वाराणसी : कभी सुर्खियों में रहने वाला बनारसी संगीत घराना अब अपनी विरासत को बचाने की जंग लड़ रहा है. अब न तो पहले जैसे फनकार हैं, और न ही तलबगार. इस घराने के कलाकारों ने पूरे विश्व में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया. इनमें भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से लेकर पद्म विभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्रा तक की लंबी फेहरिस्त है. इन्होंने अपने हुनर से गीत-संगीत को बुलंदी तक पहुंचाया. अब बाजारवाद ने इस घराने की बुनियाद को कमजोर करना शुरू कर दिया है. जिन गुरुकुलों में दाखिले के लिए होड़ लगी रहती थी, वहीं अब शिष्य ही इनसे दूरी बनाने लगे हैं. 500 हजार साल से भी ज्यादा पुराने इस घराने ने शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाई दी. आइए विस्तार से जानते हैं घराने की प्रमुख शख्सियत, इतिहास और मौजूदा समय की दुश्वारियों के बारे में....
देशभर में मौजूद अलग-अलग संगीत घरानों में से एक बनारस घराना भी है. इस घराने में संगीत व गायन दोनों की परंपराओं को जीवित रखने का काम किया जाता रहा है. इससे जुड़े कई कलाकारों ने संगीत के बल पर पूरे विश्व में भारत का लोहा मनवाया. भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पद्म विभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्रा, पद्मश्री पंडित राजेश्वराचार्य, सितार सम्राट पंडित शिवनाथ मिश्रा, पंडित रविशंकर, पद्म विभूषण और ठुमरी की महारानी कहीं जाने वाली गिरिजा देवी जैसे कई नाम इनमें शामिल हैं.
बदलते समय के साथ अब आधुनिकता और बाजारवाद ने बनारस के इस संपन्न संगीत घराने को कमजोर करने का काम शुरू कर दिया है. बड़े कलाकार तेजी से बनारसी संगीत घराने से दूरी बना रहे हैं. घराने के शिष्य यहां की गलियों और अपने गुरुकुल को छोड़कर दूसरे शहरों में बस रहे हैं. एक वक्त में कबीरचौरा, रामापुर और कई अलग-अलग इलाकों में बनारस की संगीत परंपरा के ध्वजवाहक कहे जाने वाले कई बड़े नाम अब बनारस से दूर हो चुके हैं.
कई बड़े कलाकारों के घरों में ताले बंद :कई बड़े कलाकारों के घरों में ताले बंद हैं. कई के घर सिर्फ बनारस की पहचान के तौर पर ही मौजूद रह गए हैं. शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध घरानों में बनारस घराने को गिना जाता है. बनारस घराना जयपुर घराने के समकालीन माना जाता है. बनारस घराने के सबसे प्रसिद्ध और सबसे पुराने संगीतकार घरों में से एक बड़े रामदास जी के बेटे पंडित हरिशंकर मिश्र के शिष्य पंडित अनूप कुमार मिश्रा बताते हैं कि बनारस की यह संपन्न संगीत काफी पुरानी है.
संतों की इस संगीत परंपरा को सूरदास, कबीर, तुलसी और श्री कृष्ण के उपासक चैतन्य महाप्रभु अपने गायन के जरिए प्रस्तुत किया करते थे. पंडित अनूप मिश्रा का कहना है कि 4 वेदों में सांगवेद की ऋचाओं का गायन भी संगीत के जरिए ही किया जाता था और कहीं न कहीं से यह संगीत भी इसी परंपरा से निकला हुआ है. उनका कहना है कि घराने 1268 के दौरान बने. उस दौरान राजपूताना रियासतों ने अलग-अलग संगीत गानों को मजबूती प्रदान करने के लिए इस पर काम शुरू किया.
बनारस घराने में गीत-संगीत की 4 विधाएं शामिल :अनूप मिश्रा बताते हैं कि गीत-संगीत में बनारस घराना सबसे मजबूत माना जाता है. यहां पर चारों विधाएं, जिसमें गायन वादन के साथ ही तबला और शास्त्रीय संगीत भी शामिल है. बनारस एकमात्र ऐसा घराना है जहां संगीत के अलग-अलग 8 उपघराने हुए. इनमें रामापुरा घराना, कबीर चौरा घराना और बनारस के कई अलग-अलग इलाकों में रहने वाले बड़े संगीतकार और उनके परिवारों के अलौकिक प्रदर्शन की वजह से उन्हें अलग घराने के तौर पर पहचान मिली.
बनारस घराने में गति व श्रंगारिकता के स्थान पर प्राचीन व प्रारंभिक शैली पर अधिक जोर दिया गया. बनारस घराने के नाम से प्रख्यात नृत्यगुरु सितारा देवी के पश्चात उनकी पुत्री कथक क्वीन जयंतीमाला ने इसके वैभव और छवि को बरकरार रखने का प्रयास किया है. वह गुरु-शिष्य परंपरा को भी आगे बढ़ा रही है. पंडित अनूप मिश्र का कहना है यह घराना गायन और वादन दोनों कलाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है. इस घराने के गायक ख्याल गायकी के लिए जाने जाते हैं.
सारंगी वादन में भी चर्चित रहा घराना :बनारस घराने के तबला वादकों की भी अपनी एक स्वतंत्र शैली रही है. सारंगी वादकों के लिए भी यह घराना काफी चर्चित रहा है. घराने की गायन एवं वादन शैली पर उत्तर भारत के लोक गायन का गहरा प्रभाव है. आर्यों के भारत में स्थायी होने से पहले यहां की जनजातियों में संगीत विद्यमान था. उसका आभास बनारस के लोक संगीत में दिखता है. ठुमरी मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश की ही देन है. लखनऊ में इसकी पैदाइश हुई थी और बनारस में इसका विकास हुआ.
बनारस में कोई बनावट नहीं :हालांकि समय के साथ कहीं न कहीं से अब बनारस की इस बेहद ही संपन्न संगीत परंपरा और गलियों में गूंजने वाले गायन-वादन संग वाद्य यंत्रों की आवाज भी अब सुनाई देना बंद हो रही हैं. इसके पीछे का बड़ा कारण संगीत से युवा और पुराने कलाकारों की दूरी माना जा सकता है. ध्रुपद गायन के जाने-माने नाम और संगीत अकादमी उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रह चुके पद्मश्री पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि बनारस हमेशा से ही अपने असली और धार्मिक स्वरूप के लिए जाना जाता है. बनारस में कोई बनावट कभी नहीं रही है, और न रहेगी.
इस वजह से संगीत घराने से दूर होते गए कलाकार :यहां रहने वाले लोग कम संशाधनों में ही गुजारा करना ज्यादा बेहतर समझते थे, लेकिन समय के साथ बाजारवाद संग विज्ञापनों ने इन चीजों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया. पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि बाजारवादी मानसिकता के कारण बनारसी संगीत घराने से जुड़े लोग इससे दूर होते गए. बनारस छोड़कर दूसरे शहरों में जाकर खुद को मजबूत करने की जगह विज्ञापन में उलझ गए. अपने प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने जब बनारस को छोड़ा तो संगीत के कमजोर होने का सिलसिला शुरू हो गया.
गुरु-शिष्य परंपरा का वह रूप भी बनारस में स्थापित नहीं हो सका जो पहले दिखाई देता था. आज शिष्य भी कम समय में सीखने की चाहत की वजह से गुरुओं के संपर्क में नहीं आ रहे हैं. पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि घरानों को लेकर भी एक भ्रम की स्थिति लोगों के अंदर रही है कि आखिर यह घराने कब के हैं, कितने पुराने हैं. इसमें भी कई तरह की भ्रांतियां हैं जैसे घरों को घरानों का नाम दिया गया, जबकि घराने किसी परंपरा के ध्वजवाहक माने गए हैं.
गुरु-शिष्य की टूट रही परंपरा :यह संप्रदाय विशेष के लिए नहीं बल्कि कलाकारों के लिए जुड़े हुए होते थे और इसी वजह से घराने के जरिए संगीत को एक अलग मुकाम देने की कोशिश की गई, लेकिन इसका भी इस्तेमाल गलत तरीके से हुआ. इसके कारण घराना कमजोर होता गया. प्रख्यात सितार वादक पद्मश्री शिवनाथ मिश्रा गुरु-शिष्य की टूट रही परंपरा को स्वीकार भी करते हैं. उनका कहना है कि अब वैसे गुरु पैदा ही नहीं हो रहे हैं, जैसे पहले होते थे. पहले एक गुरु, एक राग, एक संगीत के पद और अंदाज को अपने शिष्य को सिखाने में 8 से 10 साल का समय लगाते थे.
पहले के गुरु 18 घंटे करते थे रियाज :सितार वादक का कहना है कि अब तो गुरु इंस्टीट्यूट से पैदा हो रहे हैं. प्रोफेसर, डॉक्टरेट की उपाधि लेकर लोग शिष्यों को संगीत सिखाना शुरू कर दे रहे हैं. उन्हें खुद प्रैक्टिकल का ज्ञान कम है. सिर्फ पढ़ाई करके सुरों की जानकारी लेकर शिष्यों को सिखाना कहीं ना कहीं से इसके क्षय की प्रमुख वजह मानी जा सकती है. पंडित शिवनाथ मिश्रा का कहना है कि पहले गुरु भी 24 घंटे में 18 -18 घंटे का रियाज किया करते थे. फिर अपने शिष्यों के साथ सुबह-शाम समय दिया करते थे.
अब पहले जैसे गुरु नहीं रह गए :शिवनाथ मिश्रा ने बताया कि पहले के गुरु संगीत को जीते थे. संगीत को पीते थे, लेकिन अब न वैसे गुरु हैं, न वैसे शिष्य. इसकी वजह से भी बनारस का यह संगीत घराना कहीं न कहीं कमजोर हो रहा है. अब तो शिष्य कम समय में सीख कर स्टेज पर परफॉर्मेंस देना चाहते हैं. उनके पास समय ही नहीं है. कोई शिष्य 6 महीने के लिए आता है तो कोई एक महीने के लिए. वहीं बनारस घराने से जुड़े तबला सम्राट पंडित किशन महाराज के शिष्य पंडित अमित कुमार मिश्रा का कहना है कि बनारस घराने में तबला अपने आप में एक अलग ही हैसियत रखता है.
छोटे कलाकारों की सरकार नहीं करती मदद :अमित कुमार ने बताया कि यहां के प्रख्यात तबला वादकों ने पूरे विश्व में बनारस घराने का लोहा मनवाया. संगीतकारों के साथ शास्त्रीय गायकों और अलग-अलग वाद्य यंत्रों को बजने वाले लोगों ने बनारस घराने को बुलंदियों पर पहुंचाया. अब यह घराना कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गया है. सरकार भी कुछ नामचीन लोगों और उनके परिवार के लोगों को ही तवज्जो देती है. यदि आप किसी बड़े परिवार से हैं तो आपको सरकारी मदद भी मिलती है और प्लेटफार्म भी, लेकिन कोई छोटे कलाकार हैं या छोटे परिवार से जुड़े हैं तो महत्व नहीं मिलता.