देहरादून/मसूरी:जैसे-जैसे गांव से शहरों की तरफ पिछले कुछ दशकों में लोगों ने पलायन किया है. वैसे-वैसे पारंपरिक तीज त्योहार, परंपराएं और संस्कृति भी लोगों के साथ शहरों में पहुंच गई है. हालांकि, इसका स्वरूप बिल्कुल वैसा तो नहीं है, जैसा कि गांव में होता है, लेकिन फिर भी कई लोगों की ओर से पारंपरिक पर्वों को आज शहरों में भी पूरे धूमधाम से मनाया जा रहा है. इसी का एक उदाहरण दीपावली के 11 दिन बाद मनाया जाने वाला इगास पर्व भी है. जिसे देहरादून जैसे महानगर में भी खूब धूमधाम से मनाया गया.
सीएम धामी ने खेला भैलो:लोकपर्व इगास पर मुख्यमंत्री आवास में कार्यक्रम का आयोजन किया गया. जहां सीएम धामी ने पूजा अर्चना और सुंदरकांड पाठ कर प्रदेश में सुख शांति एवं समृद्धि की कामना की. उन्होंने इगास पर्व पर भैलो पूजन कर खेला. इस दौरान उन्होंने ढोल दमाऊं पर भी हाथ आजमाया. उन्होंने कहा कि लोक संस्कृति एवं लोक परंपरा देवभूमि की पहचान है. इस लोकपर्व को जन-जन तक पहुंचाने के लिए सार्वजनिक अवकाश की परंपरा शुरू की गई है.
देहरादून में मनाया गया उत्तराखंड का पारंपरिक इगास पर्व: देहरादून में डांडी कंठी क्लब परिवार ने रिंग रोड पर इगास पर्व का एक सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजन किया. जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया. पारंपरिक तौर से मनाए जाने वाले उत्तराखंड के इस पर्व में न केवल पहाड़ी मूल नहीं, बल्कि मैदान के बाशिंदों ने में मनाया. आयोजन स्थल पर भैलो खेलने की भी विशेष व्यवस्था की गई थी.
ईटीवी भारत से करते हुए डांडी कांठी क्लब के अध्यक्ष विजय भूषण उनियाल ने कहा कि इगास हमें जड़ों से जोड़ने वाला पर्व है. पहाड़ों में यह स्पष्ट रूप से सर्दियों के आगमन का संकेत है. यह माना जाता है कि इगास पर्व के दिन से सर्दियों की विशुद्ध रूप से शुरुआत हो जाती है. वहीं, इगास पर उत्तराखंड की लोक संस्कृति की झलक देखने को मिली.
इगास पर्व का पौराणिक महत्व: वैसे तो इगास (बग्वाल) को लेकर कई कथा और कहानियां हैं, लेकिन अगर इगास को हकीकत में जानना है तो इस पर गायी जाने वाली दो लाइनों में इस पूरे पर्व का सार छिपा है. वो लाइन हैं, 'बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई..' यानी बारह बग्वाल चली गई, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए. सोलह श्राद्ध भी गुजर गए, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है.