श्री आनंदपुर साहिब: बैसाखी का पवित्र त्योहार हर साल 13 अप्रैल को मनाया जाता है. इस दिन का ऐतिहासिक महत्व काफी दिलचस्प है. ऐसा माना जाता है कि सिखों के 10वें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह ने इसी दिन खालसा पंथ की स्थापना की थी. नानकशाही कैलेंडर के अनुसार आज खालसा पंथ स्थापना दिवस मनाया जाता है.
इतिहास: श्री आनंदपुर साहिब, खालसा का प्रकटीकरण यह वह स्थान है, जहां साहिबे कमाल श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने वर्ष 1699 के बैसाखी के दिन खालसा पंथ मनाया और पांच प्रियजनों को अमृत छिड़का और सिंह को सजाया. उस दिन से यह खालसा साजना दिवस हर वर्ष मनाया जाता है.
मार्च 1699 से कई महीने पहले, गुरु गोबिंद सिंह जी ने पूरे भारत से अपने अनुयायियों को वैसाखी दिवस 30 मार्च 1699 को आनंदपुर में एक विशेष मण्डली में आमंत्रित किया. परिणामस्वरूप, उस विशेष दिन पर सैकड़ों भक्त और दर्शक आनंदपुर साहिब में एकत्र हुए थे. कई लोग गुरु के प्रति सम्मान प्रकट करने और उनके निमंत्रण के अनुरूप आये थे, जबकि कुछ केवल जिज्ञासावश आये थे. नियत दिन पर गुरु ने अपने विश्वास को बहाल करने और धर्म (धार्मिकता) को संरक्षित करने के अपने दिव्य मिशन पर सबसे प्रेरक भाषण के साथ मंडलियों को संबोधित किया.
अपने प्रेरणादायक प्रवचन के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी कृपाण म्यान से निकाली और चिल्लाकर कहा कि कोई है जो गुरुओं की इच्छाओं और लक्ष्यों के लिए त्याग कर दे. उन्होंने हाथ में नंगी तलवार लेकर कहा मुझे एक सिर चाहिए. क्या तुममें से कोई ऐसा है जो अपने विश्वास के लिए मरने को तैयार हो? जब लोगों ने उनकी पुकार सुनी तो वे अचंभित रह गये. कुछ डगमगाते अनुयायी मण्डली से चले गए, जबकि अन्य आश्चर्य से एक-दूसरे की ओर देखने लगे.
कुछ मिनटों के बाद, लाहौर से दया राम नाम का एक बहादुर सिख खड़ा हुआ और उसने गुरु को अपना सिर अर्पित कर दिया. गुरु उसे पास ही बने एक तंबू में ले गए और कुछ देर बाद खून टपकती तलवार लेकर बाहर आए. सिक्खों ने सोचा कि दया राम मर गए. गुरु ने अपनी मांग दोहराई और एक और सिख को बुलाया जो उनके आदेश पर मरने के लिए तैयार था. इस दूसरी कॉल पर और भी लोग चौंक गए और कुछ भयभीत हो गए. कुछ और ढुलमुल अनुयायियों ने सावधानी से मण्डली से बाहर निकलना शुरू कर दिया.
हालांकि, कई लोगों को झटका तब लगा जब एक और व्यक्ति खड़ा हो गया. दूसरे सिख जिन्होंने खुद का बलिदान दिया वह धरम दास थे. ये अद्भुत प्रसंग यहीं ख़त्म नहीं हुआ. जल्द ही तीन और, मोहकम चंद, साहिब चंद और हिम्मत राय ने गुरु को अपना सिर अर्पित कर दिया. प्रत्येक सिख को तंबू में ले जाया गया और कुछ को हालांकि अब 'थक' की आवाज सुनाई दे रही थी - जैसे कि तलवार सिख की गर्दन पर गिर रही हो.