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उत्तरकाशी में 34 साल बाद फिर शुरू हुई माता को विदा करने की परंपरा, महामारी से मिलती है मुक्ति

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Published : May 20, 2023, 6:19 PM IST

उत्तरकाशी के संग्राली, पाटा और बग्याल गांव में 34 साल बाद फिर से माता को विदा करने की परंपरा शुरू हो गई. मान्यता है कि ऐसा करने से गांव में दस साल तक महामारी का प्रकोप नहीं होता है.

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उत्तरकाशी: बाड़ाहाट क्षेत्र के संग्राली, पाटा और बग्याल गांव में माता को विदा करने की परंपरा 34 वर्ष बाद फिर से शुरू की गई. क्षेत्र के आराध्य देव कंडार देवता की देव डोली के सानिध्य में माता की एक छोटी सी डोली बनाई जाती है. डोली की विशेष पूजा अर्चना के बाद तीनों गांव के बाहर छोड़ दिया जाता है. कहा जाता है कि ऐसा करने से गांव में कम से कम दस साल तक मनुष्यों और मवेशियों पर किसी महामारी का प्रकोप नहीं होता है.

उत्तराखंड की देवभूमि में देवडोलियों की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है. यहां आज भी बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान देव डोलियां करती हैं. संग्राली सहित पाटा, बग्याल गांव में माता को विदा करने की परंपरा को 34 वर्ष बाद ग्रामीणों ने दोबारा शुरु किया है. ग्रामीण हंसराज चौहान, पंडित विजय लाल नैथानी ने बताया कि पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में खसरा, हैजा सहित मवेशियों पर खुरपा जैसी महामारियों का प्रकोप होता था. इन बिमारियों को उस समय माता कहा जाता था. इससे बचने के लिए कंडार देवता की देव डोली के सानिध्य में माता की एक छोटी सी डोली बनाई जाती थी. पंचायती चौके में विशेष पूजा अर्चना के बाद माता की डोली को गांव के बाहर सीमा पार छोड़ दिया जाता था. इसी पंरपरा को दोबारा शुरू किया गया है.

कंडार देवता की डोली ने गांव के चारों तरफ सीमाओं को बांधा. उसके बाद ग्रामीणों ने माता की डोली को श्रीफल आदि के साथ सीमा के बाहर पूजा पाठ कर छोड़ आए. उन्होंने बताया कि इन दिनों गांवों में पशुओं में बीमारी का प्रकोप है. इसलिए इस परंपरा को दोबारा शुरू किया गया. बुजुर्गों का कहना है कि उन्होंने प्रत्यक्ष प्रमाण देखे हैं कि इस पंरपरा को निभाने के बाद गांव में कम से कम दस वर्ष तक किसी महामारी का प्रकोप नहीं होता है.

ये भी पढ़ेंः श्रद्धालुओं के लिए खुले हेमकुंड साहिब-लोकपाल लक्ष्मण मंदिर के कपाट, पहले दिन 2000 यात्री बने पावन पल के साक्षी

उत्तरकाशी: बाड़ाहाट क्षेत्र के संग्राली, पाटा और बग्याल गांव में माता को विदा करने की परंपरा 34 वर्ष बाद फिर से शुरू की गई. क्षेत्र के आराध्य देव कंडार देवता की देव डोली के सानिध्य में माता की एक छोटी सी डोली बनाई जाती है. डोली की विशेष पूजा अर्चना के बाद तीनों गांव के बाहर छोड़ दिया जाता है. कहा जाता है कि ऐसा करने से गांव में कम से कम दस साल तक मनुष्यों और मवेशियों पर किसी महामारी का प्रकोप नहीं होता है.

उत्तराखंड की देवभूमि में देवडोलियों की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है. यहां आज भी बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान देव डोलियां करती हैं. संग्राली सहित पाटा, बग्याल गांव में माता को विदा करने की परंपरा को 34 वर्ष बाद ग्रामीणों ने दोबारा शुरु किया है. ग्रामीण हंसराज चौहान, पंडित विजय लाल नैथानी ने बताया कि पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में खसरा, हैजा सहित मवेशियों पर खुरपा जैसी महामारियों का प्रकोप होता था. इन बिमारियों को उस समय माता कहा जाता था. इससे बचने के लिए कंडार देवता की देव डोली के सानिध्य में माता की एक छोटी सी डोली बनाई जाती थी. पंचायती चौके में विशेष पूजा अर्चना के बाद माता की डोली को गांव के बाहर सीमा पार छोड़ दिया जाता था. इसी पंरपरा को दोबारा शुरू किया गया है.

कंडार देवता की डोली ने गांव के चारों तरफ सीमाओं को बांधा. उसके बाद ग्रामीणों ने माता की डोली को श्रीफल आदि के साथ सीमा के बाहर पूजा पाठ कर छोड़ आए. उन्होंने बताया कि इन दिनों गांवों में पशुओं में बीमारी का प्रकोप है. इसलिए इस परंपरा को दोबारा शुरू किया गया. बुजुर्गों का कहना है कि उन्होंने प्रत्यक्ष प्रमाण देखे हैं कि इस पंरपरा को निभाने के बाद गांव में कम से कम दस वर्ष तक किसी महामारी का प्रकोप नहीं होता है.

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