नई दिल्ली:सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को निचली अदालत को गवाहों से जिरह पर नियमित स्थगन देने के प्रति आगाह किया. शीर्ष अदालत ने कहा कि अगर जिरह को नियमित रूप से स्थगित किया जा रहा है तो निष्पक्ष सुनवाई पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. इस बात पर जोर दिया कि जिरह को केवल असाधारण मामलों में ही स्थगित किया जा सकता है. इस कारण को अदालत द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए.
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और राजेश बिंदल की पीठ ने कहा, इस अदालत ने एक से अधिक अवसरों पर ट्रायल कोर्ट की इस प्रथा की निंदा की है, जहां पर्याप्त कारणों के बिना जिरह स्थगित कर दी जाती है. पीठ ने पुलिस थाने के अंदर एक निजी व्यक्ति की हत्या के मामले में दिल्ली पुलिस के कांस्टेबल सुरेंद्र सिंह की दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए यह टिप्पणी की.
पीठ ने कहा, असाधारण मामलों में और अदालत द्वारा दर्ज किए जाने वाले कारणों जैसे कि सीआरपीसी की धारा 231 की उप-धारा 2 के तहत जिरह को स्थगित किया जा सकता है, लेकिन यहां भी स्थगन अधिकार के रूप में नहीं दिया जाना चाहिए. अंततः यह अदालत का विवेक है. मुख्य चश्मदीद गवाह, एक घायल महिला कांस्टेबल से जिरह उसकी मुख्य परीक्षा के दो महीने से अधिक समय बाद की गई. हालांकि, वह अपनी गवाही में दृढ़ रही.
ट्रायल कोर्ट के लिए सावधानी बरतते हुए पीठ ने कहा कि, वर्तमान मामले में मुख्य परीक्षा के बाद लंबी स्थगन अवधि दी गई, जो कभी नहीं होनी चाहिए थी. लेकिन हमारे विचार से इसका मुख्य कारण यह होगा कि इससे मुकदमे की निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है. किसी मामले में गवाह की सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है.
न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा, जिन्होंने पीठ की ओर से निर्णय लिखा, 'केवल बहुत ही असाधारण मामलों में और दर्ज किए जाने वाले कारणों के लिए, जिरह को स्थगित किया जाना चाहिए. यदि आवश्यक हो तो गवाह के लिए सावधानी और देखभाल करने के बाद एक छोटा स्थगन दिया जा सकता है. हम यह टिप्पणी करने के लिए बाध्य हैं क्योंकि हमने देखा है कि मामले दर मामले जिरह को नियमित रूप से स्थगित किया जा रहा है जो निष्पक्ष सुनवाई को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है.
अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि, 30 जून, 2002 को याचिकाकर्ता ने मृतक पर अपनी कार्बाइन से आठ से नौ गोलियां चलाईं क्योंकि वह मृतक से अपनी पत्नी के साथ अवैध संबंध रखने के कारण नाराज था. याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उसने यह कृत्य आत्मरक्षा में किया था तथा यह गंभीर एवं अचानक उकसावे की कार्रवाई थी.
न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा, अभियुक्त/अपीलकर्ता द्वारा आत्मरक्षा का तर्क, मामले के तथ्यों और अभियोजन पक्ष के साक्ष्य के आधार पर, कम से कम बचकाना है. बचाव पक्ष का यह तर्क कि मृतक अपीलकर्ता को मारने के लिए 'निहत्थे' पुलिस स्टेशन आया था, यह अच्छी तरह से जानते हुए कि अपीलकर्ता के पास हथियार है, मृतक को हमलावर के रूप में पेश करने का एक अजीब प्रयास है. इसका कोई मतलब नहीं है. साथ ही उन्होंने कहा कि वर्तमान मामले में हर संभव मामले में यह मामला हत्या के अलावा और कुछ नहीं है.
पीठ ने कहा कि, इस्तेमाल किए गए हथियार की प्रकृति, मृतक पर चलाई गई गोलियों की संख्या और शरीर का वह हिस्सा जहां गोलियां चलाई गई हैं. ये सभी इस बात की ओर इशारा करते हैं कि अपीलकर्ता मृतक को मारने के लिए दृढ़ था. चश्मदीद गवाहों के बयानों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि, यह साबित करता है कि अपीलकर्ता ने गोली चलाने के शुरुआती चरण में ही गोली नहीं चलाई, जिसे उसने बहुत करीब से चलाया था. इसके बजाय, उसने मृतक पर तब भी गोलियां बरसाना जारी रखा जब वह भागने की कोशिश कर रहा था.
पीठ ने कहा, उस समय पुलिस स्टेशन में मौजूद चार पुलिसकर्मियों के प्रत्यक्षदर्शी बयानों से किसी भी संदेह से परे हत्या का मामला स्थापित होता है. सर्वोच्च न्यायालय ने 18 मई, 2011 को पारित उच्च न्यायालय के फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, जिसमें याचिकाकर्ताओं की अपील को खारिज कर दिया गया था. उच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा 302 और 307 के तहत अपराधों के लिए निचली अदालत द्वारा याचिकाकर्ता की दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखा, जिसके लिए उसे क्रमशः आजीवन कारावास और 7 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी. सिंह ने उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया.
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