हल्द्वानी: देवभूमि उत्तराखंड को अपने संस्कृति के लिए जाना जाता है. देवभूमि में कई ऐसे ऐतिहासिक पर्व हैं, जिनका लोग साल भर बेसब्री से इंतजार करते हैं. जिसमें से एक लोकप्रिय त्यौहार सातू-आठू (गौरा-महेश पूजा) भी है. यह पर्व (भादौ) भाद्रमाह के सप्तमी-अष्टमी को मनाया जाता है. मान्यता है कि सप्तमी को मां गौरा अपने मायके से रूठकर मायके आती हैं और जिसके बाद उन्हें लेने अष्टमी को भगवान शिव लेने आते हैं.
ज्योतिषाचार्य डॉ.नवीन चंद्र जोशी के मुताबिक सातू-आठू पर्व 23 यानी आज और 24 अगस्त को मनाया जाएगा. भादौ की शुक्ल पक्ष पंचमी को बिरुड़ पंचमी के साथ गांव-घरों में एक तांबे के बर्तन को साफ करके धोने के बाद इस पर गाय के गोबर से पांच आकृतियां बनाई जाती हैं और उन पर दूब घास लगाई जाती है. साथ ही उस बर्तन में पांच या सात प्रकार के अनाज के बीजों को भिगोया जाता है. जिसमें गेहूं, चना, भट्ट, मास, कल्यूं, मटर, गहत आदि होते हैं. जहां महिलाएं सातू-आठू का व्रत करती हैं. आठू के दिन इन्हें गौरा-महेश को चढ़ा कर व्रत टूटने के बाद लोग प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं. मानता है कि जो भी महिलाएं इस व्रत को करती हैं, परिवार में सुख शांति बनी रहती है.
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मान्यता है कि सातू-आठू पर्व में महादेव शिव को भिनज्यू (जीजाजी ) और मां गौरी को दीदी के रूप में पूजने की परंपरा है. सातू-आठू का अर्थ है, सप्तमी और अष्टमी का त्यौहार, भगवान शिव को और मां पार्वती को अपने साथ दीदी और जीजा के रिश्ते में बांध कर यह त्यौहार मनाया जाता है. कहते है कि जब दीदी गंवरा (मां पार्वती) जीजा मैशर (यानि महादेव ) से नाराज होकर अपने मायके आ जाती हैं. तब महादेव उनको वापस ले जाने ससुराल आते हैं.दीदी गंवरा की विदाई और भिनज्यू (जीजाजी) मैशर की सेवा के रूप में यह त्यौहार मनाया जाता है. यह त्यौहार कुमाऊं के सीमांत में सातू-आठू के नाम से व ,नेपाल में गौरा महेश्वर के नाम से मनाया जाता है.