ETV Bharat / state

पुरानी टिहरी का स्थापना दिवस, आज भी जिंदा हैं लोगों के दिलों में यादें

author img

By

Published : Dec 30, 2020, 2:10 PM IST

Updated : Jan 16, 2021, 3:17 PM IST

आज पुरानी टिहरी का स्थापना दिवस है. जानिए टिहरी का इतिहास और इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बारे में. पढ़िए यह रिपोर्ट.

old-tehri-foundation-day
पुरानी टिहरी का स्थापना दिवस

टिहरी: 30 दिसंबर को पुरानी टिहरी का स्थापना दिवस मनाया जाता है. आज भी लोगों के दिलों में यादें जिंदा हैं. पुरानी टिहरी सन् 1815 से पूर्व तक एक छोटी सी धुनारों की बस्ती थी. इसमें 8-10 परिवार रहते थे. इनका व्यवसाय तीर्थ यात्रियों और लोगों को नदी आर-पार कराना था. धुनारों की यह बस्ती कब बसी ये स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है, लेकिन 17वीं शताब्दी में पंवार वंशीय गढ़वाल राजा महीपत शाह के सेनानायक रिखोला लोदी के इस बस्ती में पहुंचने का इतिहास में उल्लेख है.

पुराणों में पुरानी टिहरी का उल्लेख

पुरानी टिहरी का उल्लेख स्कन्द पुराण के केदार खंड में भी है, जिसमें इसे गणेशप्रयाग व धनुषतीर्थ कहा गया है. सत्तेश्वर शिवलिंग सहित कुछ और सिद्ध तीर्थों का भी केदार खंड में उल्लेख है. तीन नदियों के संगम (भागीरथी, भिलंगना व घृत गंगा) यानी नदी के तीन छोर से घिरे होने के कारण इस जगह को टिहरी नाम से पुकारा जाने लगा.

टिहरी को तीर्थस्थल के रूप में नहीं मिली मान्यता

पौराणिक स्थल व सिद्ध क्षेत्र होने के बावजूद टिहरी को तीर्थस्थल के रूप में ज्यादा मान्यता व प्रचार नहीं मिल पाया. ऐतिहासिक रूप से यह 1815 में ही चर्चा में आयी, जब ईस्ट इंडिया कंपनी की सहायता से गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह गोरखों के हाथों 1803 में गंवा बैठी अपनी रियासत को वापस हासिल करने में तो सफल रहे, लेकिन चालाक अंग्रेजों ने रियासत का विभाजन कर उनके पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर गढ़वाल व अलकनन्दा पार का समस्त क्षेत्र हर्जाने के रूप मे हड़प लिया.

सुदर्शन शाह को थी राजधानी की तलाश

सन् 1803 में सुदर्शन शाह के पिता प्रद्युम्न शाह गोरखों के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे. 12 साल के निर्वासित जीवन के बाद सुदर्शन शाह शेष बची अपनी रियासत के लिए राजधानी की तलाश में निकले और टिहरी पहुंचे. किंवदंती के अनुसार टिहरी के काल भैरव ने उनकी शाही सवारी रोक दी और यहीं पर राजधानी बनाने को कहा. 30 दिसंबर 1815 को सुदर्शन शाह ने यहां पर विधिवत गढ़वाल रियासत की राजधानी स्थापित कर दी. कई लोग 28 दिसंबर को पुरानी टिहरी का जन्मदिन मानते हैं, तब यहां पर धुनारों के मात्र 8-10 कच्चे मकान ही थे.

राजधानी का विकास था कठिन चुनौती

एक ओर रियासत को व्यवस्था पर लाना व दूसरी ओर राजधानी के विकास की कठिन चुनौती. 700 रु. में राजा ने 30 छोटे-छोटे मकान बनवाये और यहीं से शुरू हुई टिहरी के एक नगर के रूप में आधुनिक विकास यात्रा. राजमहल का निर्माण भी शुरू करवाया गया, लेकिन धन की कमी के कारण इसे बनने में 30 साल लग गये. इसी राजमहल को पुराना दरबार के नाम से जाना गया. टिहरी की स्थापना अत्यन्त कठिन समय व रियासती दरिद्रता के दौर में हुई. तब गोरखों द्वारा युद्ध के दौरान गांव के गांव उजाड़ दिए गए थे. जैसे-जैसे राजकोष में धन आता गया. टिहरी में नए मकान बनाए जाते रहे. शुरू के वर्षों में जब लोग किसी काम से या बेगार ढोने टिहरी आते तो तंबुओं में रहते थे.

ये भी पढ़ें: हरिद्वार महाकुंभ के लिए छोड़ा जाएगा टिहरी झील से पानी, तैयारियां पूरी

अंग्रेज ठेकेदार विल्सन को मिला जंगल कटान का ठेका

सन् 1858 में टिहरी में भागीरथी पर लकड़ी का पुल बनाया गया. इससे आस-पास के गांवों से आना-जाना सुविधाजनक हो गया. 1859 में अंग्रेज ठेकेदार विल्सन ने रियासत के जंगलों के कटान का ठेका जब 4,000 रु. वार्षिक में लिया तो रियासत की आमदनी बढ़ गई. 1864 में यह ठेका ब्रिटिश सरकार ने 10 हजार रु. वार्षिक में ले लिया. अब रियासत के राजा अपनी शान-शौकत पर खुल कर खर्च करने की स्थिति में आ गये.

हाथ से कागज बनाने का कोरोबार

1859 में सुदर्शन शाह की मृत्यु हो गयी और उनके पुत्र भवानी शाह टिहरी की राजगद्दी पर बैठे. राजगद्दी पर विवाद के कारण राजपरिवार के कुछ सदस्यों ने राजकोष की जमकर लूट की, जिससे भवानी शाह के हाथ शुरू से ही तंग हो गये. उन्होंने मात्र 12 साल तक गद्दी संभाली. उनके शासन में टिहरी में हाथ से कागज बनाने का ऐसा कारोबार शुरू हुआ कि अंग्रेज सरकार के अधिकारी भी यहां से कागज खरीदने लगे. भवानी शाह के शासन के दौरान टिहरी में कुछ मंदिरों का पुनर्निर्माण किया गया. कुछ बागीचे भी लगवाये गये.

टिहरी में निर्माण कार्य

1871 में भवानी शाह के पुत्र प्रताप शाह टिहरी की गद्दी पर बैठे. भिलंगना के बांये तट पर सेमल तप्पड़ में उनका राज्याभिषेक हुआ. उनके शासन में टिहरी में कई नये निर्माण हुए. पुराना दरबार राजमहल से रानी बाग तक सड़क बनी, कोर्ट भवन बना, खैराती सफाखान खुला. रियासत के पहले विद्यालय प्रताप कालेज की स्थापना जो पहले प्राइमरी व फिर जूनियर स्तर का उन्हीं के शासन में हुआ.

प्रतापनगर बसाया गया

राजकोष में वृद्धि हुई तो प्रताप शाह ने अपने नाम से 1877 में टिहरी से करीब 15 किमी पैदल दूर उत्तर दिशा में ऊंचाई वाली पहाड़ी पर प्रतापनगर बसाना शुरू किया. इससे टिहरी का विस्तार कुछ प्रभावित हुआ, लेकिन टिहरी में प्रतापनगर आने-जाने हेतु भिलंगना नदी पर झूला पुल (कंडल पुल) का निर्माण होने से एक बड़े क्षेत्र (रैका-धारमण्डल) की आबादी का टिहरी आना-जाना आसान हो गया. नदी पार के गांवों का टिहरी से जुड़ते जाना इसके विकास में सहायक हुआ. राजधानी तो यह थी ही व्यापार का केन्द्र भी बनने लगी.

राजमहल कौशल दरबार का निर्माण

1887 में प्रतापशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र कीर्तिशाह गद्दी पर बैठा. उन्होंने एक और राजमहल कौशल दरबार का निर्माण कराया. उन्होंने प्रताप कालेज को हाईस्कूल तक उच्चीकृत कर दिया. कैम्बल बोर्डिंग हाउस, एक संस्कृत विद्यालय व एक मदरसा भी टिहरी में खोला गया. कुछ सरकारी भवन बनाए गये, जिनमें चीफ कोर्ट भवन भी शामिल था. इसी चीफ कोर्ट भवन में 1992 से पूर्व तक जिला सत्र न्यायालय चलता रहा. 1897 में यहां घंटाघर बनाया गया, जो तत्कालीन ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती की स्मृति में बनाया गया था. इसी दौरान शहर
को नगर पालिका का दर्जा भी दे दिया गया. सार्वजनिक स्थानों तक बिजली पहुंचाई गई. इससे पूर्व राजमहल में ही बिजली का प्रकाश होता था.

कीर्तिशाह ने कीर्तिनगर बसाया

कीर्तिशाह ने अपने नाम से श्रीनगर गढ़वाल के पास अलकनन्दा के इस ओर कीर्तिनगर भी बसाया, लेकिन तब भी टिहरी की ओर उनका ध्यान रहा. कीर्तिनगर से उनके पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर चार किमी दूर ठीक सामने दिखाई देती है. कीर्तिशाह के शासन के दौरान ही टिहरी में सरकारी प्रेस स्थापित हुई, जिसमें रियासत का राजपत्र व अन्य सरकारी कागजात छपते थे. स्वामी रामतीर्थ जब 1902 में टिहरी आये तो राजा ने उनके लिए सिमलासू में गोल कोठी बनाई. यह कोठी शिल्पकला का एक उदाहरण मानी जाती थी.

नरेन्द्र शाह टिहरी की गद्दी पर बैठा

सन् 1913 में कीर्तिशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र नरेन्द्र शाह टिहरी की गद्दी पर बैठा. 1920 में टिहरी में प्रथम बैंक (कृषि बैंक) की स्थापना हुई और 1923 में पब्लिक ‘लाइब्रेरी’ की. यह लाइब्रेरी बाद में सुमन लाइब्रेरी के नाम से जानी गई, जो अब नई टिहरी में है. 1938 में काष्ट कला विद्यालय खोला गया और 1940 में प्रताप हाई स्कूल इन्टर कालेज में उच्चीकृत कर दिया गया. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत भर में मोटर गाड़ियां खूब दौड़ने लगी थी. टिहरी में भी राजा की मोटर गाड़ी थी, जो राजमहल से मोतीबाग व बाजार में ही चलती थी. तब तक ऋषिकेश-टिहरी मोटर मार्ग नहीं बना था, इसलिए मोटर गाड़ी के कलपुर्जे अलग-अलग लाकर टिहरी में ही जोड़े गये थे.

मोटर मार्ग की सुविधा के लिए नरेन्द्रनगर बसाया गया

नरेन्द्रशाह ने मोटर मार्ग की सुविधा देखते हुए 1920 में अपने नाम से ऋषिकेश से 16 किमी दूर नरेन्द्र नगर बसाना शुरू किया. 10 साल में 30 लाख रु. खर्च कर नरेन्द्रनगर बसाया गया. इससे टिहरी के विकास में कुछ गतिरोध आ गया. 1926 में नरेन्द्र नगर व 1940 में टिहरी तक सड़क बन गई और गाड़ियां भी चलने लगी. पांच साल तक गाड़ियां भागीरथी पार पुराना बस अड्डा तक ही आती थी. टिहरी का पुराना पुल 1924 की बाढ़ में बह गया था. लगभग उसी स्थान पर लकड़ी का नया पुल बनाया गया.

जनक्रांति द्वारा राजशाही का तख्ता पलट

इसी पुल से पहली बार 1945 में राजकुमार बालेन्दु शाह ने स्वयं गाड़ी चलाकर टिहरी बाजार व राजमहल तक पहुंचाई. 1942 में टिहरी में एक कन्या पाठशाला भी शुरू की गई. 1946 को टिहरी में ही नरेन्द्र शाह ने राजगद्दी स्वेच्छा से अपने पुत्र मानवेन्द्र शाह को सौंप दी, जिन्होंने मात्र दो वर्ष ही शासन किया. 1948 में जनक्रांति द्वारा राजशाही का तख्ता पलट गया. सुदर्शन शाह से लेकर मानवेन्द्र शाह तक सभी छह राजाओं का राज तिलक टिहरी में ही हुआ.

राजाओं द्वारा नगर बसाने का चलन

टिहरी के विकास का एक चरण 1948 में पूरा हो जाता है, जो राजा की छत्र-छाया में चला. इस दौरान राजाओं द्वारा अलग-अलग नगर बसाने से टिहरी की विकास यात्रा पर प्रभाव पड़ा, लेकिन तब भी इसका महत्व बढ़ता ही रहा. राजमाता (प्रताप शाह की पत्नी) गुलेरिया ने अपने निजी कोष से बदरीनाथ मंदिर व धर्मशाला बनवाई थी. विभिन्न राजाओं के शासन के दौरान मोती बाग, रानी बाग, सिमलासू व दयारा में बगीचे लगाये गये. शीशमहल, लाट कोठी जैसे दर्शनीय भवन बने और कई मंदिरों का भी पुनर्निर्माण कराया गया.

टिहरी-धरासू मोटर मार्ग निर्माण

1948 में अन्तरिम राज्य सरकार ने टिहरी-धरासू मोटर मार्ग पर काम शुरू करवाया. 1949 में संयुक्त प्रांत में रियासत के विलीनीकरण के बाद टिहरी के विकास के नये रास्ते खुले ही थे कि शीघ्र ही साठ के दशक में बांध की चर्चायें शुरू हो गई, लेकिन तब भी इसकी विकास यात्रा रुकी नहीं. भारत विभाजन के समय सीमांत क्षेत्र से आये पंजाबी समुदाय के कई परिवार टिहरी में आकर बसे. मुस्लिम आबादी तो यहां पहले से ही थी.

टिहरी में कई शिक्षण संस्थानों खोले गए

जिला मुख्यालय नरेन्द्रनगर में रहा लेकिन तब भी कई जिला स्तरीय कार्यालय टिहरी में ही बने रहे. जिला न्यायालय, जिला परिषद, ट्रेजरी सहित दो दर्जन जिला स्तरीय कार्यालय कुछ वर्ष पूर्व तक टिहरी में ही रहे, जो बाद में नई टिहरी में लाये गये. सत्तर के दशक तक यहां नये निर्माण भी होते रहे व नई संस्थाएं भी स्थापित होती रही. पहले डिग्री कालेज व फिर विश्वविद्यालय परिसर, माॅडल स्कूल, बीटीसी स्कूल, राजमाता कालेज, नेपालिया इन्टर कालेज, संस्कृत महाविद्यालय सहित अनेक सरकारी व गैर सरकारी विद्यालय खुलने से यह शिक्षा का केन्द्र बन गया. हालांकि साथ-साथ बांध की छाया भी इस पर पड़ती रही.

सुमन पुस्तकालय बना शहर की विरासत

सुमन पुस्तकालय इस शहर की बड़ी विरासत रही है, जिसमें करीब 30 हजार पुस्तकें हैं. राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक ढांचे के अनुरूप बसते गये टिहरी शहर के मोहल्ले मुख्य बाजार के चारों ओर इसकी पहचान को नये अर्थ भी देते गये. पुराना दरबार तो था ही, सुमन चौक, सत्तेश्वर मोहल्ला, मुस्लिम मोहल्ला, रघुनाथ मोहल्ला, अहलकारी मोहल्ला, पश्चिमियाना मोहल्ला, पूर्वियाना मोहल्ला, हाथी थान मोहल्ला, सेमल तप्पड़, चनाखेत, मोती बाग, रानी बाग, भादू की मगरी, सिमलासू, भगवत पुर, दोबाटा, सोना देवी सभी मोहल्लों के नाम सार्थक थे और इन सबके बसते जाने से बनी थी टिहरी.

राजाओं के सहयोगी यहां बसे

मूल वासिंदे धुनारों की इस बस्ती में शुरू में वे लोग बसे जो सुदर्शन शाह के साथ आये थे. इनमें राजपरिवार के सदस्यों के साथ ही इनके राजकाज के सहयोगी और कर्मचारी थे. राजगुरु, राज पुरोहित, दीवान, फौजदार, जागीरदार, माफीदार और दास-दासी भी इसमें शामिल थे. बाद में जब राजा रियासत के किन्हीं लोगों से खुश होते या प्रभावित होते तो, उन्हें जमीन दान करते थे. धर्मार्थ संस्थाओं को भी जमीन दी जाती रही. बाद में आस-पास के गांवों के वे लोग जो सक्षम थे, टिहरी में बसते चले गये.

टिहरी: 30 दिसंबर को पुरानी टिहरी का स्थापना दिवस मनाया जाता है. आज भी लोगों के दिलों में यादें जिंदा हैं. पुरानी टिहरी सन् 1815 से पूर्व तक एक छोटी सी धुनारों की बस्ती थी. इसमें 8-10 परिवार रहते थे. इनका व्यवसाय तीर्थ यात्रियों और लोगों को नदी आर-पार कराना था. धुनारों की यह बस्ती कब बसी ये स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है, लेकिन 17वीं शताब्दी में पंवार वंशीय गढ़वाल राजा महीपत शाह के सेनानायक रिखोला लोदी के इस बस्ती में पहुंचने का इतिहास में उल्लेख है.

पुराणों में पुरानी टिहरी का उल्लेख

पुरानी टिहरी का उल्लेख स्कन्द पुराण के केदार खंड में भी है, जिसमें इसे गणेशप्रयाग व धनुषतीर्थ कहा गया है. सत्तेश्वर शिवलिंग सहित कुछ और सिद्ध तीर्थों का भी केदार खंड में उल्लेख है. तीन नदियों के संगम (भागीरथी, भिलंगना व घृत गंगा) यानी नदी के तीन छोर से घिरे होने के कारण इस जगह को टिहरी नाम से पुकारा जाने लगा.

टिहरी को तीर्थस्थल के रूप में नहीं मिली मान्यता

पौराणिक स्थल व सिद्ध क्षेत्र होने के बावजूद टिहरी को तीर्थस्थल के रूप में ज्यादा मान्यता व प्रचार नहीं मिल पाया. ऐतिहासिक रूप से यह 1815 में ही चर्चा में आयी, जब ईस्ट इंडिया कंपनी की सहायता से गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह गोरखों के हाथों 1803 में गंवा बैठी अपनी रियासत को वापस हासिल करने में तो सफल रहे, लेकिन चालाक अंग्रेजों ने रियासत का विभाजन कर उनके पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर गढ़वाल व अलकनन्दा पार का समस्त क्षेत्र हर्जाने के रूप मे हड़प लिया.

सुदर्शन शाह को थी राजधानी की तलाश

सन् 1803 में सुदर्शन शाह के पिता प्रद्युम्न शाह गोरखों के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे. 12 साल के निर्वासित जीवन के बाद सुदर्शन शाह शेष बची अपनी रियासत के लिए राजधानी की तलाश में निकले और टिहरी पहुंचे. किंवदंती के अनुसार टिहरी के काल भैरव ने उनकी शाही सवारी रोक दी और यहीं पर राजधानी बनाने को कहा. 30 दिसंबर 1815 को सुदर्शन शाह ने यहां पर विधिवत गढ़वाल रियासत की राजधानी स्थापित कर दी. कई लोग 28 दिसंबर को पुरानी टिहरी का जन्मदिन मानते हैं, तब यहां पर धुनारों के मात्र 8-10 कच्चे मकान ही थे.

राजधानी का विकास था कठिन चुनौती

एक ओर रियासत को व्यवस्था पर लाना व दूसरी ओर राजधानी के विकास की कठिन चुनौती. 700 रु. में राजा ने 30 छोटे-छोटे मकान बनवाये और यहीं से शुरू हुई टिहरी के एक नगर के रूप में आधुनिक विकास यात्रा. राजमहल का निर्माण भी शुरू करवाया गया, लेकिन धन की कमी के कारण इसे बनने में 30 साल लग गये. इसी राजमहल को पुराना दरबार के नाम से जाना गया. टिहरी की स्थापना अत्यन्त कठिन समय व रियासती दरिद्रता के दौर में हुई. तब गोरखों द्वारा युद्ध के दौरान गांव के गांव उजाड़ दिए गए थे. जैसे-जैसे राजकोष में धन आता गया. टिहरी में नए मकान बनाए जाते रहे. शुरू के वर्षों में जब लोग किसी काम से या बेगार ढोने टिहरी आते तो तंबुओं में रहते थे.

ये भी पढ़ें: हरिद्वार महाकुंभ के लिए छोड़ा जाएगा टिहरी झील से पानी, तैयारियां पूरी

अंग्रेज ठेकेदार विल्सन को मिला जंगल कटान का ठेका

सन् 1858 में टिहरी में भागीरथी पर लकड़ी का पुल बनाया गया. इससे आस-पास के गांवों से आना-जाना सुविधाजनक हो गया. 1859 में अंग्रेज ठेकेदार विल्सन ने रियासत के जंगलों के कटान का ठेका जब 4,000 रु. वार्षिक में लिया तो रियासत की आमदनी बढ़ गई. 1864 में यह ठेका ब्रिटिश सरकार ने 10 हजार रु. वार्षिक में ले लिया. अब रियासत के राजा अपनी शान-शौकत पर खुल कर खर्च करने की स्थिति में आ गये.

हाथ से कागज बनाने का कोरोबार

1859 में सुदर्शन शाह की मृत्यु हो गयी और उनके पुत्र भवानी शाह टिहरी की राजगद्दी पर बैठे. राजगद्दी पर विवाद के कारण राजपरिवार के कुछ सदस्यों ने राजकोष की जमकर लूट की, जिससे भवानी शाह के हाथ शुरू से ही तंग हो गये. उन्होंने मात्र 12 साल तक गद्दी संभाली. उनके शासन में टिहरी में हाथ से कागज बनाने का ऐसा कारोबार शुरू हुआ कि अंग्रेज सरकार के अधिकारी भी यहां से कागज खरीदने लगे. भवानी शाह के शासन के दौरान टिहरी में कुछ मंदिरों का पुनर्निर्माण किया गया. कुछ बागीचे भी लगवाये गये.

टिहरी में निर्माण कार्य

1871 में भवानी शाह के पुत्र प्रताप शाह टिहरी की गद्दी पर बैठे. भिलंगना के बांये तट पर सेमल तप्पड़ में उनका राज्याभिषेक हुआ. उनके शासन में टिहरी में कई नये निर्माण हुए. पुराना दरबार राजमहल से रानी बाग तक सड़क बनी, कोर्ट भवन बना, खैराती सफाखान खुला. रियासत के पहले विद्यालय प्रताप कालेज की स्थापना जो पहले प्राइमरी व फिर जूनियर स्तर का उन्हीं के शासन में हुआ.

प्रतापनगर बसाया गया

राजकोष में वृद्धि हुई तो प्रताप शाह ने अपने नाम से 1877 में टिहरी से करीब 15 किमी पैदल दूर उत्तर दिशा में ऊंचाई वाली पहाड़ी पर प्रतापनगर बसाना शुरू किया. इससे टिहरी का विस्तार कुछ प्रभावित हुआ, लेकिन टिहरी में प्रतापनगर आने-जाने हेतु भिलंगना नदी पर झूला पुल (कंडल पुल) का निर्माण होने से एक बड़े क्षेत्र (रैका-धारमण्डल) की आबादी का टिहरी आना-जाना आसान हो गया. नदी पार के गांवों का टिहरी से जुड़ते जाना इसके विकास में सहायक हुआ. राजधानी तो यह थी ही व्यापार का केन्द्र भी बनने लगी.

राजमहल कौशल दरबार का निर्माण

1887 में प्रतापशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र कीर्तिशाह गद्दी पर बैठा. उन्होंने एक और राजमहल कौशल दरबार का निर्माण कराया. उन्होंने प्रताप कालेज को हाईस्कूल तक उच्चीकृत कर दिया. कैम्बल बोर्डिंग हाउस, एक संस्कृत विद्यालय व एक मदरसा भी टिहरी में खोला गया. कुछ सरकारी भवन बनाए गये, जिनमें चीफ कोर्ट भवन भी शामिल था. इसी चीफ कोर्ट भवन में 1992 से पूर्व तक जिला सत्र न्यायालय चलता रहा. 1897 में यहां घंटाघर बनाया गया, जो तत्कालीन ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती की स्मृति में बनाया गया था. इसी दौरान शहर
को नगर पालिका का दर्जा भी दे दिया गया. सार्वजनिक स्थानों तक बिजली पहुंचाई गई. इससे पूर्व राजमहल में ही बिजली का प्रकाश होता था.

कीर्तिशाह ने कीर्तिनगर बसाया

कीर्तिशाह ने अपने नाम से श्रीनगर गढ़वाल के पास अलकनन्दा के इस ओर कीर्तिनगर भी बसाया, लेकिन तब भी टिहरी की ओर उनका ध्यान रहा. कीर्तिनगर से उनके पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर चार किमी दूर ठीक सामने दिखाई देती है. कीर्तिशाह के शासन के दौरान ही टिहरी में सरकारी प्रेस स्थापित हुई, जिसमें रियासत का राजपत्र व अन्य सरकारी कागजात छपते थे. स्वामी रामतीर्थ जब 1902 में टिहरी आये तो राजा ने उनके लिए सिमलासू में गोल कोठी बनाई. यह कोठी शिल्पकला का एक उदाहरण मानी जाती थी.

नरेन्द्र शाह टिहरी की गद्दी पर बैठा

सन् 1913 में कीर्तिशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र नरेन्द्र शाह टिहरी की गद्दी पर बैठा. 1920 में टिहरी में प्रथम बैंक (कृषि बैंक) की स्थापना हुई और 1923 में पब्लिक ‘लाइब्रेरी’ की. यह लाइब्रेरी बाद में सुमन लाइब्रेरी के नाम से जानी गई, जो अब नई टिहरी में है. 1938 में काष्ट कला विद्यालय खोला गया और 1940 में प्रताप हाई स्कूल इन्टर कालेज में उच्चीकृत कर दिया गया. बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत भर में मोटर गाड़ियां खूब दौड़ने लगी थी. टिहरी में भी राजा की मोटर गाड़ी थी, जो राजमहल से मोतीबाग व बाजार में ही चलती थी. तब तक ऋषिकेश-टिहरी मोटर मार्ग नहीं बना था, इसलिए मोटर गाड़ी के कलपुर्जे अलग-अलग लाकर टिहरी में ही जोड़े गये थे.

मोटर मार्ग की सुविधा के लिए नरेन्द्रनगर बसाया गया

नरेन्द्रशाह ने मोटर मार्ग की सुविधा देखते हुए 1920 में अपने नाम से ऋषिकेश से 16 किमी दूर नरेन्द्र नगर बसाना शुरू किया. 10 साल में 30 लाख रु. खर्च कर नरेन्द्रनगर बसाया गया. इससे टिहरी के विकास में कुछ गतिरोध आ गया. 1926 में नरेन्द्र नगर व 1940 में टिहरी तक सड़क बन गई और गाड़ियां भी चलने लगी. पांच साल तक गाड़ियां भागीरथी पार पुराना बस अड्डा तक ही आती थी. टिहरी का पुराना पुल 1924 की बाढ़ में बह गया था. लगभग उसी स्थान पर लकड़ी का नया पुल बनाया गया.

जनक्रांति द्वारा राजशाही का तख्ता पलट

इसी पुल से पहली बार 1945 में राजकुमार बालेन्दु शाह ने स्वयं गाड़ी चलाकर टिहरी बाजार व राजमहल तक पहुंचाई. 1942 में टिहरी में एक कन्या पाठशाला भी शुरू की गई. 1946 को टिहरी में ही नरेन्द्र शाह ने राजगद्दी स्वेच्छा से अपने पुत्र मानवेन्द्र शाह को सौंप दी, जिन्होंने मात्र दो वर्ष ही शासन किया. 1948 में जनक्रांति द्वारा राजशाही का तख्ता पलट गया. सुदर्शन शाह से लेकर मानवेन्द्र शाह तक सभी छह राजाओं का राज तिलक टिहरी में ही हुआ.

राजाओं द्वारा नगर बसाने का चलन

टिहरी के विकास का एक चरण 1948 में पूरा हो जाता है, जो राजा की छत्र-छाया में चला. इस दौरान राजाओं द्वारा अलग-अलग नगर बसाने से टिहरी की विकास यात्रा पर प्रभाव पड़ा, लेकिन तब भी इसका महत्व बढ़ता ही रहा. राजमाता (प्रताप शाह की पत्नी) गुलेरिया ने अपने निजी कोष से बदरीनाथ मंदिर व धर्मशाला बनवाई थी. विभिन्न राजाओं के शासन के दौरान मोती बाग, रानी बाग, सिमलासू व दयारा में बगीचे लगाये गये. शीशमहल, लाट कोठी जैसे दर्शनीय भवन बने और कई मंदिरों का भी पुनर्निर्माण कराया गया.

टिहरी-धरासू मोटर मार्ग निर्माण

1948 में अन्तरिम राज्य सरकार ने टिहरी-धरासू मोटर मार्ग पर काम शुरू करवाया. 1949 में संयुक्त प्रांत में रियासत के विलीनीकरण के बाद टिहरी के विकास के नये रास्ते खुले ही थे कि शीघ्र ही साठ के दशक में बांध की चर्चायें शुरू हो गई, लेकिन तब भी इसकी विकास यात्रा रुकी नहीं. भारत विभाजन के समय सीमांत क्षेत्र से आये पंजाबी समुदाय के कई परिवार टिहरी में आकर बसे. मुस्लिम आबादी तो यहां पहले से ही थी.

टिहरी में कई शिक्षण संस्थानों खोले गए

जिला मुख्यालय नरेन्द्रनगर में रहा लेकिन तब भी कई जिला स्तरीय कार्यालय टिहरी में ही बने रहे. जिला न्यायालय, जिला परिषद, ट्रेजरी सहित दो दर्जन जिला स्तरीय कार्यालय कुछ वर्ष पूर्व तक टिहरी में ही रहे, जो बाद में नई टिहरी में लाये गये. सत्तर के दशक तक यहां नये निर्माण भी होते रहे व नई संस्थाएं भी स्थापित होती रही. पहले डिग्री कालेज व फिर विश्वविद्यालय परिसर, माॅडल स्कूल, बीटीसी स्कूल, राजमाता कालेज, नेपालिया इन्टर कालेज, संस्कृत महाविद्यालय सहित अनेक सरकारी व गैर सरकारी विद्यालय खुलने से यह शिक्षा का केन्द्र बन गया. हालांकि साथ-साथ बांध की छाया भी इस पर पड़ती रही.

सुमन पुस्तकालय बना शहर की विरासत

सुमन पुस्तकालय इस शहर की बड़ी विरासत रही है, जिसमें करीब 30 हजार पुस्तकें हैं. राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक ढांचे के अनुरूप बसते गये टिहरी शहर के मोहल्ले मुख्य बाजार के चारों ओर इसकी पहचान को नये अर्थ भी देते गये. पुराना दरबार तो था ही, सुमन चौक, सत्तेश्वर मोहल्ला, मुस्लिम मोहल्ला, रघुनाथ मोहल्ला, अहलकारी मोहल्ला, पश्चिमियाना मोहल्ला, पूर्वियाना मोहल्ला, हाथी थान मोहल्ला, सेमल तप्पड़, चनाखेत, मोती बाग, रानी बाग, भादू की मगरी, सिमलासू, भगवत पुर, दोबाटा, सोना देवी सभी मोहल्लों के नाम सार्थक थे और इन सबके बसते जाने से बनी थी टिहरी.

राजाओं के सहयोगी यहां बसे

मूल वासिंदे धुनारों की इस बस्ती में शुरू में वे लोग बसे जो सुदर्शन शाह के साथ आये थे. इनमें राजपरिवार के सदस्यों के साथ ही इनके राजकाज के सहयोगी और कर्मचारी थे. राजगुरु, राज पुरोहित, दीवान, फौजदार, जागीरदार, माफीदार और दास-दासी भी इसमें शामिल थे. बाद में जब राजा रियासत के किन्हीं लोगों से खुश होते या प्रभावित होते तो, उन्हें जमीन दान करते थे. धर्मार्थ संस्थाओं को भी जमीन दी जाती रही. बाद में आस-पास के गांवों के वे लोग जो सक्षम थे, टिहरी में बसते चले गये.

Last Updated : Jan 16, 2021, 3:17 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.