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छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारम्बार नमस्कार... अब सुनाई नहीं देता ये गीत, खोती जा रही संस्कृति

फूलदेई त्योहार उत्तराखंड की एक ऐसी बेजोड़ परंपरा है, जो लोगों को प्रकृति से जोड़ती है. यह त्योहार उत्तराखंड की प्रकृति, परंपरा, सामाजिक और संस्कृति से जुड़ा है.

फूलदेई त्योहार
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Published : Mar 18, 2019, 2:05 PM IST

Updated : Mar 18, 2019, 2:59 PM IST

पौड़ी: सभी राज्यों के अपने लोकगीत और लोकपर्व होते हैं, जो न सिर्फ उस राज्य की पहचान होती है, बल्कि वहां की संस्कृति को सजोए भी रखती है. उत्तराखंड की भी अपनी एक अलग संस्कृति और पहचान है. इन्हीं में से एक है फूलदेई पर्व. लेकिन अब ये संस्कृति धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है.

फूलदेई त्योहार

पढ़ें-राजधानी में तैयार किये जा रहे हर्बल कलर, एलर्जी और स्किन प्रॉब्लम से लोगों को दिलाएंगे निजात

फूलदेई त्योहार उत्तराखंड की एक ऐसी बेजोड़ परंपरा है, जो लोगों को प्रकृति से जोड़ती है. यह त्योहार उत्तराखंड की प्रकृति, परंपरा, सामाजिक और संस्कृति से जुड़ा है. यह त्योहार चैत्र माह के पहले दिन से शुरू होता है और आठ दिन तक चलता है. पहाड़ी लोगों का जीवन प्रकृति पर निर्भर होता है. इसलिए इनके सभी त्योहार किसी न किसी रूप में प्रकृति से जुड़े होते हैं. फूलदेई त्योहार का संबंध भी प्रकृति से जुड़ा है. वसंत ऋतु का स्वागत इसी त्योहार के साथ किया जाता है.

चैत्र की संक्रांति यानी फूल संक्रांति से शुरू होकर पूरे महीने घरों की देहरी पर फूल डाले जाते हैं. इसी को गढ़वाल में फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है. फूल डालने वाले बच्चे फुलारी कहलाते हैं, लेकिन जिस तरह से आज पहाड़ों में गांव खाली होते जा रहे हैं और लोग शहरी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं, उससे इस पर्व की संस्कृति खत्म होती जा रही है. इनता ही नहीं इस पर्व का महत्व भी लगभग समाप्त होता जा रहा है.

उत्तराखंड संस्कृति के जानकार त्रिभुवन उनियाल का कहना है कि आज जिस तरह के उत्तराखंड के पहाड़ खाली होते जा रहे हैं, उसका असर यहां का संस्कृति पर भी पड़ रहा है. ये त्योहार मुख्य तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में मनाया जाता है, जहां जंगलों में विभिन्न प्रकार के फूलों को लाकर इस त्योहार को मनाया जाता है. लेकिन जिस तरह से ग्रामीण शहर की तरफ रुख कर रहे हैं और नई-नई संस्कृति से जुड़ रहे हैं. इसमें वो उत्तराखंड की परंपरा को भूलते जा रहे हैं, जिस तरह से आज पहाड़ के गांव खंडहर में तब्दील होते जा रहे हैं, वही हाल उत्तराखंड की संस्कृति का भी हो रहा है.

पौड़ी: सभी राज्यों के अपने लोकगीत और लोकपर्व होते हैं, जो न सिर्फ उस राज्य की पहचान होती है, बल्कि वहां की संस्कृति को सजोए भी रखती है. उत्तराखंड की भी अपनी एक अलग संस्कृति और पहचान है. इन्हीं में से एक है फूलदेई पर्व. लेकिन अब ये संस्कृति धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है.

फूलदेई त्योहार

पढ़ें-राजधानी में तैयार किये जा रहे हर्बल कलर, एलर्जी और स्किन प्रॉब्लम से लोगों को दिलाएंगे निजात

फूलदेई त्योहार उत्तराखंड की एक ऐसी बेजोड़ परंपरा है, जो लोगों को प्रकृति से जोड़ती है. यह त्योहार उत्तराखंड की प्रकृति, परंपरा, सामाजिक और संस्कृति से जुड़ा है. यह त्योहार चैत्र माह के पहले दिन से शुरू होता है और आठ दिन तक चलता है. पहाड़ी लोगों का जीवन प्रकृति पर निर्भर होता है. इसलिए इनके सभी त्योहार किसी न किसी रूप में प्रकृति से जुड़े होते हैं. फूलदेई त्योहार का संबंध भी प्रकृति से जुड़ा है. वसंत ऋतु का स्वागत इसी त्योहार के साथ किया जाता है.

चैत्र की संक्रांति यानी फूल संक्रांति से शुरू होकर पूरे महीने घरों की देहरी पर फूल डाले जाते हैं. इसी को गढ़वाल में फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है. फूल डालने वाले बच्चे फुलारी कहलाते हैं, लेकिन जिस तरह से आज पहाड़ों में गांव खाली होते जा रहे हैं और लोग शहरी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं, उससे इस पर्व की संस्कृति खत्म होती जा रही है. इनता ही नहीं इस पर्व का महत्व भी लगभग समाप्त होता जा रहा है.

उत्तराखंड संस्कृति के जानकार त्रिभुवन उनियाल का कहना है कि आज जिस तरह के उत्तराखंड के पहाड़ खाली होते जा रहे हैं, उसका असर यहां का संस्कृति पर भी पड़ रहा है. ये त्योहार मुख्य तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में मनाया जाता है, जहां जंगलों में विभिन्न प्रकार के फूलों को लाकर इस त्योहार को मनाया जाता है. लेकिन जिस तरह से ग्रामीण शहर की तरफ रुख कर रहे हैं और नई-नई संस्कृति से जुड़ रहे हैं. इसमें वो उत्तराखंड की परंपरा को भूलते जा रहे हैं, जिस तरह से आज पहाड़ के गांव खंडहर में तब्दील होते जा रहे हैं, वही हाल उत्तराखंड की संस्कृति का भी हो रहा है.

Intro:उत्तराखंड में फुलदेही का पर्व धीमें धीमे विलुप्ति की कगार पर है। फुलदेही त्योहार उत्तराखंड की एक ऐसी बेजोड़ परंपरा है जो लोगों को प्रकृति से जोड़ती है। यह त्योहार उत्तराखंड की प्रकृति परंपरा, सामाजिक और संस्कृति से जुड़ी है। यह त्यौहार चैत्र माह के पहले दिन से शुरू होता है और आठ गति तक चलता है। पहाड़ी लोगों का जीवन प्रकृति पर निर्भर होता है इसलिए इनके सभी त्योहार किसी न किसी रूप में प्रकृति से जुड़े होते हैं यह त्यौहार का संबंध भी प्रकृति से जुड़ा है बसंत रितु के स्वागत इसी त्यौहार के साथ किया जाता है। लेकिन जिस तरह से आज बहारों में धीमे-धीमे गांव विराट होते जा रहे हैं और शहरों में रहने वाले लोग नहीं शास्त्री संस्कृति को अपना रहे हैं उस कारण इस पर्व की महत्वता समाप्त होती जा रही है और यह त्योहार भी विलुप्त की कगार पर है।


Body:बसंत ऋतु के आगमन पर मनाए जाने वाले इस त्योहार की झलक आज भी पौड़ी व आस पास के गांव में देखने को मिल रही है। छोटे-छोटे मासूम बच्चे सुबह के समय सूरज निकलने से पहले ही लोगों के घरों में फूल डालते है। 1 महीने के बाद भी बिखोत के दिन गांव वाले इन सभी बच्चों को बुलवाकर दक्षिणा देने के साथ इनको भोज भी करवाते हैं। चैत्र मास की संक्रांति को उत्तराखंड में फुलदेही के नाम से एक लोक पर्व के रूप में मनाया जाता है जो कि बसंत रितु के स्वागत का त्यौहार है। इस पर में बच्चे जंगल जाकर विभिन्न प्रकार के फूलों को लाकर प्रत्येक घर के दरवाजों के दोनों तरफ डालते हैं इससे दरवाजे खुलते ही फूलों की महक घर मे सकारात्मक ताकत भी लाती है।


Conclusion:उत्तराखंड संस्कृति के जानकार त्रिभुवन उनियाल बताते हैं कि आज जिस तरह से उत्तराखंड के पहाड़ खाली होते जा रहे हैं तो पहाड़ में मनाए जाने वाले इस त्योहारों का समाप्ति की ओर जाना भी लाजमी है। उन्होंने कहा कि यह त्योहार मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में मनाया जाता है जहा जंगलो से विभिन्न प्रकार के फूलों को लाकर इस त्योहार को मनाया जाता था। लेकिन आज ग्रामीण लोग शहरों की तरफ जाकर नई नई संस्कृति नए माहौल के साथ जुड़ रहे हैं और उत्तराखंड की संस्कृति को भूलते जा रहे हैं जिस तरह गांव के गांव खाली होकर खंडहर में तब्दील होते जा रहे हैं वही हाल हमारी संस्कृति का होता जा रहा है।
बाईट-योगेश
बाईट-त्रिभुवन उनियाल(संस्कृतिक जानकार)
Last Updated : Mar 18, 2019, 2:59 PM IST
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