नालंदा : आज विश्व साड़ी दिवस है, हर साल 21 दिसंबर को इसे मनाया जाता है. सारी महिलाओं के पारंपरिक परिधान की महत्ता को उजागर करता है. इस खास दिन पर हम बिहार की मशहूर बावन बूटी साड़ी पर ध्यान केंद्रित करेंगे, जो अब सरकारी उपेक्षाओं के कारण विलुप्ति के कगार पर है.
बावन बूटी साड़ी का इतिहास: बिहार के नालंदा स्थित बिहारशरीफ के बासवन विगहा गांव में तैयार होने वाली बावन बूटी साड़ी, देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी प्रसिद्ध थी. पहले इसे दुल्हनों और मेहमानों को शुभ अवसरों पर तोहफे के रूप में दिया जाता था. अब यह कला धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है.
स्व. कपिल देव प्रसाद की भूमिका: बावन बूटी साड़ी को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले स्व. कपिल देव प्रसाद अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी बहू नीलू देवी आज भी इस कला को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. उनका मानना है कि अगर सरकार इस कला को GI टैग की मान्यता दे, तो इससे इस हस्तकला की मांग फिर से बढ़ सकती है और रोजगार के नए अवसर पैदा हो सकते हैं.
बावन बूटी का महत्व: ‘बावन’ का मतलब है 52 और ‘बूटी’ का मतलब है मोटिफ्स. इस साड़ी में 6 गज के सादे कपड़े पर रेशम के धागे से हाथों से बावन बूटी डाली जाती है, जिसे तैयार करने में 10 से 15 दिन लगते हैं. इन साड़ियों में बौद्ध धर्म के प्रतीक चिन्ह जैसे कमल का फूल, त्रिशूल, धर्म का पहिया और शंख आदि उकेरे जाते हैं.
कला का प्रतीक बावन बूटी: बावन बूटी साड़ी में उकेरे गए चिन्ह सिर्फ बौद्ध धर्म के प्रतीक नहीं होते, बल्कि भगवान बुद्ध की महानता को दर्शाने की कला के रूप में भी होते हैं. यह शिल्प अब भी 80 से 100 लोगों के परिवारों का जीवनयापन करता है, जो इस व्यवसाय से जुड़े हुए हैं.