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इस सीमांत क्षेत्र का 'विकास' इन परिवारों के लिये बना 'अभिशाप'

पिथौरागढ़ जिले को चीन सीमा से जोड़ने वाली सड़क नजंग तक बनकर तैयार हो गई है. बॉर्डर के इस इलाके को मुख्यधारा से जोड़ने वाली ये सड़क भले ही हजारों की आबादी के लिए लाइफ लाइन साबित हो रही हो, मगर सीमांत क्षेत्रों में ढुलान के जरिये अपना गुजर बसर करने वाले परिवारों के लिए ये सड़क किसी अभिशाप से कम नहीं है.

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Published : Jun 4, 2019, 1:07 PM IST

पिथौरागढ़: भारत-चीन सीमा से सटे उत्तराखंड के कई गांव सात दशक बाद सड़क से जुड़ने जा रहे हैं. ऐसे में एक ओर जहां ये खबर सीमांत गांव में बसे हजारों लोगों के लिए उम्मीद की किरण लेकर आ रही है तो वहीं, दूसरी ओर इस सड़क के बनने से सैकड़ों परिवार का दाना-पानी भी छिनता नजर आ रहा है.

पढ़ें- नाबालिग चोरों ने परचून की दुकान में लाखों के सामान पर किया हाथ साफ

दरअसल, बॉर्डर पर रहने वाले ये परिवार बेहद गरीब हैं, जो सड़क विहीन क्षेत्रों में लोगों का सामान व राशन घोड़े-बकरियों पर लादकर दुर्गम इलाकों तक पहुंचाते हैं. यही इनके रोजगार का एकमात्र जरिया है. लेकिन सीमांत क्षेत्रों तक सड़क बनने से अब ये परिवार दो जून की रोटी को मोहताज होते नजर आ रहे हैं.

बता दें कि पिथौरागढ़ जिले को चीन सीमा से जोड़ने वाली सड़क नजंग तक बनकर तैयार हो गई है. बॉर्डर के इस इलाके को मुख्यधारा से जोड़ने वाली ये सड़क भले ही हजारों की आबादी के लिए लाइफ लाइन साबित हो रही हो, मगर सीमांत क्षेत्रों में ढुलान के जरिये अपना गुजर बसर करने वाले परिवारों के लिए ये सड़क किसी अभिशाप से कम नहीं है.

पढ़ें- प्रदेशवासियों के लिए खुशखबरी, देहरादून निगम करने जा रहा 900 कर्मचारियों की भर्ती

गाला गांव की स्थानीय महिला कलावती बताती हैं कि पहले जब ये सड़क तवाघाट तक हुआ करती थी, उस समय सामान लादकर सीमांत के गांवों तक पहुंचाने का उन्हें 4 से 5 हजार रुपए भाड़े के तौर पर मिलता था. जिससे वो अपने बच्चों की पढ़ाई और घर खर्च चलाती थीं. लेकिन जब से सड़क नजंग तक पहुंची है तो उनको मात्र डेढ़ से दो हज़ार ही आमदनी हो पाती है. ऐसे में अब घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया है.

कलावती अपना दर्द बयां करते हुए कहती हैं कि अब बच्चे बड़ी कक्षाओं में पहुंच गए हैं. महंगाई भी बढ़ गई है, लेकिन मजूदरी लगातार कम होती जा रही है. ऐसे में अगर सीमांत क्षेत्र तक सड़क पहुंच जाती है तो उनका दाना-पानी पूरी तरह उठ जाएगा, वो बेरोजगार हो जाएंगी. ऐसी ही व्यथा सीमांत क्षेत्र के सैकड़ों परिवार की है, जो ढुलान का काम करके ही अपना गुजर-बसर करते हैं.

पिथौरागढ़: भारत-चीन सीमा से सटे उत्तराखंड के कई गांव सात दशक बाद सड़क से जुड़ने जा रहे हैं. ऐसे में एक ओर जहां ये खबर सीमांत गांव में बसे हजारों लोगों के लिए उम्मीद की किरण लेकर आ रही है तो वहीं, दूसरी ओर इस सड़क के बनने से सैकड़ों परिवार का दाना-पानी भी छिनता नजर आ रहा है.

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दरअसल, बॉर्डर पर रहने वाले ये परिवार बेहद गरीब हैं, जो सड़क विहीन क्षेत्रों में लोगों का सामान व राशन घोड़े-बकरियों पर लादकर दुर्गम इलाकों तक पहुंचाते हैं. यही इनके रोजगार का एकमात्र जरिया है. लेकिन सीमांत क्षेत्रों तक सड़क बनने से अब ये परिवार दो जून की रोटी को मोहताज होते नजर आ रहे हैं.

बता दें कि पिथौरागढ़ जिले को चीन सीमा से जोड़ने वाली सड़क नजंग तक बनकर तैयार हो गई है. बॉर्डर के इस इलाके को मुख्यधारा से जोड़ने वाली ये सड़क भले ही हजारों की आबादी के लिए लाइफ लाइन साबित हो रही हो, मगर सीमांत क्षेत्रों में ढुलान के जरिये अपना गुजर बसर करने वाले परिवारों के लिए ये सड़क किसी अभिशाप से कम नहीं है.

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गाला गांव की स्थानीय महिला कलावती बताती हैं कि पहले जब ये सड़क तवाघाट तक हुआ करती थी, उस समय सामान लादकर सीमांत के गांवों तक पहुंचाने का उन्हें 4 से 5 हजार रुपए भाड़े के तौर पर मिलता था. जिससे वो अपने बच्चों की पढ़ाई और घर खर्च चलाती थीं. लेकिन जब से सड़क नजंग तक पहुंची है तो उनको मात्र डेढ़ से दो हज़ार ही आमदनी हो पाती है. ऐसे में अब घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया है.

कलावती अपना दर्द बयां करते हुए कहती हैं कि अब बच्चे बड़ी कक्षाओं में पहुंच गए हैं. महंगाई भी बढ़ गई है, लेकिन मजूदरी लगातार कम होती जा रही है. ऐसे में अगर सीमांत क्षेत्र तक सड़क पहुंच जाती है तो उनका दाना-पानी पूरी तरह उठ जाएगा, वो बेरोजगार हो जाएंगी. ऐसी ही व्यथा सीमांत क्षेत्र के सैकड़ों परिवार की है, जो ढुलान का काम करके ही अपना गुजर-बसर करते हैं.

Intro:पिथौरागढ़: भारत चीन सीमा से सटे गाँव आजादी के सात दशक बाद सड़क से जुड़ने जा रहे है। ये खबर भले ही सीमांत की हज़ारों की आबादी के लिए खुशखबरी हो। मगर इस क्षेत्र के सैकड़ों परिवार ऐसे भी है जिनका दाना-पानी सड़क बनने से छिनता जा रहा है। बॉर्डर पर रहने वाले ये परिवार बेहद गरीब है जो सड़कविहीन क्षेत्रों में लोगों का राशन और समान घोड़े-बकरियों में लादकर दुर्गम इलाकों तक पहुंचाते है। यही इनकी आमदनी का एक प्रमुख जरिया है। मगर सीमांत क्षेत्रों तक सड़क बनने से अब ये परिवार दो जून की रोटी के मोहताज होते नजर आ रहे है।

पिथौरागढ़ जिले को चीन सीमा तक जोड़ने वाली सड़क नजंग तक बनकर तैयार हो गयी है। बॉर्डर इलाकों को मुख्यधारा से जोड़ने वाली ये सड़क भले ही हज़ारों की आबादी के लिए लाइफलाइन साबित हो रही हो। मगर सीमांत क्षेत्रों में ढुलान के जरिये अपना गुजर बसर करने वाले परिवारों के लिए ये सड़क किसी अभिशाप से कम नही है। दशकों से बकरियों में समान लादकर अपने परिवार का जिम्मा संभाल रही गाला गाँव की कलावती देवी बताती है कि पहले जब ये सड़क तवाघाट तक ही हुआ करती थी। तो उस समय सामान लादकर सीमांत के गांवों तक पहुचाने का उन्हें 4 से 5 हजार रुपया भाड़े के तौर पर मिलता था। जिससे वो अपने बच्चों की पढ़ाई और घर खर्च चलाने के लिए उचित आमदनी कर पाती थी। मगर जब से सड़क नजंग तक पहुंच गई है तो उनको मात्र डेढ़ से दो हज़ार ही आमदनी हो पाती है। ऐसे में अब घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया है। कलावती अपना दर्द बयां करते हुए कहती है कि अब बच्चे बड़ी कक्षाओं में पहुंच गए है मगर मजदूरी लगातार कम होती जा रही है। ऐसे में अगर सीमांत क्षेत्र तक सड़क पहुंच जाती है तो उनका दाना-पानी पूरी तरह उठ जाएगा। ऐसी ही व्यथा सीमांत क्षेत्र के सैकड़ों परिवार की है जो ढुलान का काम करके ही अपना गुजर-बसर करते है।

Byte: कलावती देवी, स्थानीय



Body:पिथौरागढ़: भारत चीन सीमा से सटे गाँव आजादी के सात दशक बाद सड़क से जुड़ने जा रहे है। ये खबर भले ही सीमांत की हज़ारों की आबादी के लिए खुशखबरी हो। मगर इस क्षेत्र के सैकड़ों परिवार ऐसे भी है जिनका दाना-पानी सड़क बनने से छिनता जा रहा है। बॉर्डर पर रहने वाले ये परिवार बेहद गरीब है जो सड़कविहीन क्षेत्रों में लोगों का राशन और समान घोड़े-बकरियों में लादकर दुर्गम इलाकों तक पहुंचाते है। यही इनकी आमदनी का एक प्रमुख जरिया है। मगर सीमांत क्षेत्रों तक सड़क बनने से अब ये परिवार दो जून की रोटी के मोहताज होते नजर आ रहे है।

पिथौरागढ़ जिले को चीन सीमा तक जोड़ने वाली सड़क नजंग तक बनकर तैयार हो गयी है। बॉर्डर इलाकों को मुख्यधारा से जोड़ने वाली ये सड़क भले ही हज़ारों की आबादी के लिए लाइफलाइन साबित हो रही हो। मगर सीमांत क्षेत्रों में ढुलान के जरिये अपना गुजर बसर करने वाले परिवारों के लिए ये सड़क किसी अभिशाप से कम नही है। दशकों से बकरियों में समान लादकर अपने परिवार का जिम्मा संभाल रही गाला गाँव की कलावती देवी बताती है कि पहले जब ये सड़क तवाघाट तक ही हुआ करती थी। तो उस समय सामान लादकर सीमांत के गांवों तक पहुचाने का उन्हें 4 से 5 हजार रुपया भाड़े के तौर पर मिलता था। जिससे वो अपने बच्चों की पढ़ाई और घर खर्च चलाने के लिए उचित आमदनी कर पाती थी। मगर जब से सड़क नजंग तक पहुंच गई है तो उनको मात्र डेढ़ से दो हज़ार ही आमदनी हो पाती है। ऐसे में अब घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया है। कलावती अपना दर्द बयां करते हुए कहती है कि अब बच्चे बड़ी कक्षाओं में पहुंच गए है मगर मजदूरी लगातार कम होती जा रही है। ऐसे में अगर सीमांत क्षेत्र तक सड़क पहुंच जाती है तो उनका दाना-पानी पूरी तरह उठ जाएगा। ऐसी ही व्यथा सीमांत क्षेत्र के सैकड़ों परिवार की है जो ढुलान का काम करके ही अपना गुजर-बसर करते है।

Byte: कलावती देवी, स्थानीय



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