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लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर नैनीताल हाईकोर्ट ने सरकार से मांगा जवाब, पूछा- तीन हफ्ते में बताएं क्या किया, कितना खर्च हुआ?

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने धामी सरकार से लोकायुक्त को लेकर जवाब मांगा है. हाईकोर्ट ने कहा है कि सरकार लोकायुक्त संस्थान बनने से मार्च के आखिरी दिन यानी 31 मार्च 2023 तक पूरे खर्चे का ब्यौरा मांगा है. धामी सरकार को तीन हफ्ते में जवाब देना है.

Nainital High Court
नैनीताल हाईकोर्ट
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Published : Mar 17, 2023, 1:40 PM IST

Updated : Mar 17, 2023, 2:36 PM IST

नैनीताल: उत्तराखंड में लोकायुक्त की नियुक्ति और लोकायुक्त संस्थान को सुचारू किए जाने के मामले पर नैनीताल हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है. हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को 3 हफ्ते के भीतर जवाब पेश करने के आदेश दिए हैं. नैनीताल हाईकोर्ट ने सरकार को आदेश दिया है कि वह एक अतिरिक्त शपथ पत्र दाखिल करे. शपथ पत्र के माध्यम से सरकार यह बताए कि लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए आज तक उन्होंने क्या किया है. शपथ पत्र में संस्थान बनने से 31 मार्च 2023 तक वर्षवार कितना खर्च किया गया, इस पूरे खर्च का विवरण भी पेश करें. वहीं, मामले की अगली सुनवाई की तारीख 8 मई तय की गई है.

लोकायुक्त पर हाईकोर्ट ने सरकार से मांगा जवाब: उत्तराखंड हाईकोर्ट ने प्रदेश में लोकायुक्त की नियुक्ति व लोकायुक्त संस्थान को सुचारू रूप से सचालित किए जाने को लेकर हल्द्वानी गौलापार निवासी रवि शंकर जोशी की जनहित याचिका पर सुनवाई की. मामले की सुनवाई के बाद मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने राज्य सरकार से शपथ पत्र के माध्यम से कोर्ट को यह बताने को कहा है कि लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए अभी तक क्या किया. संस्थान जब से बना है तब से 31 मार्च 2023 तक इसपर कितना खर्च हुआ, इसका वर्षवार विवरण पेश करें. मामले की अगली सुनवाई के लिए 8 मई की तिथि नियत की है.

याचिकाकर्ता ने कहा लोकायुक्त के नाम पर खर्च हो रहे हर साल 3 करोड़: जनहित याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकार ने अभी तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की. जबकि संस्थान के नाम पर वार्षिक 2 से 3 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं. जनहित याचिका में कहा गया है कि कर्नाटक में और मध्य प्रदेश में लोकायुक्त द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जा रही है. परंतु उत्तराखंड में तमाम घोटाले हो रहे हैं. हर एक छोटे से छोटा मामला उच्च न्यायालय में लाना पड़ रहा है. प्रदेश की विजिलेंस और एसआईटी जैसी जांच एजेंसियों द्वारा NH-74 मुआवजा घोटाला, समाज कल्याण विभाग में छात्रवृत्ति घोटाला, स्वास्थ्य विभाग के एनएचएम में दवा खरीद घोटाले जैसे अनेकों प्रकरणों को ठंडे बस्ते में डालने का उदाहरण देते राज्य में इसकी स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच कराने हेतु लोकायुक्त की नियुक्ति करने की मांग की गई.

सरकार के अधीन हैं सारी जांच एजेंसियां: जनहित याचिका में यह भी कहा गया है कि वर्तमान में राज्य की सभी जांच एजेंसी सरकार के अधीन हैं, जिसका पूरा नियंत्रण राज्य के राजनैतिक नेतृत्व के हाथों में है. वर्तमान में उत्तराखंड राज्य में कोई भी ऐसी जांच एजेंसी नहीं है "जिसके पास यह अधिकार हो कि वह बिना शासन की पूर्वानुमति के, किसी भी राजपत्रित अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार का मुकदमा पंजिकृत कर सके.

उत्तराखंड को चाहिए लोकायुक्त: उत्तराखंड राज्य की वर्तमान व्यवस्था में राज्य सरकार के प्रभाव और हस्तक्षेप से मुक्त ऐसी कोई भी जांच एजेंसी नहीं है, जो मुख्यमंत्री सहित किसी भी जनप्रतिनिधि या किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच और कार्रवाई कर सके. स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के नाम पर प्रचारित किया जाने वाला विजिलेंस विभाग भी राज्य पुलिस का ही हिस्सा है, जिसका सम्पूर्ण नियंत्रण पुलिस मुख्यालय, सतर्कता विभाग या मुख्यमंत्री कार्यालय के पास ही रहता है.

सरकारी एजेंसियों से निष्पक्ष जांच की उम्मीद नहीं: राज्य सरकार के नियंत्रण वाली इन जांच एजेंसियों में "जांच एजेंसी को किन-किन बिंदुओं पर जांच करनी है, जांच एजेंसी में नियुक्ति व स्थानांतरण सहित सभी प्रशासनिक अधिकार, जांच समिति का बजट, चार्जशीट दाखिल करने की स्वीकृति देना, अभियोग दर्ज करने की स्वीकृति देना, जांच के दौरान जांच की पूरी मॉनिटरिंग, जांच के दौरान जांच अधिकारियों को सभी प्रकार के निर्देश देना, जांच के दौरान जांच की समीक्षा करना आदि पूरा नियंत्रण राजनैतिक नेतृत्व के हाथों में रहता है. कई बार तो जांच के बीच में ही, बिना उचित कारण के पूरी जांच एजेंसी को ही बदल दिया गया है.

क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में उपलब्ध सभी जांच एजेंसियों में राज्य सरकार के नियंत्रण वाले कर्मचारी और अधिकारी ही जांच- अधिकारी होते हैं, इसलिए स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच पूरी तरह से सत्ताधारी दल की मंशा और उसके राजनैतिक एजेंडे पर निर्भर करती है. राज्य के अब तक के इतिहास में किसी शीर्ष राजनैतिक या प्रशासनिक व्यक्ति की जांच और कार्रवाई का नहीं होना इसका स्पष्ट प्रमाण है.

अभी तक नहीं मिला निष्पक्ष जांच का उदाहरण: राज्य की लगभग हर प्रतियोगी परीक्षा में हुई धांधली, खनन-भूमि सहित प्रशासनिक स्तर पर गंभीर भ्रष्टाचार के अनगिनत प्रकरणों में, जनप्रतिनिधियों व लोकसेवकों द्वारा अर्जित की गई अकूल संपत्ति सहित किसी भी प्रकरण में वर्तमान की किसी जांच एजेंसी ने आजतक कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच का उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया है.

लोकायुक्त की नियुक्ति का वादा पूरा नहीं हुआ: एक पूरी तरह से पारदर्शी, स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच व्यवस्था राज्य के नागरिकों के लिए कितनी महत्वपूर्ण है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यही है की पूर्व के विधानसभा चुनावों में राजनैतिक दलों द्वारा राज्य में अपनी सरकार बनने पर प्रशासनिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए एक सशक्त लोकायुक्त की नियुक्ति का वादा किया था, जो आज तक नहीं हुआ.

2002 में हुआ था लोकायुक्त का गठन: गौर हो कि, साल 2002 में उत्तराखंड में लोकायुक्त का गठन हुआ था और सैयद रजा अब्बास प्रदेश के पहले लोकायुक्त बने थे. उसके बाद साल 2008 में दूसरे लोकायुक्त के रूप में एमएम घिल्डियाल की नियुक्ति हुई. साल 2011 में तत्कालीन भुवन चंद्र खंडूड़ी की सरकार ने पहली बार लोकायुक्त विधेयक विधानसभा में पारित किया था. इस विधेयक के तहत मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और अफसर तक लोकायुक्त के दायरे में लाने की कोशिश की गई थी. लोकायुक्त को राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिली. इस बीच उत्तराखंड में सत्ता बदल गई. कांग्रेस की सरकार आई और विजय बहुगुणा सीएम बने. वहीं, दूसरे लोकायुक्त एमएम घिल्डियाल ने 2013 तक अपनी सेवाएं दीं.

2014 में पारित हुआ नया लोकायुक्त विधेयक: इसके बाद बहुगुणा सरकार में विधानसभा में नया लोकायुक्त विधेयक 2014 पारित करवाया गया. कांग्रेस के इस नए विधेयक में लोकायुक्त के दायरे से सीएम को बाहर रखा गया था. हालांकि, बहुगुणा वाले विधेयक को भी लागू नहीं कराया जा सका. फिर 2017 में भाजपा सत्ता में लौटी और त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने 2017 में ही विधानसभा में एक नया विधेयक प्रस्तुत किया और तब से ही यह विधेयक विधानसभा में अटका हुआ है.
पढ़ें- उत्तराखंड में लोकायुक्त मामले पर सरकारों ने साधी चुप्पी, विपक्ष ने बुलंद की आवाज

10 साल से नियुक्त नहीं है लोकायुक्त: कुल मिलाकर साल 2013 के बाद से उत्तराखंड में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हुई है. इतने सालों से लोकायुक्त की नियुक्ति का मामला लटका हुआ है. ये तब है कि जब प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है और भाजपा ने ही लोकायुक्त पर सबसे ज्यादा बवाल भी किया था. यही नहीं, साल 2017 के विधानसभा चुनाव के समय तो लोकायुक्त का मुद्दा भाजपा के घोषणा पत्र में भी शामिल था. तब ये भी कहा गया था कि सरकार बनने के 100 दिन के भीतर ही लोकायुक्त की नियुक्ति होगी, लेकिन बैक टू बैक भाजपा सरकार आने के बाद भी लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई है.

हालांकि, बावजूद इसके लोकायुक्त कार्यालय चलता है और यहां कई कर्मचारी भी कार्यरत हैं. साल 2013 से अब तक करीब ₹15 करोड़ से ज्यादा पैसा लोकायुक्त कार्यालय पर खर्च हो चुका है. हर साल करीब 2 करोड़ से ज्यादा वेतन और अन्य खर्चे हो रहे हैं.

नैनीताल: उत्तराखंड में लोकायुक्त की नियुक्ति और लोकायुक्त संस्थान को सुचारू किए जाने के मामले पर नैनीताल हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है. हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को 3 हफ्ते के भीतर जवाब पेश करने के आदेश दिए हैं. नैनीताल हाईकोर्ट ने सरकार को आदेश दिया है कि वह एक अतिरिक्त शपथ पत्र दाखिल करे. शपथ पत्र के माध्यम से सरकार यह बताए कि लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए आज तक उन्होंने क्या किया है. शपथ पत्र में संस्थान बनने से 31 मार्च 2023 तक वर्षवार कितना खर्च किया गया, इस पूरे खर्च का विवरण भी पेश करें. वहीं, मामले की अगली सुनवाई की तारीख 8 मई तय की गई है.

लोकायुक्त पर हाईकोर्ट ने सरकार से मांगा जवाब: उत्तराखंड हाईकोर्ट ने प्रदेश में लोकायुक्त की नियुक्ति व लोकायुक्त संस्थान को सुचारू रूप से सचालित किए जाने को लेकर हल्द्वानी गौलापार निवासी रवि शंकर जोशी की जनहित याचिका पर सुनवाई की. मामले की सुनवाई के बाद मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने राज्य सरकार से शपथ पत्र के माध्यम से कोर्ट को यह बताने को कहा है कि लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए अभी तक क्या किया. संस्थान जब से बना है तब से 31 मार्च 2023 तक इसपर कितना खर्च हुआ, इसका वर्षवार विवरण पेश करें. मामले की अगली सुनवाई के लिए 8 मई की तिथि नियत की है.

याचिकाकर्ता ने कहा लोकायुक्त के नाम पर खर्च हो रहे हर साल 3 करोड़: जनहित याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकार ने अभी तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की. जबकि संस्थान के नाम पर वार्षिक 2 से 3 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं. जनहित याचिका में कहा गया है कि कर्नाटक में और मध्य प्रदेश में लोकायुक्त द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जा रही है. परंतु उत्तराखंड में तमाम घोटाले हो रहे हैं. हर एक छोटे से छोटा मामला उच्च न्यायालय में लाना पड़ रहा है. प्रदेश की विजिलेंस और एसआईटी जैसी जांच एजेंसियों द्वारा NH-74 मुआवजा घोटाला, समाज कल्याण विभाग में छात्रवृत्ति घोटाला, स्वास्थ्य विभाग के एनएचएम में दवा खरीद घोटाले जैसे अनेकों प्रकरणों को ठंडे बस्ते में डालने का उदाहरण देते राज्य में इसकी स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच कराने हेतु लोकायुक्त की नियुक्ति करने की मांग की गई.

सरकार के अधीन हैं सारी जांच एजेंसियां: जनहित याचिका में यह भी कहा गया है कि वर्तमान में राज्य की सभी जांच एजेंसी सरकार के अधीन हैं, जिसका पूरा नियंत्रण राज्य के राजनैतिक नेतृत्व के हाथों में है. वर्तमान में उत्तराखंड राज्य में कोई भी ऐसी जांच एजेंसी नहीं है "जिसके पास यह अधिकार हो कि वह बिना शासन की पूर्वानुमति के, किसी भी राजपत्रित अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार का मुकदमा पंजिकृत कर सके.

उत्तराखंड को चाहिए लोकायुक्त: उत्तराखंड राज्य की वर्तमान व्यवस्था में राज्य सरकार के प्रभाव और हस्तक्षेप से मुक्त ऐसी कोई भी जांच एजेंसी नहीं है, जो मुख्यमंत्री सहित किसी भी जनप्रतिनिधि या किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध स्वतंत्र व निष्पक्ष जांच और कार्रवाई कर सके. स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के नाम पर प्रचारित किया जाने वाला विजिलेंस विभाग भी राज्य पुलिस का ही हिस्सा है, जिसका सम्पूर्ण नियंत्रण पुलिस मुख्यालय, सतर्कता विभाग या मुख्यमंत्री कार्यालय के पास ही रहता है.

सरकारी एजेंसियों से निष्पक्ष जांच की उम्मीद नहीं: राज्य सरकार के नियंत्रण वाली इन जांच एजेंसियों में "जांच एजेंसी को किन-किन बिंदुओं पर जांच करनी है, जांच एजेंसी में नियुक्ति व स्थानांतरण सहित सभी प्रशासनिक अधिकार, जांच समिति का बजट, चार्जशीट दाखिल करने की स्वीकृति देना, अभियोग दर्ज करने की स्वीकृति देना, जांच के दौरान जांच की पूरी मॉनिटरिंग, जांच के दौरान जांच अधिकारियों को सभी प्रकार के निर्देश देना, जांच के दौरान जांच की समीक्षा करना आदि पूरा नियंत्रण राजनैतिक नेतृत्व के हाथों में रहता है. कई बार तो जांच के बीच में ही, बिना उचित कारण के पूरी जांच एजेंसी को ही बदल दिया गया है.

क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में उपलब्ध सभी जांच एजेंसियों में राज्य सरकार के नियंत्रण वाले कर्मचारी और अधिकारी ही जांच- अधिकारी होते हैं, इसलिए स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच पूरी तरह से सत्ताधारी दल की मंशा और उसके राजनैतिक एजेंडे पर निर्भर करती है. राज्य के अब तक के इतिहास में किसी शीर्ष राजनैतिक या प्रशासनिक व्यक्ति की जांच और कार्रवाई का नहीं होना इसका स्पष्ट प्रमाण है.

अभी तक नहीं मिला निष्पक्ष जांच का उदाहरण: राज्य की लगभग हर प्रतियोगी परीक्षा में हुई धांधली, खनन-भूमि सहित प्रशासनिक स्तर पर गंभीर भ्रष्टाचार के अनगिनत प्रकरणों में, जनप्रतिनिधियों व लोकसेवकों द्वारा अर्जित की गई अकूल संपत्ति सहित किसी भी प्रकरण में वर्तमान की किसी जांच एजेंसी ने आजतक कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच का उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया है.

लोकायुक्त की नियुक्ति का वादा पूरा नहीं हुआ: एक पूरी तरह से पारदर्शी, स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच व्यवस्था राज्य के नागरिकों के लिए कितनी महत्वपूर्ण है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यही है की पूर्व के विधानसभा चुनावों में राजनैतिक दलों द्वारा राज्य में अपनी सरकार बनने पर प्रशासनिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए एक सशक्त लोकायुक्त की नियुक्ति का वादा किया था, जो आज तक नहीं हुआ.

2002 में हुआ था लोकायुक्त का गठन: गौर हो कि, साल 2002 में उत्तराखंड में लोकायुक्त का गठन हुआ था और सैयद रजा अब्बास प्रदेश के पहले लोकायुक्त बने थे. उसके बाद साल 2008 में दूसरे लोकायुक्त के रूप में एमएम घिल्डियाल की नियुक्ति हुई. साल 2011 में तत्कालीन भुवन चंद्र खंडूड़ी की सरकार ने पहली बार लोकायुक्त विधेयक विधानसभा में पारित किया था. इस विधेयक के तहत मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और अफसर तक लोकायुक्त के दायरे में लाने की कोशिश की गई थी. लोकायुक्त को राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिली. इस बीच उत्तराखंड में सत्ता बदल गई. कांग्रेस की सरकार आई और विजय बहुगुणा सीएम बने. वहीं, दूसरे लोकायुक्त एमएम घिल्डियाल ने 2013 तक अपनी सेवाएं दीं.

2014 में पारित हुआ नया लोकायुक्त विधेयक: इसके बाद बहुगुणा सरकार में विधानसभा में नया लोकायुक्त विधेयक 2014 पारित करवाया गया. कांग्रेस के इस नए विधेयक में लोकायुक्त के दायरे से सीएम को बाहर रखा गया था. हालांकि, बहुगुणा वाले विधेयक को भी लागू नहीं कराया जा सका. फिर 2017 में भाजपा सत्ता में लौटी और त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने 2017 में ही विधानसभा में एक नया विधेयक प्रस्तुत किया और तब से ही यह विधेयक विधानसभा में अटका हुआ है.
पढ़ें- उत्तराखंड में लोकायुक्त मामले पर सरकारों ने साधी चुप्पी, विपक्ष ने बुलंद की आवाज

10 साल से नियुक्त नहीं है लोकायुक्त: कुल मिलाकर साल 2013 के बाद से उत्तराखंड में लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हुई है. इतने सालों से लोकायुक्त की नियुक्ति का मामला लटका हुआ है. ये तब है कि जब प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है और भाजपा ने ही लोकायुक्त पर सबसे ज्यादा बवाल भी किया था. यही नहीं, साल 2017 के विधानसभा चुनाव के समय तो लोकायुक्त का मुद्दा भाजपा के घोषणा पत्र में भी शामिल था. तब ये भी कहा गया था कि सरकार बनने के 100 दिन के भीतर ही लोकायुक्त की नियुक्ति होगी, लेकिन बैक टू बैक भाजपा सरकार आने के बाद भी लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई है.

हालांकि, बावजूद इसके लोकायुक्त कार्यालय चलता है और यहां कई कर्मचारी भी कार्यरत हैं. साल 2013 से अब तक करीब ₹15 करोड़ से ज्यादा पैसा लोकायुक्त कार्यालय पर खर्च हो चुका है. हर साल करीब 2 करोड़ से ज्यादा वेतन और अन्य खर्चे हो रहे हैं.

Last Updated : Mar 17, 2023, 2:36 PM IST
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