नई दिल्ली:दिल्ली हाईकोर्ट ने गुरुवार को उस याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया, जिसमें केंद्र को मौजूदा पांच साल के लॉ कोर्स के बजाय चार साल के लॉ कोर्स की व्यवहार्यता का पता लगाने के लिए एक कानूनी शिक्षा आयोग गठित करने के लिए निर्देश देने की मांग की गई थी. कोर्ट ने कहा कि चूंकि यह न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, इसलिए वह इस मामले में हस्तक्षेप करने को इच्छुक नहीं है.
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन और न्यायमूर्ति मनमीत पीएस अरोड़ा की पीठ ने कहा कि हम पाठ्यक्रम डिजाइन नहीं करते. आप पांच साल के लॉ कोर्स को इस तरह से खत्म नहीं कर सकते. यदि आप उन्हें (अधिकारियों) रिप्रेजेन्टेशन देना चाहते हैं तो आप ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं. जैसे ही पीठ ने संकेत दिया कि वह याचिका खारिज करने जा रही है, याचिकाकर्ता वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने इसे वापस लेने की स्वतंत्रता मांगी और उनके अनुरोध को अदालत ने स्वीकार कर लिया.
याचिका में केंद्र को चिकित्सा शिक्षा आयोग की तरह एक कानूनी शिक्षा आयोग गठित करने का निर्देश देने की मांग की गई थी, जिसमें सेवानिवृत्त न्यायाधीश, कानून के प्रोफेसर और वकील शामिल हों. ताकि चार साल के बी-टेक की तरह चार साल के लॉ ग्रैजुएशन कोर्स की व्यवहार्यता का पता लगाया जा सके. वैकल्पिक रूप से, याचिकाकर्ता ने अदालत से बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के साथ पांच वर्षीय कानून स्नातक पाठ्यक्रम की सुसंगतता की जांच करने के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, न्यायविदों और शिक्षाविदों की एक विशेषज्ञ समिति बनाने का निर्देश देने का आग्रह किया था.
याचिकाकर्ता ने कहा कि कानून के छात्रों को समाजशास्त्र, इतिहास और अर्थशास्त्र जैसे विषयों का अध्ययन कराया जा रहा है, जिनकी आवश्यकता नहीं है. इस पर न्यायमूर्ति मनमोहन ने कहा कि ये विषय बहुत प्रासंगिक हैं और कानून के छात्रों को इनका अध्ययन करना चाहिए. अगर किसी को वकालत करनी है तो उसे हर चीज में हाथ आजमाना होगा. आप कैसे कह सकते हैं कि अर्थशास्त्र की कोई भूमिका नहीं है. इससे मामलों को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी. अब तो लोग लॉ के साथ इंजीनियरिंग कर रहे हैं. अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता की ओर से कुछ हद तक ज्ञान की कमी थी, जिसके कारण उसे यह याचिका दायर की गई.