हल्द्वानी: पहाड़ी इलाकों में पनचक्की से चलने वाले घराट लोगों को पौष्टिक आटा देकर स्वस्थ जीवन देते थे. लेकिन उत्तराखंड की अतीत की विरासत घराट आखिरी सांसें गिन रही हैं. घराटों के उजड़ने का सबसे बड़ा कारण आधुनिकता की दौड़ है. जिस कारण लोग जल्द आटे के लिए चक्की पर निर्भर हो गए हैं. लेकिन लोगों को पौष्टिक आटा नहीं मिल पा रहा है.
घराट( पनचक्की) उत्तराखंड की पारंपरिक पहचान है. पर्वतीय अंचलों में ब्रिटिशकाल से घराटों का संचालन होता आया है, जहां घराट से पिसा हुआ अनाज का आटा पौष्टिक और स्वादिष्ट माना जाता है. लेकिन अब घराट आधुनिकता की चकाचौंध में खोते जा रहे हैं. नैनीताल जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में अभी लोग अपने इस ब्रिटिश कालीन सांस्कृतिक विरासत को बचाने में लगे हुए हैं. हल्द्वानी से करीब 20 किलोमीटर दूर चोरगलिया क्षेत्र के रहने वाले हीरा चौलासली व माधवा नंद पांडे इस विलुप्त हो रही धरोहर को बचाने में जुटे हुए हैं. आज भी लोगों को घराट से पिसे हुए आटा उपलब्ध कराते हैं.
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बताया जा रहा है कि यहां पर संचालित होने वाले घराट 1880 की दशक की बताई जा रही है. सिंचाई विभाग के नहर व नालों पर पर बनाये गए घराट विभाग की लापरवाही का भेंट चढ़ रहा है. लोगों का मानना है कि घराट में तैयार होने वाला आटा कई नजरिए से स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है. लेकिन आधुनिकता की मार घराटों पर साफ देखी जा सकती है.ऐसे में सरकार और सिंचाई विभाग को इस विलुप्त हो रहे विरासत को बचाने के लिए आगे आने की जरूरत है. घराट के संचालक माधवानंद पांडे ने बताया उनका मकसद अपने पूर्वजों की विरासत को बचाने के साथ ही लोगों को घराट की सेवा देना है.
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साथ ही लोगों को 2 रुपए में गेहूं पीसकर दिया जाता है. आज भी घराट को संचालित करने के लिए सिंचाई विभाग से टेंडर देना पड़ता है. कभी घराट पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में एक जीवन रेखा होती थी. लोग अपने खेतों में पारंपरिक अनाजों का उत्पादन कर उसे पानी से चलने वाले घराटों में पीसकर आटा तैयार करते थे. इन घराटों में पिसा हुआ आटा कई महीनों तक तरोताजा रहता था.इन घराटों में लोग गेहूं, मंडुवा, मक्का,बाजरा जैसे अनाज पीसते थे. लेकिन आधुनिकता के चकाचौंध में घराट का अस्तित्व खत्म हो रहा है. ऐसे में लोग इस पारंपरिक विरासत को बचाने की सरकार से मांग कर रहे हैं.