देहरादून (उत्तराखंड):दुर्गा अष्टमी के मौके पर देहरादून में टिहरी राजपरिवार के वंशज भवानी प्रताप के आवास पर अतीत के पन्नों की कुछ झलक देखने को मिली. जहां टिहरी साम्राज्य की दुर्गा अष्टमी पर होने वाली पारंपरिक शस्त्र पूजा के दौरान राजदरबार के सभी हथियारों की पूजा की गई. वहीं, राजराजेश्वरी माता की पारंपरिक पूजा के दौरान उत्तराखंड के कई राज्यों से आए थोकदार वंशज भी शामिल रहे.
बेहद समृद्ध है गढ़वाल की ऐतिहासिक सभ्यता:देवभूमि उत्तराखंड का इतिहास के झरोखे में गढ़वाल के राजाओं का साम्राज्य बेहद समृद्ध रहा है. दैवीय परंपराओं से ओत-प्रोत खासकर गढ़वाल में टिहरी के महाराजा का शासनकाल कई ऐतिहासिक घटनाओं और सनातनी परंपराओं से जुड़ा हुआ है. आजादी के बाद देश में टिहरी रियासत के विलय कर दिया गया था. जिसके बाद इस राजशाही की तमाम परंपराएं धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है.
वहीं, टिहरी राजवंश से आने वाले कुंवर भवानी प्रताप सिंह ने उन तमाम धरोहरों को संभाल के रखा है, जो कि टिहरी साम्राज्य के समृद्ध इतिहास को जीवंत करते हैं. टिहरी साम्राज्य के दुर्बल हथियारों और धरोहरों के साथ कुंवर भवानी प्रताप सिंह ने उन सैकड़ों थोकदारी गढ़ों के सैन्य ध्वजा व हथियारों को भी संजो कर रखा है, जिन्हें देखने के बाद इस विकट हिमालय की गोद में बसी हजारों साल पुरानी सभ्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है.
शारदीय नवरात्रि की अष्टमी पर होती है सभी दुर्लभ हथियारों की पूजा:टिहरी राजवंश हर साल शारदीय नवरात्रि के अष्टमी के मौके पर शस्त्र पूजा की जाती है. इस दिन राज दरबार में मौजूद सभी दुर्लभ हथियारों के साथ टिहरी राजशाही से जुड़े सभी दुर्लभ प्रतीक चिन्हों की पूजा होती है.
इस दौरान क्षेत्र में मौजूद सभी थोकदार गढ़ों (ठाकुरों के किले) के वंशजों को एक साथ जोड़कर 1300 साल पुरानी परंपरा को निभाते हैं. जो कि राजशाही के दौर से चलती आ रही है. इस मौके पर मां दुर्गा का स्वरूप महाराज राजेश्वरी का पौराणिक अनुष्ठान होता है. इस दौरान सभी थोकदारों को भी राज परिवार की ओर से आमंत्रित किया जाता है.
सबसे पहले चांदपुर गढ़ी से पंवार राजवंश ने शुरू की थी परंपरा:ईटीवी से बातचीत में टिहरी राजपरिवार से आने वाले कुंवर भवानी प्रताप सिंह ने बताया कि अष्टमी पर शस्त्र पूजा की शुरुआत पहली दफा चमोली में मौजूद चांदपुर गड़ी से पंवार वंशज राजा कनकपाल ने की थी. इसके बाद यह परंपरा देवलगढ़ और वहां से श्रीनगर और फिर जब टिहरी में राजधानी बनी तो फिर वहां पर भी लगातार चलती आई.
उन्होंने बताया कि शारदीय नवरात्रि में अष्टमी के दिन राजमहल में सभी अस्त्र और शास्त्रों की पूजा की जाती है. क्योंकि, यह दिन मां काली का माना जाता है. इस दिन पौराणिक काल में नरबलि देने की भी प्रथा थी. उस समय इस अनुष्ठान को बेहद खास माना जाता था.
कई ऐसे वीर सैनिक हुए थे, जो कि अपना बलिदान देते थे. जो इस बलिदान को देता था, उसे बेहद सम्मान और वीर पुरुष के रूप में देखा जाता था. हालांकि, कालांतर के बाद प्रथम बदली और इसके बाद पशु बलि और अब केवल सांकेतिक रूप से इस अनुष्ठान को अंजाम दिया जाता है.