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مرزاغالب کا یوم پیدائش: غالب کی حویلی کا ایک جائزہ

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Published : Dec 27, 2019, 5:15 PM IST

مشہور شاعر اور ادب اردو کی آبرو مرزا اسداللہ خاں غالب کی 222 ویں سالگرہ کے موقع پر ای ٹی وی بھارت کے نمائندے نے غالب کی حویلی کا دورہ کیا، جس حویلی کو ادب کی دنیا میں ایک اہم اور اعلیٰ مقام حاصل ہے۔

Know the condition of Ghalib Ki Haveli on the birth anniversary of Mirza Ghalib
غالب کی حویلی تصویروں کی زبانی

اردو ادب کے مشہور معروف شاعر مرزا اسد اللہ خاں غالب کے 222 ویں سالگرہ پر پوری دنیا انکو شعرو شاعری کے ذریعہ یاد کررہی ہیں۔ لیکن ای ٹی وی بھارت کے نمائندے نے مرزاغالب کی حویلی کا دورہ کرکے غالب کی وراثت کو لوگوں تک پہنچانے کی کوشش کی۔

مرزا غالب کی حویلی پرانی دہلی کے بلی ماران کی گلی قاسم جان میں واقع ہے، لیکن افسوس کی بات یہ کہ اس گلی میں کوئی بھی ایسے نشانات نہیں ہیں جوغالب کی حویلی کی صحیح رہنمائی کر سکے۔

غالب کی حویلی تصویروں کی زبانی
اگر کوئی اجنبی شخص اس حویلی کے پاس گزرتا ہے تو اسے اندازہ تک نہیں ہوسکتا کہ وہ دہلی کے ایک ادبی شخصیت کے وراثت کے قریب سے غزر رہا ہے۔ کسی عام گھر کے مانند ایک نام پلیٹ لگا ہوا ہے جس سے پتہ چلتا ہے کہ یہ غالب کی حویلی ہے۔

اس حویلی کو غالب کی شناخت سے جوڑنے میں مشہور شاعر اور ادیب گلزار نے اہم کردار ادا کیا ہے، حویلی میں جہاں غالب کا مجسمہ لگایا گیا ہے وہیں دوسری طرف اس مجسمے کی ارد گرد غالب کا دیوان، اشعار، تصویروں اور اس کے کچھ کپڑوں سے مزین ہے۔

واضح رہے کہ اٹھارویں صدی کے اواخر میں غالب کی پیدائش 27 دسمبر 1797 میں آگرہ کے عبداللہ بیگ کے گھر ہوتی ہے اور اردو کا یہ عظیم شاعر 15 فروری 1869 میں اس دنیا کو پرانی دہلی کی گلی قاسم جان، محلہ بلی ماراں میں خیرآباد کہہ دیتا ہے۔

اردو ادب کے مشہور معروف شاعر مرزا اسد اللہ خاں غالب کے 222 ویں سالگرہ پر پوری دنیا انکو شعرو شاعری کے ذریعہ یاد کررہی ہیں۔ لیکن ای ٹی وی بھارت کے نمائندے نے مرزاغالب کی حویلی کا دورہ کرکے غالب کی وراثت کو لوگوں تک پہنچانے کی کوشش کی۔

مرزا غالب کی حویلی پرانی دہلی کے بلی ماران کی گلی قاسم جان میں واقع ہے، لیکن افسوس کی بات یہ کہ اس گلی میں کوئی بھی ایسے نشانات نہیں ہیں جوغالب کی حویلی کی صحیح رہنمائی کر سکے۔

غالب کی حویلی تصویروں کی زبانی
اگر کوئی اجنبی شخص اس حویلی کے پاس گزرتا ہے تو اسے اندازہ تک نہیں ہوسکتا کہ وہ دہلی کے ایک ادبی شخصیت کے وراثت کے قریب سے غزر رہا ہے۔ کسی عام گھر کے مانند ایک نام پلیٹ لگا ہوا ہے جس سے پتہ چلتا ہے کہ یہ غالب کی حویلی ہے۔

اس حویلی کو غالب کی شناخت سے جوڑنے میں مشہور شاعر اور ادیب گلزار نے اہم کردار ادا کیا ہے، حویلی میں جہاں غالب کا مجسمہ لگایا گیا ہے وہیں دوسری طرف اس مجسمے کی ارد گرد غالب کا دیوان، اشعار، تصویروں اور اس کے کچھ کپڑوں سے مزین ہے۔

واضح رہے کہ اٹھارویں صدی کے اواخر میں غالب کی پیدائش 27 دسمبر 1797 میں آگرہ کے عبداللہ بیگ کے گھر ہوتی ہے اور اردو کا یہ عظیم شاعر 15 فروری 1869 میں اس دنیا کو پرانی دہلی کی گلی قاسم جان، محلہ بلی ماراں میں خیرآباد کہہ دیتا ہے۔

Intro:आज ग़ालिब की जयंती है और इस मौके पर हम आपको ले चल रहे हैं बल्लीमारान स्थित ग़ालिब की उस हवेली में, जहां पर ग़ालिब ने अपनी जिंदगी के करीब पांच दशक गुजारे और यहीं पर अंतिम सांस ली.


Body:नई दिल्ली: गालिब की जब भी बात होती है, तो सिर्फ शेर-ओ-शायरी पर ही चर्चा नहीं होती, दिल्ली का भी जिक्र आ ही जाता है. अदब की दुनिया में गालिब की चर्चा के बिना दिल्ली की चर्चा संभव ही नहीं. लेकिन ग़ालिब से जुड़ी अपनी इस अतुलनीय विरासत को दिल्ली ने वर्तमान में कितना अपनाया है, यह जानना भी जरूरी है.

गलियों में नहीं हैं ग़ालिब के निशान

पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान की गली कासिम जान में है ग़ालिब की हवेली. बल्लीमारान में घूमते हुए अगर आप खुद से ग़ालिब की हवेली ढूंढना चाहें, तो शायद बहुत मुश्किल हो, क्योंकि यहां मुख्य सड़क पर ऐसा कोई निशान नहीं, जो आपको ग़ालिब की हवेली तक पहुंचा दे. पूछने पर लोग बताते तो हैं, लेकिन उस बताने में भी वो अहसास नहीं होता, जो ग़ालिब को लेकर होना चाहिए।

एक नेम प्लेट में दर्ज है हवेली की पहचान

गली कासिम जान में भी ऐसी कोई विशेष व्यवस्था नहीं है. ग़ालिब की हवेली की पहचान को लेकर अगर आप यहां अजनबी हों, तो हवेली के सामने से गुजर भी जाएंगे और पता नहीं चलेगा कि आपने दिल्ली से जुड़ी एक अदबी विरासत के स्मारक को पार कर लिया है. किसी आम घर की दीवार पर नेम प्लेट की तरह चिपका है, गालिब की हवेली के सामने गालिब का पता. लेकिन इससे भी ज्यादा निराशा होती है, जब हम उसके अंदर जाते हैं.

अतिक्रमण से जूझ रही हवेली

ग़ालिब की हवेली अतिक्रमण से जूझ रही है. हवेली के अहाते में ही बेतरतीब से खड़ी बाइक दिखतीं हैं और उस पर पड़े धूल बताते हैं कि वो कितने दिनों से वहां पर रखी गई हैं. ग़ालिब की हवेली के सामने एक गार्ड की ड्यूटी है, लेकिन वहां कुछ देर रुकने पर पता चलता है कि उस गार्ड का काम हवेली की देखरेख से ज्यादा, हवेली के भीतर की दुकानों के लिए काम करना है. यही सब कहते हैं, गालिब की हवेली की बेतरतीब की कहानियां.

गुलज़ार ने लगवाई है ग़ालिब की मूर्ति

ग़ालिब की हवेली को ग़ालिब की पहचान से वर्तमान में जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, शायर और लेखक गुलज़ार ने. उनकी तरफ से यहां ग़ालिब की एक मूर्ति लगाई गई है और उसी के इर्द-गिर्द ग़ालिब के दीवान, तस्वीरों से सजे उनके शेर और उनके कुछ कपड़े रखे हुए हैं. वही एक दूसरे कमरे में भी ग़ालिब की कुछ छोटी-छोटी मूर्तियां हैं और उनके शेरों को दीवार पर सजा कर लगाया गया है.


Conclusion:ख़ाक हो रही ग़ालिब की पहचान

गौर करने वाली बात यह भी है कि ग़ालिब की हवेली के बगल में रहने वाले बच्चों को भी ग़ालिब के शेर ठीक से याद नहीं. कुल मिलाकर इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय अभी बल्लीमारान की गलियों में धूल फांक रहा है और ग़ालिब का ही एक शेर अपनी सार्थकता के दुर्भाग्य को प्राप्त हो रहा है कि

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन
खाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक।
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