाम की पहल से यहां फ़िर से नव नालंदा विश्वविद्यालय की शुरुआत की गई है. यहां फिर से पढ़ाई कुछ विषयों पर शुरू हो चुकी है. विदेशी छात्र पढ़ाई भी कर रहे हैं. लेकिन कुम्हार आज विलुप्त होती मिट्टी के बने सामग्रियों को बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं.

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Last Updated : Oct 29, 2024, 5:57 PM IST

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