लद्दाख: लद्दाख की ऊंची-ऊंची घाटियों में सदियों पुरानी परंपरा को नया जीवन मिल रहा है, जिसे एक महिलाओं द्वारा संचालित किया जा रहा है. पोलो, जिसे सभी खेलों का राजा कहा जाता है, उस पर ऐतिहासिक रूप से लद्दाख में पुरुषों का वर्चस्व रहा है. हालांकि, आज महिलाएं न केवल इस प्राचीन खेल को अपना रही हैं, बल्कि इसमें ऊंचाइयां भी प्राप्त कर रही हैं. इसकी विरासत को फिर से लिख रही हैं और दूसरों को प्रेरित कर रही हैं.
द्रास के गोशान में 6.84 करोड़ रुपये की लागत से बना हाल ही में उद्घाटित हॉर्स पोलो स्टेडियम, खेल को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक और कदम है. लेह और कारगिल की लड़कियों को राष्ट्रपति के बॉडीगार्ड के साथ पोलो प्रशिक्षण के लिए दिल्ली भेजने की यूटी प्रशासन की पहल ने इस गति को और बढ़ा दिया है. पिछले साल लेह की 12 लड़कियों ने भाग लिया था, और इस साल कारगिल की 12 लड़कियां प्रशिक्षण ले रही हैं.
पोलो प्रमोशन कमेटी द्रास के अध्यक्ष मोहम्मद अमीन पोलो बताते हैं, 'पोलो कभी लद्दाख के लगभग हर गांव और कोने में खेला जाता था. इसकी औपचारिक स्थापना 16वीं शताब्दी में हुई थी. यह खेल 17वीं शताब्दी में लद्दाख में आया जब राजा सेंगगे नामग्याल ने स्कार्दू की एक मुस्लिम राजकुमारी से विवाह किया, जो अब पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में है. राजकुमारी अपने दहेज के रूप में पोलो के साथ-साथ दमन और सुरना जैसे संगीत वाद्ययंत्र भी लाई थीं. लद्दाख में पोलो के समृद्ध इतिहास के साक्ष्य अभी भी शागरन क्षेत्रों में पाए जा सकते हैं. दुर्भाग्य से लद्दाख में अधिकांश शागरन (पोलो खेल के मैदान) समय के साथ गायब हो गए हैं, क्योंकि सरकारी और निजी निर्माणों ने इन स्थानों पर कब्जा कर लिया है. आज पूरे क्षेत्र में केवल दो से चार शागरन ही बचे हैं'.
लद्दाख के छात्रों के शैक्षिक और सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा रही और पोलो टीम की कप्तान डेचेन एंगमो ने बताया, 'मैं पिछले दो सालों से पोलो खेल रही हूं. मैंने चुशोट टीम के साथ शुरुआत की और इस बार सेकमॉल के साथ हूं. 2013 में मुझे पता चला कि सेकमोल घुड़सवारी की शिक्षा दे रही है, जिससे मेरी रुचि जागृत हुई. बहुत से लोग मानते हैं कि महिलाएं कमजोर होती हैं, लेकिन मैं उन्हें गलत साबित करना चाहती थी और इस अनुभव ने मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ा दिया है. हतोत्साहित करने वाली टिप्पणियों का सामना करने के बावजूद मैंने अपना ध्यान केंद्रित रखा और पोलो खेलना जारी रखा. मैं पिछले साल दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में प्रशिक्षण का भी हिस्सा थी, जहां लद्दाख की 10 लड़कियों ने भाग लिया था. आज मुझे अपनी यात्रा पर गर्व है और मैं सक्रिय रूप से अधिक लड़कियों को पोलो खेलने के लिए प्रोत्साहित करती हूं. इस बार हमने द्रास में चौथा लेफ्टिनेंट गवर्नर पोलो कप जीता और मेरी योजना लद्दाख में और अधिक महिला टीमें बनाने की है'.
मोहम्मद अमीन पोलो कहते हैं, 'पोलो लद्दाखी संस्कृति में गहराई से निहित एक पारंपरिक खेल है, इसकी प्रमुखता का श्रेय राजा सेंगगे नामग्याल को जाता है, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से इसे बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. भविष्य को देखते हुए मुझे उम्मीद है कि लद्दाख से और अधिक महिला टीमें उतरेंगी, जिससे खेल की विरासत और समृद्ध होगी. 'लद्दाख में ज्यादातर पोलो टीमें और घोड़े द्रास में रहते हैं. दुर्भाग्य से, समय के साथ यह परंपरा कम होती गई और सबसे ज़्यादा नुकसान कारगिल युद्ध के बाद हुआ. युद्ध से पहले द्रास अपने प्रचुर पशुधन के लिए प्रसिद्ध था, जिसमें घोड़े, भेड़, बकरियां और गाय शामिल थे. हर घर में 5-10 घोड़े और 50-60 बकरियां या भेड़ें होती थीं. हालांकि, युद्ध के कारण हमें बहुत कुछ छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा था'.
मोहम्मद अमीन पोलो ने आगे बात करते हुए कहा, हम शुरू में हमने किसी तरह से काम चलाने की कोशिश की लेकिन आखिरकार लगातार गोलीबारी के कारण हमें अपने घर और पशुधन को छोड़ना पड़ा. तीन से चार महीने तक जानवरों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था, जिसके परिणामस्वरूप भारी नुकसान हुआ. यह द्रास में पशुपालन की संस्कृति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था, खासकर घोड़ों के लिए. लद्दाख में घोड़ों को रखना चुनौतीपूर्ण है. रातों में भी उनकी देखभाल की जरूरत होती है. दुख की बात है कि हमारे कई बेहतरीन घोड़े गोलाबारी में मारे गए कुछ लापता हो गए और अन्य जंगली जानवरों का शिकार बन गए. यह नुकसान इतना बड़ा था कि आज भी हम पूरी तरह से उबर नहीं पाए हैं या इसकी भरपाई नहीं कर पाए हैं'.
मोहम्मद अमीन पोलो कहते हैं, 'आज द्रास के लोगों के पास सामूहिक रूप से करीब 1,000 घोड़े हैं, जिनमें से 100-120 पोलो के लिए हैं. हमने सरकार से पोलो खिलाड़ियों के लिए घोड़ों पर सब्सिडी देने का भी अनुरोध किया है ताकि गुणवत्ता वाले घोड़ों के रखरखाव और प्रशिक्षण में सहायता मिल सके. वर्तमान में कारगिल में 10 पोलो टीमें और लद्दाख में कुल 16 टीमें हैं, जो इस पारंपरिक खेल के क्रमिक पुनरुत्थान को दर्शाती हैं. 2012 में हमने ललित सूरी अंतरराष्ट्रीय पोलो टूर्नामेंट की शुरुआत की, जो द्रास में चार साल (2012-2015) तक हर साल आयोजित किया गया. इस टूर्नामेंट में मंगोलिया, फ्रांस और अन्य देशों के खिलाड़ी शामिल हुए, जिससे इस क्षेत्र की ओर अंतरराष्ट्रीय ध्यान गया. इस आयोजन ने द्रास में पोलो के पुनरुद्धार में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे इस खेल में लोगों की रुचि फिर से जागृत हुई'.