पौड़ी: सभी राज्यों के अपने लोकगीत और लोकपर्व होते हैं, जो न सिर्फ उस राज्य की पहचान होती है, बल्कि वहां की संस्कृति को सजोए भी रखती है. उत्तराखंड की भी अपनी एक अलग संस्कृति और पहचान है. इन्हीं में से एक है फूलदेई पर्व. लेकिन अब ये संस्कृति धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है.
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फूलदेई त्योहार उत्तराखंड की एक ऐसी बेजोड़ परंपरा है, जो लोगों को प्रकृति से जोड़ती है. यह त्योहार उत्तराखंड की प्रकृति, परंपरा, सामाजिक और संस्कृति से जुड़ा है. यह त्योहार चैत्र माह के पहले दिन से शुरू होता है और आठ दिन तक चलता है. पहाड़ी लोगों का जीवन प्रकृति पर निर्भर होता है. इसलिए इनके सभी त्योहार किसी न किसी रूप में प्रकृति से जुड़े होते हैं. फूलदेई त्योहार का संबंध भी प्रकृति से जुड़ा है. वसंत ऋतु का स्वागत इसी त्योहार के साथ किया जाता है.
चैत्र की संक्रांति यानी फूल संक्रांति से शुरू होकर पूरे महीने घरों की देहरी पर फूल डाले जाते हैं. इसी को गढ़वाल में फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है. फूल डालने वाले बच्चे फुलारी कहलाते हैं, लेकिन जिस तरह से आज पहाड़ों में गांव खाली होते जा रहे हैं और लोग शहरी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं, उससे इस पर्व की संस्कृति खत्म होती जा रही है. इनता ही नहीं इस पर्व का महत्व भी लगभग समाप्त होता जा रहा है.
उत्तराखंड संस्कृति के जानकार त्रिभुवन उनियाल का कहना है कि आज जिस तरह के उत्तराखंड के पहाड़ खाली होते जा रहे हैं, उसका असर यहां का संस्कृति पर भी पड़ रहा है. ये त्योहार मुख्य तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में मनाया जाता है, जहां जंगलों में विभिन्न प्रकार के फूलों को लाकर इस त्योहार को मनाया जाता है. लेकिन जिस तरह से ग्रामीण शहर की तरफ रुख कर रहे हैं और नई-नई संस्कृति से जुड़ रहे हैं. इसमें वो उत्तराखंड की परंपरा को भूलते जा रहे हैं, जिस तरह से आज पहाड़ के गांव खंडहर में तब्दील होते जा रहे हैं, वही हाल उत्तराखंड की संस्कृति का भी हो रहा है.