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उत्तराखंड की इस सीट पर हिमालय पुत्र ने तोड़ा था इंदिरा गांधी का गुरूर, अकेले बहुगुणा से हारी थी पूरी कांग्रेस - History of Garhwal Lok Sabha

History of Garhwal Lok Sabha लोकसभा चुनाव 2024 के कारण उत्तराखंड में चुनावी सरगर्मियां तेज हैं. लिहाजा आज ईटीवी भारत भी आपको उत्तराखंड की एक ऐसी लोकसभा सीट के बारे में बताने जा रहा है, जिसका चुनावी इतिहास अपने आप में काफी रोचक है. यहां साल 1982 में हुए उपचुनाव को तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था. लेकिन वो फिर भी अपने प्रत्याशी को जिता नहीं पाई थीं. निर्दलीय प्रत्याशी से कांग्रेस को हार का मुंह देखना को पड़ा था.

History of Garhwal Lok Sabha
History of Garhwal Lok Sabha

By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : Mar 28, 2024, 1:18 PM IST

Updated : Mar 30, 2024, 3:23 PM IST

उत्तराखंड की गढ़वाल लोकसभा सीट पर हिमालय पुत्र ने तोड़ा था इंदिरा गांधी का गुरूर

देहरादून: लोकसभा चुनाव 2024 बेहद करीब है. आने वाले 19 अप्रैल को उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों पर मतदान होना है. ऐसे में ईटीवी भारत आपके लिए हर सीट से जुड़ी कुछ रोमांचक चुनावी किस्से-कहानियां लेकर आया है. आज बात करेंगे उत्तराखंड की सबसे महत्वपूर्ण कहे जाने वाली गढ़वाल (पौड़ी) लोकसभा सीट की. इस बार गढ़वाल लोकसभा सीट पर भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों की जोरदार टक्कर होने की उम्मीद है, लेकिन इस सीट का सबसे चर्चित मुकाबला इतिहास में दर्ज है. बात साल 1982 की है जब उत्तराखंड (तत्कालीन यूपी) ही नहीं बल्कि पूरे देश का केंद्र बिंदु गढ़वाल लोकसभा सीट बन गई थी. ऐसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की गढ़वाल सीट पर दिलचस्पी के कारण हुआ था.

उत्तराखंड के राजनीतिक जानकार जय सिंह रावत बताते हैं कि तब इंदिरा गांधी ने गढ़वाल सीट को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया था. यहां मुकाबला सीधे हिमालय पुत्र कहे जाने वाले हेमवती नंदन बहुगुणा से था. गढ़वाल लोकसभा सीट कैसे राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बिंदु बनी और इंदिरा गांधी ने इस सीट पर होने वाले चुनाव को क्यों अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ा, इसी के बारे में आज आपको विस्तार से बताते हैं.

लोकसभा चुनाव 2004 को लेकर उत्तराखंड में सबसे कड़ा मुकाबला गढ़वाल सीट पर माना जा रहा है. यहां नरेंद्र मोदी और अमित शाह के करीबी अनिल बलूनी के चुनाव मैदान में होने के कारण भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर है, तो वहीं कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल की लोकप्रियता ने इस मुकाबले को कड़ा कर दिया है. हालांकि यह सीट पहले भी कई बार राष्ट्रीय फलक पर चर्चाओं में रही है. इस सीट पर सबसे चर्चित मुकाबला साल 1982 में हुए उपचुनाव का है.

हिमालय पुत्र ने तोड़ा था इंदिरा गांधी का गुरूर

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बना लिया था प्रतिष्ठा का सवाल: दरअसल, साल 1982 में गढ़वाल लोकसभा सीट पर उपचुनाव करवाए गए थे. तब यहां तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और हिमालय पुत्र हेमवती नंदन बहुगुणा के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई चरम पर दिखाई दी. बकौल जय सिंह रावत, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच वर्चस्व की लड़ाई की शुरुआत साल 1982 के चुनाव से काफी पहले ही शुरू हो गई थी.

संजय गांधी के फैसले के खिलाफ थे बहुगुणा: हेमवती नंदन बहुगुणा का संजय गांधी के फैसलों के खिलाफ जाना इंदिरा गांधी से उनकी दूरियां बढ़ा रहा था. उसी समय संजय गांधी केंद्र से लेकर राज्यों तक की सरकारों में अपना हस्तक्षेप बढ़ा रहे थे. हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा जोशी की किताब में इंदिरा गांधी और हेमवती नंदन बहुगुणा के बीच टकराव के कई किस्से बताए गए हैं. हालांकि हेमवती नंदन बहुगुणा कांग्रेस में रहते हुए तमाम महत्वपूर्ण पदों पर भी रहे.

चुनावी इतिहास के रोचक किस्से...

बहुगुणा की वजह से केके बिड़ला हार गए थे: केंद्रीय मंत्री बनने के अलावा उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री भी बना दिया गया था. इस दौरान रायबरेली सीट पर इंदिरा गांधी के निर्वाचन को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया था. उस दौरान यह माना गया कि हेमवती नंदन बहुगुणा का भी इसमें हाथ रहा. उधर, राज्यसभा सीट के लिए इंदिरा गांधी और संजय गांधी के पसंदीदा केके बिड़ला का हेमवती नंदन बहुगुणा ने खुलकर विरोध किया और इसी वजह से वह राज्यसभा सीट हार गए.

बहुगुणा ने 1975 में आपातकाल का विरोध किया था: इसके बाद 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की तो भी हेमवती नंदन बहुगुणा ने इसका विरोध भी किया. इसके बाद हेमवती नंदन बहुगुणा को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा और फिर हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस पार्टी को भी छोड़ने का फैसला ले लिया.

साल 1980 में फिर से कांग्रेस में शामिल हुए: हालांकि 1980 के आम चुनाव से ठीक पहले हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस में वापसी की और वो लोकसभा चुनाव जीतकर संसद भी पहुंच गए, लेकिन इंदिरा गांधी और संजय गांधी के फैसलों के खिलाफ उनका विरोध जारी रहा.

अकेले बहुगुणा से हारी थी पूरी कांग्रेस

1981 में फिर से कांग्रेस छोड़ी: रावत बताते हैं कि, इसके बाद भी कांग्रेस में हेमवती नंदन बहुगुणा की दाल नहीं गली और उन्होंने 1981 में फिर से कांग्रेस छोड़ दी. कांग्रेस छोड़ने के साथ ही बहुगुणा ने संसद की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया. रीता बहुगुणा जोशी ने अपनी किताब (हेमवती नंदन बहुगुणा- भारतीय जन चेतना के संवाहक) में लिखा है कि लोकसभा सीट से इस्तीफा देने के कारण गढ़वाल लोकसभा सीट पर साल 1982 में उपचुनाव कराए गए और तब वह चुनाव राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र रहा.

बहुगुणा ने साल 1982 का उपचुनाव लड़ा: इस चुनाव में एक तरफ हेमवती नंदन बहुगुणा चुनाव मैदान में थे तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मंत्री चंद्र मोहन नेगी को अपना प्रत्याशी बनाया था. कहा जाता है कि उस दौरान उपचुनाव में प्रधानमंत्री का चुनावी प्रचार प्रसार के लिए आने का कोई उदाहरण नहीं था, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस उपचुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से इस कदर जोड़ लिया था कि उन्होंने यहां गढ़वाल लोकसभा सीट उपचुनाव में जमकर पसीना बहाया और चुनाव प्रचार प्रसार के लिए कई दौरे किए.

बहुगुणा को हराने में कांग्रेस ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था: उस दौरान इस चुनाव को करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक जानकार जय सिंह रावत बताते हैं कि आधिकारिक रूप से इंदिरा गांधी ने 4 सभाएं की थीं. इतना ही नहीं, कई राज्यों के मुख्यमंत्री चुनाव के लिए गढ़वाल लोकसभा सीट में ही डट गए थे. इसके अलावा केंद्रीय मंत्रिमंडल के अधिकतर मंत्री भी गढ़वाल लोकसभा सीट में उपचुनाव के लिए प्रचार प्रसार कर रहे थे.

गढ़वाल सीट में इंदिरा गांधी वर्सेस पहाड़ के बीच हुआ मुकाबला: वैसे तो प्रत्याशी के रूप में यह मुकाबला हेमवती नंदन बहुगुणा और कांग्रेस के चंद्र मोहन सिंह नेगी के बीच था, लेकिन कहा जाता है कि हकीकत में यह चुनाव सीधे इंदिरा गांधी ही लड़ रही थीं.

जानकार कहते हैं कि, उस दौरान हेमवती नंदन बहुगुणा ने तमाम सभाओं में अपनी मार्मिक अपील से इस चुनाव को इंदिरा गांधी वर्सेस पहाड़ के रूप में बदल दिया था. हेमवती नंदन बहुगुणा ने चुनावी सभा में अपने एक बयान से माहौल को बदल दिया था. उनका कहना था कि "इस चुनाव को इंदिरा गांधी किसी भी हाल में उन्हें जीतने नहीं देंगी, लेकिन उन्हें यकीन है कि गढ़वाल की जनता यह चुनाव उन्हें नहीं हारने देगी"

चुनावी घमासान के बीच कभी चुनाव रद्द हुए तो कभी बदली गयी तारीख: गढ़वाल लोकसभा सीट के उपचुनाव में चुनावी घमासान इस कदर बढ़ चुका था कि यहां बूथ कैपचरिंग जैसी शिकायतें भी आने लगी थी. सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग को लेकर भी हेमवती नंदन बहुगुणा और उनके साथी केंद्र सरकार पर आरोप लगा रहे थे. इतना ही नहीं हरियाणा पुलिस की गढ़वाल सीट पर मौजूदगी से हर कोई हैरान था.

कई जगह हरियाणा पुलिस और लोगों के बीच मुठभेड़ हो रही थी. इसके बाद तत्कालीन गढ़वाल के जिलाधिकारी की रिपोर्ट पर निर्वाचन आयोग ने 1981 में उपचुनाव को रद्द कर दिया. यही नहीं, लगातार हो रही ऐसी घटनाओं के कारण दो बार चुनाव की तारीख भी बदली गई. अंततः 1982 में चुनाव संपन्न कराए गए और हेमवती नंदन बहुगुणा ने बड़े मार्जिन से कांग्रेस के प्रत्याशी चंद्र मोहन सिंह नेगी को हरा दिया.

उस दौरान इस चुनाव को नजदीक से देखने वाले राज्य आंदोलनकारी विवेकानंद खंडूड़ी बताते हैं कि, तब इंदिरा गांधी कई बार जनसभाओं से हटकर गढ़वाल सीट के तमाम क्षेत्रों में देखी गईं और वह अक्सर खुद गढ़वाल सीट पर चुनावी हाल को देखने के लिए मॉनिटरिंग के मकसद से पहुंचती थीं. गांधी परिवार के कई सदस्य देहरादून में ही अपनी शिक्षा ग्रहण कर चुके थे और अक्सर गांधी परिवार का देहरादून में आना-जाना भी था. लिहाजा चुनावी जनसभाओं में इंदिरा गांधी अपने गढ़वाल कनेक्शन को जाहिर कर चुनाव में इसका लाभ लेने का भी प्रयास करती दिखी थीं.

हैरान करता रहा है गढ़वाल की जनता का फैसला: गढ़वाल लोकसभा सीट पर अक्सर गढ़वाल की जनता का फैसला सभी को हैरान करता रहा है. कांग्रेस का गढ़ मानी जाने वाली गढ़वाल लोकसभा सीट पर हेमवती नंदन बहुगुणा का जीतना इसका सबसे बड़ा सबूत था.

उधर, जब देश में कांग्रेस अपनी सरकार बना रही थी, तब भी इस सीट पर भाजपा के प्रत्याशी लगातार चुनाव जीतते रहे. हालांकि, अब चुनाव में आए बदलाव के बाद स्थितियों में भी काफी परिवर्तन होने लगा है. राज्य आंदोलनकारी विवेकानंद खंडूड़ी कहते हैं कि पहले चुनाव फील्ड वर्कर के जरिए लड़े जाते थे और प्रत्याशी अपनी ताकत से चुनाव को जीतते थे. अब स्थितियां बदल गई हैं और प्रत्याशी अब पार्टियों की हवा से जीतते हैं.

तब भी हुई थी गढ़वाल सीट पर जाति की राजनीति: 1982 के चुनाव में जब इंदिरा गांधी इस चुनाव को हर हालत में जीतना चाहती थीं और हेमवती नंदन बहुगुणा चुनाव जीतकर अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा को बनाए रखना चाहते थे, तब भी गढ़वाल सीट पर जातिगत राजनीति को हथियार बनाया गया था.

उस चुनाव को देखने वाले कहते हैं कि उस दौरान हेमवती नंदन बहुगुणा एक बड़ा ब्राह्मण चेहरा थे, तो वही चंद्र मोहन सिंह नेगी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री होने के कारण एक ठाकुर राजनेता के रूप में स्थापित थे. गढ़वाल सीट पर ब्राह्मण मतदाताओं की तुलना में ठाकुर मतदाताओं की संख्या अधिक है. लिहाजा इस दौरान जातिगत कार्ड खेल कर भी चंद्र मोहन सिंह नेगी को जिताने की कोशिश की गई थी. लेकिन गढ़वाल की जनता ने जातिगत राजनीति से ऊपर पहाड़ की अस्मिता को तवज्जो दी थी.

चमोली जिले से मिले थे सबसे ज्यादा वोट: जानकार कहते हैं कि हेमवती नंदन बहुगुणा का राष्ट्रीय राजनीति में जो कद था, उसको देखते हुए गढ़वाल की जनता ने गढ़वाल के एक राष्ट्रीय नेता को जिताने की ठान ली थी. चमोली जिले से सबसे ज्यादा वोट पाकर हेमवती नंदन बहुगुणा ने इस जीत को हासिल किया था.

एक नारे ने बदल दिया था चुनाव: उस दौरान हेमवती नंदन बहुगुणा के लिए एक नारे ने भी माहौल को बदलने का काम किया. लोगों ने नारा दिया "गढ़वाल का चंदन हेमवती नंदन" और इसी के साथ कई दूसरे नारे भी इसमें जुड़ते गए, जिसके बाद यह लड़ाई गढ़वाल वर्सेस बाहरी की बन गई.

गढ़वाल लोकसभा सीट पर दिया जा रहा गढ़वाल वर्सेज बाहरी का रंग: लोकसभा चुनाव के दौरान गढ़वाल लोकसभा सीट पर इस बार भी कुछ ऐसा ही रंग दिया जा रहा है. राष्ट्रीय राजनीति में दिखने वाले अनिल बलूनी के कारण यह सीट बीजेपी की प्रतिष्ठा का सवाल बनी हुई है. इस सीट पर स्मृति ईरानी के अलावा कई मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय मंत्रियों के प्रचार के लिए आने की संभावना है. उधर गणेश गोदियाल ने इस चुनाव को गढ़वाल वर्सेस बाहरी का रंग देना शुरू कर दिया है. चुनाव प्रचार के दौरान अनिल बलूनी को दिल्ली वाला बताकर चुनाव की हवा मोड़ने के प्रयास भी हो रहे हैं. हालांकि अनिल बलूनी भी इस दांव पर अपना जवाब तैयार कर रहे हैं, ताकि इसका भरसक जवाब दिया जा सके.

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Last Updated : Mar 30, 2024, 3:23 PM IST

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