उत्तरकाशी: गाड़-गदेरों के किनारे बने घराट पहाड़ के जीवन का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे. पुराने लोग घराट से पिसे मंडुवे का ही भोजन करते थे. पहाड़ों के बुजुर्ग आज भी कहते हैं कि वह कोदे की रोटी खाकर (मंडुवे की रोटी) ही जिंदा हैं. आज पहाड़ की यह समृद्ध परंपरा कहीं विलुप्त सी होती जा रही है. फिर भी पहाड़ में कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्होंने घराट की परंपरा को वर्षों से संजोया है. डुंडा ब्लॉक के गेंवला गांव के चंद्रशेखर चमोली इन्हीं में से एक हैं. चमोली 25 सालों से लगातार घराट से पिसे मंडुवे के आटे के बिस्कुट तैयार कर रहे हैं. साथ ही वे इससे 10 परिवारों को भी रोजगार दे रहे हैं.
गेंवला गांव के 54 वर्षीय चंद्रशेखर चमोली ने ईटीवी भारत से खास-बातचीत करते हुए बताया कि वह 25 सालों से घराट चला रहे हैं. कुछ साल पहले उन्हें उरेडा की और से पनचक्की की सहायत दी गई थी. लेकिन उसके बाद भी उन्होंने घराट नहीं छोड़ा. चमोली बताते हैं कि उनके घरवालों ने उन्हें पंडिताई करने का सुझाव दिया था. मगर उन्होंने कुछ अलग करने की ठानी.
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जिसेक बाद चन्द्रशेखर चमोली ने घराट पर काम करना शुरू किया. चन्द्रशेखर चमोली घराट पर मंडुवे सहित स्थानीय उत्पाद चौंसा, झंगोरा भी पिसते हैं. चमोली ने बताया कि 25 साल घराट पर काम करने के बाद उन्हें इस लॉकडाउन में एक नया ही विचार आया. जिसके बाद उन्होंने घराट में पिसे मंडुवे के आटे से बिस्कुट बनाने का काम शुरू किया.
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इसके लिए चन्द्रशेखर चमोली ने गांव के प्रोफेसर महेन्द्रपाल परमार से ओवन मशीन ली. जिसके बाद बेटी ने मोबाइल तकनीक का प्रयोग कर यूट्यूब आदि से बिस्कुट तैयार करने की विधि सीखी. जिसके बाद धीरे-धीरे उनका यह अभिनव प्रयास मूर्त रूप लेता चला गया. चमोली का कहना है कि अभी शुरुआती दौर में वह घराट से पिसे मंडवे के करीब 5 से 10 किलो बिस्कुट तैयार करते हैं. इसके लिए अभी से डिमांड भी आने लगी है. उन्होंने कहा आगे डिमांड आने पर ये मात्रा बढ़ाई जाएगी. साथ ही उनके इस काम से गांव के 10 परिवारों को भी रोजगार मिला है.