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गणेश शंकर विद्यार्थी के लेखन से डरती थी ब्रिटिश सरकार, जानिए जंग-ए-आजादी में क्या रहा योगदान - GANESH SHANKAR VIDYARTHI

GANESH SHANKAR VIDYARTHI : जयंती पर आयोजित हुए कार्यक्रम और पत्रकार संगठनों ने अर्पित किए श्रद्धासुमन.

गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती.
गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती. (Photo Credit : ETV Bharat)

By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Oct 26, 2024, 8:53 PM IST

फतेहपुर :फतेहपुर में जन्मे गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम पत्रकारिता जगत में सम्मानपूर्वक लिया जाता है. उन्हें हिंदी पत्रकारिता का पितामह और लेखनी का जादूगर भी कहा जाता है. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गणेश शंकर विद्यार्थी ने क्रांतिकारी पत्रकारिता की. उनके लेखन से ब्रिटिश सरकार भी डरती थी.



पत्रकार शिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के हाथगांव के एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके पिता मुंशी जयनारायण हेडमास्टर थे. वे ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे. माता का नाम गोमती देवी था. गणेश शंकर विद्यार्थी विद्यारंभ उर्दू से हुआ और 1905 ई. में भेलसा से अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की. 1907 ई. में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास करके आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला काॅलेज में भर्ती हुए. उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और भारत में अंग्रेजी राज के यशस्वी लेखक पंडित सुन्दर लाल कायस्थ इलाहाबाद के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे. हालांकि गरीबी की वजह से उन्हें पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़ी. लगभग एक वर्ष काॅलेज में पढ़ने के बाद 1908 ई. में कानपुर के करेंसी आफिस में 30 रुपये मासिक की नौकरी कर ली. यहां अंग्रेज अफसर से झगड़ा हो जाने के कारण नौकरी छोड़कर पृथ्वीनाथ हाईस्कूल कानपुर में 1910 ई. तक अध्यापन किया. इसी अवधि में सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता (कलकत्ता) में समय समय पर लेख लिखने लगे.



1911 में विद्यार्थी जी सरस्वती में पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए. कुछ समय बाद सरस्वती छोड़कर अभ्युदय में सहायक संपादक हुए. यहां सितंबर, 1913 तक रहे. दो ही महीने बाद 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से निकाला. इसी समय से उनका राजनीतिक, सामाजिक और प्रौढ़ साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ. पहले लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु माना, किंतु राजनीति में गांधी जी के अवतरण के बाद उनके अनन्य भक्त हो गए. एनीं बेसेंट के होमरूल आंदोलन में बहुत लगन से काम किया और कानपुर के मजदूर वर्ग के नेता हो गए.

कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर समाचार पत्र प्रताप में लेख लिखने के संबंध में ये पांच बार जेल भी जाना पड़ा और समाचार पत्र से कई बार जमानत मांगी गई. प्रताप किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा. चिट्ठी पत्री स्तंभ प्रताप की निजी विशेषता थी. कुछ ही वर्षों में वे उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) के चोटी के शीर्ष कांग्रेसी नेता हो गए. 1925 ई. में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की स्वागत-समिति के प्रधानमंत्री हुए तथा 1930 ई. में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुए. इसी नाते सन 1930 ई. के सत्याग्रह आंदोलन के अपने प्रदेश के सर्वप्रथम डिक्टेटर नियुक्त हुए. 1920 ई. में प्रभा नाम की एक साहित्यिक तथा राजनीतिक मासिक पत्रिका निकाली. समाचार पत्र प्रताप में भगत सिंह, राम दुलारे त्रिपाठी ने भी काम किया.



इतिहासकार डॉ. विकास खुराना ने लिखा है कि कांग्रेस ने काकोरी अभियुक्तों की पैरवी के लिए एक कमेटी बनाई थी. इनमें मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, शिव प्रसाद गुप्ता व गणेश शंकर विद्यार्थी भी थे. गणेश शंकर विद्यार्थी पर अभियुक्तों के मुकदमे संबंधी सारे प्रबंध का दायित्व था. वकीलों में गोविंद वल्लभ पंत, मोहन लाल सक्सेना, कलकत्ता के बैरिस्टर बीके चौधरी तथा चंद्र भानु गुप्ता थे.


अपने जेल जीवन में गणेश शंकर विद्यार्थी ने विक्टर ह्यूगो के दो उपन्यासों, ला मिजरेबिल्स तथा नाइंटी थ्री का अनुवाद किया. हिंदी साहित्य सम्मलेन के 19 वें (गोरखपुर) अधिवेशन के ये सभापति चुने गए थे. विद्यार्थी जी बड़े सुधारवादी किंतु साथ ही धर्मपरायण और ईश्वरभक्त थे. वक्ता भी बहुत प्रभावपूर्ण और उच्च कोटि के थे. यह स्वभाव के अत्यंत सरल, किंतु क्रोधी और हठी भी थे. बताते हैं कि कानपुर के सांप्रदायिक दंगे में मुस्लिमों द्वारा 25 मार्च 1931 ई. को इनकी हत्या कर दी गई थी.







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