कालाढूंगीः आज उत्तराखंड अपना 22वां राज्य स्थापना दिवस मना रहा है. उत्तराखंड आंदोलन की आग में कई आंदोलनकारियों ने अपना बलिदान दिया. नतीजा ये रहा कि 9 नवंबर 2000 को आंदोलनकारियों का सपना उत्तराखंड राज्य मिलने के रूप में साकार हुआ. लेकिन जिन आंदोलनकारियों के बलिदान और पीड़ा के बदौलत उत्तराखंड मिला, उन आंदोलनकारियों को राज्य आंदोलन में अपना अस्तित्व स्थापित करने में वर्षों लग गए. उन्हीं में से एक हैं कालाढूंगी के राज्य आंदोलनकारी नंदन सिंह कुमटिया.
नैनीताल जिले के कालाढूंगी विधानसभा के चकलुवा (पूरनपुर) के रहने वाले राज्य आंदोलनकारी 46 वर्षीय नंदन सिंह कुमटिया 16 साल तक खुद को राज्य आंदोलनकारी घोषित करने की लड़ाई लड़ते रहे. इस बीच वह एक हादसे का शिकार हो गए और आज वह पिछले 16 साल से दिव्यांग की जिंदगी जी रहे हैं.
राज्य आंदोलनकारी नंदन सिंह कुमटिया बताते हैं कि अलग राज्य की मांग को लेकर वह भी आंदोलन में कूदे. 1994 में राज्य आंदोलन के संघर्ष के दौरान तत्कालीन यूपी पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेजा. एक महीने फर्रूखाबाद (यूपी) के फतेहगढ़ सेंट्रल जेल में बंद रहे. उससे पहले उन्हें कालाढूंगी और बाजपुर कारागार में भी बंद रहना पड़ा. इस बीच परिवार की जरुरतों ने उन्हें नौकरी के लिए मजबूर किया तो आंदोलन को छोड़ उन्हें जाना पड़ा. 1999 में उनकी दिल्ली में एक निजी कंपनी में नौकरी लगी.
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दिल्ली में मनाया उत्तराखंड स्थापना का दिवसः राज्य आंदोलनकारी नंदन सिंह कुमटिया बताते हैं कि इस बीच 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ तो उन्हें दिल्ली में उत्तराखंड के गैर प्रवासियों के साथ जश्न मनाया. वह बताते हैं कि इसके बाद 2004 में तत्कालीन एनडी तिवारी की कांग्रेस सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों को चिन्हित कर उन्हें सरकारी नौकरी देने की घोषणा की. सरकार की ओर से जारी सूची में नंदन सिंह का नाम भी शामिल था. सरकारी नौकरी के सपने को लेकर दिल्ली में नौकरी छोड़ घर आ गए. लेकिन तभी अचानक सरकार ने नंदन सिंह को राज्य आंदोलनकारी के बजाय आरक्षण विरोधी करार देकर ज्वॉइनिंग लेटर पर रोक लगा दी.
संघर्ष के बीच हुआ हादसाः नंदन सिंह बताते हैं कि खुद को राज्य आंदोलनकारी साबित करने के लिए उन्होंने 2004 से संघर्ष करना शुरू कर दिया. लेकिन इस बीच 2005 में वह एक सड़क हादसे का शिकार हो गए. हादसे में उनका शरीर पैरालिसिस हो गया. नंदन का संघर्ष अब दो गुना बढ़ गया. एक तरफ वह सरकार से लड़ते रहे तो दूसरी तरफ व जिंदगी से. इस दौरान इलाज के लिए उन्होंने अपनी 4 बीघा जमीन बेच दी लेकिन उसके बाद भी पैरालिसिस पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ.
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दूसरी तरफ उनका सरकार से राज्य आंदोलनकारी के रूप में साबित करने के लिए संघर्ष चलता रहा. इस दौरान उन्होंने कई आंदोलन किए, कई आमरण अनशन भी किया. नंदन बताते हैं कि वो कई मंत्री, विधायकों से मिले. लेकिन किसी ने कोई मदद नहीं की. आखिर में उन्होंने 2009 और 2010 में हल्द्वानी के बुद्ध पार्क में आमरण अनशन किया. जिसके बाद उन्हें जीत हासिल हुई और आखिर में 2016 में उन्हें सरकार ने राज्य आंदोलनकारी घोषित किया.
2016 में मिला अस्तित्वः आखिर 2016 में नंदन सिंह कुमटिया को सरकार ने राज्य आंदोलनकारी के रूप में माना. इसके बाद सरकार की ओर से उनके लिए पेंशन जारी की गई. लेकिन आज भी वह अपने शरीर की बीमारी से लड़ रहे हैं. आज भी उनका इलाज जारी है. वह बताते हैं कि उनके इलाज में हर महीने 5 से 6 हजार रुपये का खर्च आता है. लेकिन विडंबना ये है कि राज्य स्थापना दिवस के अलावा उन्हें कभी याद नहीं किया जाता है. आज भी वह सरकार से मदद की गुहार लगा रहे हैं.