शिमला: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने अहम टिप्पणी करते हुए एक सुपर स्पेशिएलिटी डिग्री हासिल डॉक्टर की एम्स बिलासपुर में सेवाएं देने के लिए एनओसी की मांग वाली याचिका खारिज कर दी. हिमाचल हाईकोर्ट ने कहा कि यदि निजी हित और सार्वजनिक हितों के बीच टकराव होता है तो निजी हित को पीछे रखना होगा. दरअसल, क्लिनिकल हेमेटोलॉजी में डीएम (डॉक्टोरेट ऑफ मेडिसिन) यानी सुपर स्पेशिएलिटी डिग्री हासिल एक डॉक्टर ने राज्य सरकार के साथ तयशुदा शर्तों के अनुसार सर्विस बॉन्ड भरा था. बाद में डॉक्टर ने एम्स बिलासपुर में सेवाएं देने के लिए एनओसी जारी करने की मांग की.
यहां बता दें कि एम्स एक स्वतंत्र संस्था होती है और राज्य सरकार का उसके प्रबंधन पर कोई नियंत्रण नहीं होता है. हालांकि हाईकोर्ट की एकल पीठ ने डॉक्टर को ये कहते हुए अनुमति दी थी कि एम्स बिलासपुर भी हिमाचल में ही है और इससे सेवा शर्तों का उल्लंघन नहीं होगा. एकल पीठ के इस फैसले को अपील के जरिए हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी. बाद में एनओसी की मांग को लेकर हाईकोर्ट में दाखिल याचिका को मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएस रामचंद्र राव व न्यायमूर्ति ज्योत्सना रिवाल दुआ की खंडपीठ ने खारिज कर दिया.
क्या है पूरा मामला?
प्रार्थी डॉक्टर ने अपनी याचिका में हाईकोर्ट से आग्रह किया था कि उसे राज्य सरकार से एम्स बिलासपुर में सेवाएं देने की अनुमति संबंधी एनओसी यानी अनापत्ति प्रमाण पत्र दिलाने के आदेश जारी किए जाएं. मामले की सुनवाई के दौरान खंडपीठ ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार में स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है. मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमएस रामचंद्र की अगुवाई वाली खंडपीठ ने कहा कि हिमाचल सरकार की शर्तों के अनुसार सेवारत डॉक्टर द्वारा दिया गया सर्विस बॉन्ड पांच साल की अवधि तक जारी रहेगा. इसकी यह अवधि प्रार्थी डॉक्टर द्वारा पीजीआईएमईआर (पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च) चंडीगढ़ से 2020 में क्लिनिकल हेमेटोलॉजी में डॉक्टरेट ऑफ मेडिसिन यानी सुपर स्पेशिएलिटी की डिग्री पूरी करने से शुरू होकर पांच साल तक लागू रहेगी. इसलिए प्रार्थी डॉक्टर बॉन्ड की शर्तों से बाहर नहीं निकल सकता है.