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लोकसभा-विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन से होगा भारत का पुनर्निर्धारण, जानें संवैधानिक अपेक्षाएं - Delimitation in India

By Ritwika Sharma

Published : Jul 30, 2024, 6:29 AM IST

Delimitation of Electoral Constituencies in India: पिछले साल सितंबर में केंद्रीय गृह मंत्री ने संकेत दिया था कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद देश में जनगणना कराई जाएगी और फिर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया जाएगा. परिसीमन से यह तय होता है कि संसद में प्रत्येक राज्य की कितनी सीटें होंगी.

Delimitation of Electoral Constituencies in India
संसद (ANI)

नई दिल्ली: भारत की संसद के बारे में एक सर्वविदित तथ्य यह है कि इसमें 543 सदस्य होते हैं, जो हर 5 साल में होने वाले आम चुनावों के माध्यम से चुने जाते हैं. प्रत्येक सदस्य सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में फैले एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र से संबंधित होता है, जहां की जनता उन्हें चुनकर लोकसभा में भेजती है. जानने लायक बात यह है कि ये निर्वाचन क्षेत्र कैसे बनाए जाते हैं, और कैसे पूरा देश उनमें समाहित हो जाता है. क्या कुछ संवैधानिक सिद्धांत हैं जो इस प्रक्रिया को रेखांकित करते हैं? और जब निर्वाचन क्षेत्रों को परिभाषित किया जा रहा है तो वास्तव में क्या दांव पर लगा है?

निर्वाचन क्षेत्र कैसे तय किए जाते हैं...
सितंबर 2023 में, केंद्रीय गृह मंत्री ने संकेत दिया कि 2024 के लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद देश दो प्रमुख मुद्दों पर कार्य करेगा – पहला जनगणना करना और दूसरा निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करना. परिसीमन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं तय की जाती हैं, जिसमें निर्वाचन क्षेत्र उन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी आबादी विधायिका (संसद) में उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रतिनिधियों को वोट देती है. मुख्य रूप से, निर्वाचन क्षेत्र वास्तव में 'लोगों' को परिभाषित करते हैं जो किसी विशेष सांसद का चुनाव करेंगे. परिसीमन से यह भी निर्धारित होता है कि भारत की संसद में प्रत्येक राज्य से कितनी सीटें होंगी, जिसका अर्थ है कि यह प्रक्रिया विधायिका की संरचना के लिए भी महत्वपूर्ण है.

सरल शब्दों में कहें तो परिसीमन संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से निर्धारित करता है और जनसंख्या के ताजा आंकड़ों के अनुसार (निर्वाचन क्षेत्रों की) संख्या में वृद्धि होती है. ऐसा हर राज्य में किया जाता है ताकि निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या और जनसंख्या के बीच संतुलन बनाया जा सके. यह संतुलन क्यों महत्वपूर्ण है? भारत का संविधान अनुच्छेद 81 के माध्यम से यह अनिवार्य करता है कि प्रत्येक राज्य को अपनी जनसंख्या के अनुपात में सीटें मिलें और उन सीटों को लगभग समान आकार के निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा जाए. यह मतदान में समान प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का पालन सुनिश्चित करने के लिए है कि एक व्यक्ति के वोट का मूल्य किसी अन्य व्यक्ति के वोट के समान होना चाहिए. संविधान राजनीतिक समानता की बात करता है और प्रत्येक सांसद या विधायक से लगभग समान संख्या में नागरिकों का प्रतिनिधित्व करने की अपेक्षा करता है.

इसे 'एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य' सिद्धांत कहा जाता है. इस सिद्धांत का पालन न करने का मतलब है कि कुछ मतदाताओं के पास विधायिका के गठन और कानून बनाने की प्रक्रिया में दूसरों की तुलना में ज्यादा अधिकार होंगे. ऐसा तब होता है जब निर्वाचन क्षेत्रों में जनसंख्या का स्तर अलग-अलग होता है. अगर प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता एक-एक प्रतिनिधि चुनते हैं, तो कम आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्र के व्यक्ति का वोट अधिक आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्र के व्यक्ति के वोट से अधिक प्रभावशाली होता है.

संवैधानिक अपेक्षाएं और राजनीतिक वास्तविकता
'परिसीमन अधिनियम' कानून के तहत परिसीमन किया जाता है, जिसे संसद द्वारा पारित किया जाता है. यह अधिनियम परिसीमन आयोग नामक एक निकाय का गठन करता है, जिसे पिछली जनगणना के आधार पर लोकसभा और विधानसभाओं के निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से निर्धारित करने का काम सौंपा जाता है. यह आयोग स्थायी निकाय नहीं है और केवल उस अवधि के लिए अस्तित्व में रहता है, जब तक परिसीमन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती है. आज तक, भारत के लिए संसद में अब तक चार परिसीमन अधिनियम पारित किए गए हैं, 1952, 1962, 1972 और 2002 में. 1972 के परिसीमन आयोग ने लोकसभा सीटों की संख्या 542 निर्धारित की थी, जिसे बाद में सिक्किम के लिए 1 सीट जोड़कर 543 कर दिया गया था. 1970 के दशक से यह संख्या स्थिर बनी हुई है.

42वें संशोधन से लोकसभा सीटों की संख्या स्थिर की गई
संविधान में यह भी अपेक्षा की गई है कि देश की जनसंख्या में होने वाले परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए हर 10 साल यानी एक दशक में जनगणना के बाद निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं की समीक्षा की जाए और इसके आधार पर लोकसभा में सीटों की संख्या में वृद्धि की जाए. हालांकि, 1970 के दशक से लोकसभा सीटों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई है. क्योंकि 1976 में, संविधान के 42वें संशोधन ने 1971 की जनगणना के अनुसार लोकसभा सीटों की संख्या को 2001 की जनगणना तक के लिए स्थिर कर दिया था. यह कदम उन राज्यों (ज्यादातर दक्षिण भारत में) की चिंताओं को दूर करने के लिए उठाया गया था, जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण में अग्रणी भूमिका निभाई थी, और लोकसभा में उनकी सीटों की संख्या में कमी की संभावना जताई गई थी. हालांकि, 2001 में इस गणना को 2026 तक बढ़ा दिया गया था. इस समय सीमा को देखते हुए नया परिसीमन जल्द ही होना चाहिए. जबकि विशिष्ट राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (जैसे असम और जम्मू-कश्मीर) में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से निर्धारित करने के लिए परिसीमन किया गया है. पूरे देश में परिसीमन 2002 के बाद से नहीं हुआ है.

लोकसभा सीटों की संख्या में किसी भी बदलाव पर रोक के दो अर्थ हैं - पहला, 1970 के दशक से राज्यों में हुए जनसांख्यिकीय परिवर्तनों को लोकसभा की संरचना में शामिल नहीं किया गया है; और दूसरा, भारत प्रतिनिधित्व के गंभीर संकट का सामना कर रहा है क्योंकि विभिन्न राज्यों को उनकी जनसंख्या के अनुसार सीटें आवंटित करने की प्रक्रिया 1976 से (एक से अधिक बार) स्थगित की जा चुकी है.

दांव पर क्या है...
इस मुद्दे के मूल में दो प्रमुख संवैधानिक मूल्य हैं जो एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं - एक ओर संघवाद और दूसरी ओर 'एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य' सिद्धांत :

संघवाद और संसदीय सीटों का अंतर-राज्यीय आवंटन
पिछले कुछ वर्षों में, दक्षिण भारत की तुलना में उत्तर भारत में जनसंख्या में तेज वृद्धि हुई है. अगर 2011 की जनगणना के जनसंख्या आंकड़ों पर विचार किया जाए और सीट आवंटन का आधार बनाया जाए, तो यह उम्मीद की जाती है कि तमिलनाडु, अविभाजित आंध्र प्रदेश, केरल, पश्चिम बंगाल और ओडिशा कुल 31 सीटें खो सकते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश 31 सीटें हासिल कर सकते हैं. इससे उत्तरी राज्यों में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या में महत्वपूर्ण वृद्धि होगी, जिससे संसद में उनकी उपस्थिति बढ़ेगी और दक्षिणी राज्यों की उपस्थिति घटेगी.

उत्तर-दक्षिण और शहरी-ग्रामीण मतदाताओं के बीच व्यक्तिगत वोटों का तुलनात्मक मूल्य
असमान जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए, उत्तर भारत में एक वोट का मूल्य दक्षिण भारत की तुलना में बहुत कम है. व्यावहारिक रूप से, इसका मतलब है कि उत्तर भारत के राज्यों में संसद सदस्य (सांसद) दक्षिण भारत के राज्यों के सांसदों की तुलना में अधिक मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. संख्यात्मक रूप से, इसका मतलब है कि उत्तर प्रदेश में एक लोकसभा सांसद 25 लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि तमिलनाडु और केरल में यह संख्या क्रमशः 18 लाख और 17 लाख है.

इसके अलावा, शहरीकरण और प्रवास की गति के कारण राज्य के भीतर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की जनसंख्या में व्यापक असमानताएं पैदा हुई हैं. अधिक आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में अधिक सीटें और निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए बिना, उन क्षेत्रों के मतदाताओं की ग्रामीण क्षेत्रों के मतदाताओं की तुलना में चुनावों में कम भागीदारी होगी.

सावधानीपूर्वक विचार करने की जरूरत
चुनावी निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से निर्धारित करने से भारतीय लोकतंत्र के कामकाज के साथ-साथ संसद में राज्यों के हितों के प्रतिनिधित्व पर भी बड़े व्यावहारिक परिणाम होंगे. 1976 में राज्यों की जनसंख्या नियंत्रण उपायों और व्यापक रूप से भिन्न प्रजनन दरों के परिणामों में निहित आशंकाओं के कारण निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा पर रोक लगाना जरूरी हो गया था. यह बताने की जरूरत नहीं है कि ऐसी चिंताएं आज भी बनी हुई हैं.

निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के लिए कुछ जटिल सवालों के जवाब की आवश्यकता होगी. अगर पूरी तरह से जनसंख्या के अनुपात के संदर्भ में किया जाता है, तो निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण से उत्तर के राज्यों को उनकी अधिक जनसंख्या के कारण अधिक सीटें मिलेंगी. प्रतिनिधित्व को लेकर चिंताओं के अलावा, इससे दक्षिण के राज्यों में अविश्वास भी पैदा होगा. परिसीमन को लेकर जल्द ही एक मजबूत बातचीत शुरू करने की जरूरत है, ताकि सीटों के आवंटन पर रोक को हटाने में और देरी न हो. यह आसन्न चिंता का एक अस्थायी समाधान होगा, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

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