टिहरी: नवरात्रि के मौके पर विभिन्न मंदिरों में देवी पूजन के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ रही है. इसी कड़ी में टिहरी के प्रसिद्ध मां राजराजेश्वरी मंदिर में भी भक्तों की भीड़ देखी जा रही है. मां राजराजेश्वरी मंदिर में दूर-दराज से अधिक संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते हैं. कहा जाता है कि मां राजराजेश्वरी टिहरी राजपरिवार की कुलदेवी हैं. इसके बावजूद यहां सड़क और पानी की कोई सुविधा नहीं है, जिस कारण श्रद्धालुओं को परेशानी होती है.
बता दें कि, मां राजराजेश्वरी का मंदिर बालखिल्य पर्वत की सीमा में मणि द्वीप आश्रम में स्थित है जो कि बासर, केमर, भिलंग एवं गोनगढ़ के केन्द्रस्थल में चमियाला से 15 किमी और मांदरा से 2 किमी की दूरी पर रमणिक पर्वत पर स्थित है. मां राजराजेश्वरी का पावन शक्तिपीठ इसी हिमालय पर्वत पर स्थित है. श्रीमुख पर्वत, बालखिल्य पर्वत, वारणावत पर्वत और श्रीक्षेत्र के अंतर्गत मां राजराजेश्वरी के परमधाम का वर्णन मिलता है.
मंदिर के मुख्य पुजारी देवेश्वर प्रसाद नौटियाल ने बताया कि देवासुर संग्राम के समय आकाश मार्ग से गमन करते समय मां दुर्गा का खड्ग चुलागढ़ की पहाड़ी पर गिरा था. भारतीय पुरातत्व विभाग के अनुसार यह 'शक्ति शस्त्र' लाखों वर्ष पुराना है जो कि मंदिर के गर्भगृह में विद्यमान है. टिहरी रियासत के दौरान यहां पर एक पत्थर मिला था जिसकी पुष्टि संवत् 909 से संबंध थी. मां राजराजेश्वरी दस 'महाविद्या' में से एक 'त्रिपुर सुंदरी' का स्वरूप हैं. मां राजराजेश्वरी टिहरी रियासत के राजवंश द्वारा पूजी जाती थीं. कनक वंश के राजा सत्यसिंध (छत्रपति) ने 14वीं शताब्दी में मां राजराजेश्वरी मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था.
स्कंदपुराण में यह उल्लेख मिलता है कि एक बार जब पृथ्वी पर अवश्रण हुआ तो ब्रह्मा ने इसी देव भूमि में आकर मां राजराजेश्वरी का स्तवन किया.
स्कन्दपुराण में निम्न उल्लेख है कि
शिवां सरस्वती लक्ष्मी, सिद्धि बुद्धि महोत्सवा।
केदारवास सुंभंगा बद्रीवास सुप्रियम।।
राज राजेश्वरी देवी सृष्टि संहार कारिणीम।
माया मायास्थितां वामा, वाम शक्ति मनोहराम।।
राजा सत्यसिन्ध (छत्रपति) की राजधानी छतियारा थी जो कि चूलागढ़ से मात्र 6 किमी पर स्थित है. राजा सत्यसिन्ध ने चूलागढ़ में मां राजराजेश्वरी की उपासना की जिसकी राजधानी के ध्वंसावशेष आज भी छतियारा के नजदीक देखने को मिलते हैं. पंवार वंशीय शासक अजयपाल का यहां गढ़ होने का प्रमाण मिलता है.
चूलागढ़ पर्वत से खैट पर्वत, यज्ञकुट पर्वत, भैरवचट्टी पर्वत, हटकुणी और भृगु पर्वत का निकटता से दृष्यावलोकन किया जा सकता है. मां राजराजेश्वरी मंदिर से थोड़ी दूरी पर "गज का चबूतरा" नामक स्थल है जहां पर राजा की कचहरी लगती थी. इसके नजदीक ही राजमहल और सामंतों के निवास थे. जिनके ध्वंशावशेष यहां बिखरे पड़े हैं.
गढ़पति ने पानी की व्यवस्था एवं सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मंदिर से दो किलोमीटर लंबी सुरंग जमीन के अंदर खुदवाई थी, जो मंदिर के नीचे बहने वाली बालगंगा तक जाती थी. इसमें जगह-जगह पत्थर के दीपक विद्यमान थे. जिनसे सुरंग में रोशनी जाती थी. सुरंग में जाने के लिए पत्थर की सीढ़ियां बनी हुई थी. अभी यह सुरंग बंद पड़ी हुई है.
मंदिर में पूजा दो रावल (पुजारी) द्वारा की जा रही है, जो गांव 'मान्द्रा' के नौटियाल वंशीय परिवारों के हैं. रावल की सहायता के लिए महाराजा टिहरी ने केपार्स एवं गडारा के चौहान परिवारों को गजवाण गांव में जमीन गूंठ में दान दी हुई है. जो भगवती के नाम से आज भी विद्यमान है.
मंदिर में नवरात्रों में सेवा कार्य केपार्स और गडारा गांवों के 'चौहान' परिवारों द्वारा किया जाता है. मंदिर में नवरात्रि, पूजन एवं जात के दौरान छतियारा के 'गड़वे' (माता के दास) द्वारा ढोल, दमांऊ बजाया जाता है. इन्हें भी महाराजा द्वारा भरण पोषण हेतु जमीन दान दी हुई है. वहीं, प्रत्येक नवरात्र में मंदिर से टिहरी नरेश के लिए हरियाली भी भेजी जाती थी. ऐसे में मंदिर पुजारियों ने भी सरकार से मंदिर तक सड़क निर्माण और सुरंग खुलवाने की मांग की है.
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स्थानीय जनप्रतिनिधियों और आम जनता का कहना है कि प्रदेश सरकार और पर्यटन विभाग इस मंदिर की अनदेखी कर रहा है. स्थानीय लोगों ने मंदिर तक सड़क निर्माण की मांग की है. उन्होंने साथ ही मंदिर से बालगंगा नदी तक की सुरंग को भी खोलने को कहा है, जिससे यहां पर श्रद्धालुओं और पर्यटकों की संख्या में इजाफा होगा. वहीं, स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा और क्षेत्र से हो रहे पलायन पर रोक लगेगी.
क्षेत्रीय विधायक शक्ति लाल शाह ने कहा कि बहुत जल्द राजराजेश्वरी मंदिर तक सड़क निर्माण का कार्य शुरू हो जाएगा. जिससे यहां के विकास में तेजी आएगी. मां राजराजेश्वरी मंदिर में प्रत्येक नवरात्रों में पूजा अर्चना की जाती है. यहां दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं और अपनी मुराद मांगते हैं और मां का आशीर्वाद लेते हैं.