हल्द्वानी: उत्तराखंड की संस्कृति और लोक कला की पहचान देश विदेश में की जाती है. कुमाऊं का लोकनृत्य छोलिया भी एक ऐसी ही लोककला है.उत्तराखंड की भूमि अतीत से ही अपनी वीरता और रणकौशल के लिए जानी जाती है. कभी इस रणभूमि में पहाड़ की लोक नृत्य छोलिया और वाद्य यंत्र का बड़ा ही योगदान हुआ करता था. जिस पर आधुनिकता की मार पड़ी, लेकिन अतीत की इस परंपरा को बचाने के प्रयास जारी हैं. साथ ही जागरूकता आने पर लोगों द्वारा अपनी संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है. जो रोजगार का साधन भी बन रहा है. वहीं देवभूमि में पारंपरिक वाद्य यंत्र और लोकनृत्य के बिना मांगलिक कार्य अधूरे लगते हैं.
लोक संस्कृति की दिखती है झलक: पुराने वाद्य यंत्र और छोलिया नृत्य की पहचान उत्तराखंड ही नहीं देश विदेश में की जा रही है.छोलिया नृत्य उत्तराखंड की लोक नृत्य में सबसे लोकप्रिय नृत्य है. लेकिन अब धीरे-धीरे इस नृत्य और वाद्य यंत्र की महत्व बढ़ने लगा है, जहां युवा पीढ़ी इस लोक नृत्य और वाद्य यंत्र को अपना रोजगार के तौर पर अपना रहे हैं. कुछ साल पहले तक लोक नृत्य छोलिया और पहाड़ी वाद्य यंत्र लोगों के बीच से दूर होता जा रहा था, लेकिन अब युवाओं में भी इस लोक नृत्य और वाद्य यंत्र का क्रेज बढ़ने लगा है. शादी विवाह हो या कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम में पहाड़ की लोक कला और लोक संस्कृति देखने को मिल रही है.
इस विरासत की ओर बढ़ा लोगों का रुझान: लालकुआं स्थित बिंदुखाता के युवाओं की छोलिया और पारंपरिक वाद्य यंत्र की टीम पिछले कई सालों से अपनी संस्कृति को बचाने में जुटी हुई है. जहां नई पीढ़ी इसको अपना रोजगार का जरिया भी बनाया है. कलाकारों की मानें तो यह पारंपरिक लोक नृत्य धीरे-धीरे विलुप्त हो रही थी, लेकिन अब फिर से इस नृत्य और वाद्य यंत्र की डिमांड बढ़ गई है. शादी विवाह समारोह हो या कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम सभी जगह पर इस पारंपरिक लोक संस्कृति और लोक कला को लोग पसंद कर रहे हैं. जिसका नतीजा है कि अब बहुत से युवा पीढ़ी फिर से इस लोक कला और संस्कृति को अपना रही है.
संरक्षण के लिए आगे आए लोग: पुराने समय में पहाड़ी बारात की शान छोलिया नृत्य छोलिया कलाकार ढोल, दमाऊ, रणसिंघा वाद्ययंत्रों को बजाकर चलते थे.उनके वाद्य यंत्रों से निकली मधुर ध्वनि की थाप पहाड़ की वादियों के बीच सुकून प्रदान करती थी. पहाड़ में कुछ समय पहले तक शादियों में इस परंपरा को निभाया जाता था, लेकिन बैंड बाजा और डीजे ने इस लोककला को धीरे-धीरे खत्म कर दिया था, लेकिन एक बार फिर से इस लोक कला और संस्कृति का चलन देखने को मिल रहा है.
इतिहास बेहद समृद्ध: मान्यता हैं कि कभी भी युद्ध में कुमाऊं के राजा विजयी होते थे तो अपने रणकौशल का बखान रानियों के सामने करने के लिए अपनी ही सेना को दो हिस्सों में बांटकर परस्पर रानियों और प्रजा के सामने छद्म युद्ध का प्रदर्शन कर के अपनी वीरता को प्रदर्शित करते थे. लेकिन पारंपरिक लोक कला, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा बन चुका है.छोलिया लोक नृत्य टोली में 10 से 20 तक कलाकार होते हैं. इसमें ढोल, दमाऊ, मशकबीन, रणसिंघा जैसे वाद्ययंत्रों के साथ-साथ इनको बजाने और नृत्य करने वाले लोग होते हैं.