रुद्रप्रयाग: जखोली ब्लॉक के पूर्वी बांगर में प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अनंत चतुर्दशी को भगवान नागनाथ घुणेश्वर महाराज दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए तर्पण करते हैं. यह परंपरा सदियों से निभाई जा रही है. बीते वर्षों में इस दिन यहां मेले का आयोजन भी होता था, जिसे तोषी मेला कहा जाता है. कोरोना काल के कारण दो वर्ष से यहां तोषी मेला का आयोजन नहीं हो रहा है.
पूर्वी बांगर के डांगी, बक्सीर, भुनालगांव, खोड़, मथ्यागांव और उछोला के आराध्य भगवान नागनाथ घुणेश्वर महाराज का विशेष धार्मिक महत्व है. डांगी गांव में आराध्य का पौराणिक मंदिर है. यहां पितृपक्ष में स्वयं घुणेश्वर भगवान दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए तर्पण करते हैं. अनंत चतुर्दशी को मंदिर के गर्भगृह में पूजा-अर्चना होती है. इसी दौरान आराध्य अपने पश्वा पर अवतरित होते हैं और चांदी की थाल में जौ, तिल, गाय के दूध व पानी से दिवंगत आत्माओं का तर्पण करते हैं.
मंदिर के मुख्य सहयोगी गोविंद राम ध्यानी, सूर्यमणि ध्यानी, क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि प्रदीप राणा, ओपी ध्यानी, मंगल सिंह नेगी, सज्जन सिंह नेगी, कैलाश बैरवाण, पूर्वी बांगर विकास समिति अध्यक्ष आरती भंडारी, एसएस भंडारी, रमेश भट्ट, पूर्व प्रधान उमेद सिंह नेगी, नवीन सेमवाल का कहना है कि भगवान द्वारा दिवंगत आत्माओं को तर्पण देने के कुछ समय बाद ही बारिश हो जाती है. इससे पूरा वातावरण शुद्ध हो जाता है.
नागनाथ भगवान के दर्शन कर मिलती है ऊर्जा: उत्तराखंड क्रांति दल के युवा नेता मोहित डिमरी ने कहा कि नागनाथ भगवान की शरण में आते हैं तो उन्हें ऊर्जा मिलती है. उन्होंने नागनाथ भगवान से सभी क्षेत्रवासियों की खुशहाली और समृद्धि की कामना की. उन्होंने कहा कि मान्यता है कि जब पाण्डव जुए में अपना सारा राजपाट हारकर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी. धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया और अनन्त सूत्र धारण किया. अनन्त चतुर्दशी-व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए.
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यह है तर्पण देने को लेकर मान्यता: मान्यता है कि क्षेत्र में एक ग्रामीण जिसका नाम मगरू मेतवाल था, उसकी एक गाय थी. यह गाय प्रतिदिन जंगल में एक स्थान पर दूध चढ़ाती थी. एक दिन मगरू गाय का पीछा करते हुए वह वहां पहुंचा, जहां पर वह गाय अपना दूध चढ़ाती थी. उसने कुल्हाड़ी से उस स्थान पर प्रहार किया तो गाय अदृश्य हो गई और वहां पर खंडित शिवलिंग प्रकट हो गया.
इसके बाद ग्रामीण ने गो हत्या से मुक्ति के लिए शिव मंदिर बनाने का काम शुरू किया. लेकिन कई बार के प्रयास के बाद भी मंदिर की नींव ढहती गई. इस पर मगरू ने देवता को खुश करने के लिए अपने बेटे-बहू की बलि दे दी. जिसके बाद मंदिर निर्माण पूरा हो पाया. मगरू की समर्पण भावना देखकर भगवान शिव प्रसन्न हुए और स्वयं उसके बेटे व बहू की आत्मा की शांति के लिए मौके पर ही गाय के दूध, जल व जौ-तिल से तर्पण देते हुए श्राद्ध कराया. तभी से इस परंपरा का हक-हकूकधारी श्राद्धपक्ष में निर्वहन करते आ रहे हैं.