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उत्तराखंड में वनों की परिभाषा बदलने पर हाईकोर्ट सख्त, राज्य सरकार से मांगा जवाब

उत्तराखंड में वनों की परिभाषा बदलने पर हाईकोर्ट की खंडपीठ ने राज्य सरकार को दो हफ्ते के भीतर जवाब पेश करने को कहा है. जबकि, पहले ही हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ राज्य सरकार के कार्यालय आदेश पर रोक लगा चुकी है.

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नैनीताल हाईकोर्ट
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Published : Feb 11, 2020, 4:29 PM IST

Updated : Feb 11, 2020, 11:53 PM IST

नैनीतालः उत्तराखंड में राज्य सरकार की ओर से 10 हेक्टेयर से कम वाले जंगलों को जंगल ना मानने के मामले में हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है. कोर्ट ने मामले में राज्य सरकार को दो हफ्ते के भीतर जवाब पेश करने के आदेश दिए हैं. वहीं, दो हफ्ते के भीतर जवाब पेश नहीं किए जाने पर आगे प्रमुख सचिव वन और पीसीसीएफ को व्यक्तिगत रूप से हाईकोर्ट में पेश होना होगा.

उत्तराखंड में वनों की परिभाषा बदलने पर हाईकोर्ट ने सरकार से मांगा जवाब.

बता दें कि, नैनीताल निवासी अजय रावत, विनोद कुमार पांडे समते अन्य लोगों ने नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी. जिसमें उन्होंने राज्य सरकार के द्वारा जारी 21 नवंबर 2019 के उस कार्यालय आदेश को चुनौती दी है, जिसमें राज्य सरकार ने जंगलों की परिभाषा बदलते हुए 10 हेक्टेयर से कम के जंगलों को जंगल की श्रेणी से बाहर कर दिया है.

ये भी पढ़ेंः कॉर्बेट भ्रमण के लिए उत्तराखंड पहुंचीं 'बर्ड्स ऑफ इंडियन सबकॉन्टिनेंट' की लेखक कैरोल स्कीप

याचिका में कहा गया है कि सरकार ने उन जंगलों को भी जंगल मानने से इनकार किया है, जहां पर पेड़ों की संख्या 60 फीसदी से कम है और उन स्थानों पर स्थानीय पेड़ों की संख्या 75 फीसदी से कम है. याचिकाकर्ता का कहना है कि सरकार के इस आदेश के बाद जंगलों में अवैध तस्करों की संख्या बढ़ेगी और लोग बेतहाशा जंगलों का कटान करेंगे. साथ ही जंगलों में अवैध रूप से निर्माण करेंगे. जिससे आने वाले समय में पर्यावरण को बड़ा खतरा होगा.

उधर, देहरादून निवाशी रेनू पॉल ने भी हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर कहा है कि राज्य सरकार और उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण अनुभाग ने वनों की परिभाषा बदल दी है. जिसमें सरकार ने अपने इस आदेश में कहीं भी वन्य जीव जंतुओं का उल्लेख नहीं किया है. जिससे वन्य जीव जंतुओं के जीवन पर भी खतरा उत्पन्न हो सकता है.

ये भी पढ़ेंः विकास नगर: आधुनिकता के दौर में जनजातीय काष्ठ कला विलुप्ति की कगार पर

वहीं, याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के द्वारा साल 1995 में जारी टीएन गोंडा वर्मन वर्सेस केंद्र सरकार के उस आदेश का भी जिक्र किया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट की ओर से कहा गया था कि कोई भी वन क्षेत्र चाहे वह किसी व्यक्ति विशेष का हो या राज्य सरकार द्वारा घोषित हो या ना हो वह वन क्षेत्र माना जाएगा.

साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक राज्यों की सरकार को आदेश दिए थे, कि सभी राज्य अपने इस तरह के क्षेत्रों का चयनित कर उन्हें वन की श्रेणी में लाएं. इसी कड़ी में मंगलवार को मामले की सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट की खंडपीठ ने राज्य सरकार को दो हफ्ते के भीतर जवाब पेश करने को कहा है. जबकि, पहले ही हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ राज्य सरकार के कार्यालय आदेश पर रोक लगा चुकी है.

नैनीतालः उत्तराखंड में राज्य सरकार की ओर से 10 हेक्टेयर से कम वाले जंगलों को जंगल ना मानने के मामले में हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है. कोर्ट ने मामले में राज्य सरकार को दो हफ्ते के भीतर जवाब पेश करने के आदेश दिए हैं. वहीं, दो हफ्ते के भीतर जवाब पेश नहीं किए जाने पर आगे प्रमुख सचिव वन और पीसीसीएफ को व्यक्तिगत रूप से हाईकोर्ट में पेश होना होगा.

उत्तराखंड में वनों की परिभाषा बदलने पर हाईकोर्ट ने सरकार से मांगा जवाब.

बता दें कि, नैनीताल निवासी अजय रावत, विनोद कुमार पांडे समते अन्य लोगों ने नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी. जिसमें उन्होंने राज्य सरकार के द्वारा जारी 21 नवंबर 2019 के उस कार्यालय आदेश को चुनौती दी है, जिसमें राज्य सरकार ने जंगलों की परिभाषा बदलते हुए 10 हेक्टेयर से कम के जंगलों को जंगल की श्रेणी से बाहर कर दिया है.

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याचिका में कहा गया है कि सरकार ने उन जंगलों को भी जंगल मानने से इनकार किया है, जहां पर पेड़ों की संख्या 60 फीसदी से कम है और उन स्थानों पर स्थानीय पेड़ों की संख्या 75 फीसदी से कम है. याचिकाकर्ता का कहना है कि सरकार के इस आदेश के बाद जंगलों में अवैध तस्करों की संख्या बढ़ेगी और लोग बेतहाशा जंगलों का कटान करेंगे. साथ ही जंगलों में अवैध रूप से निर्माण करेंगे. जिससे आने वाले समय में पर्यावरण को बड़ा खतरा होगा.

उधर, देहरादून निवाशी रेनू पॉल ने भी हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर कहा है कि राज्य सरकार और उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण अनुभाग ने वनों की परिभाषा बदल दी है. जिसमें सरकार ने अपने इस आदेश में कहीं भी वन्य जीव जंतुओं का उल्लेख नहीं किया है. जिससे वन्य जीव जंतुओं के जीवन पर भी खतरा उत्पन्न हो सकता है.

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वहीं, याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के द्वारा साल 1995 में जारी टीएन गोंडा वर्मन वर्सेस केंद्र सरकार के उस आदेश का भी जिक्र किया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट की ओर से कहा गया था कि कोई भी वन क्षेत्र चाहे वह किसी व्यक्ति विशेष का हो या राज्य सरकार द्वारा घोषित हो या ना हो वह वन क्षेत्र माना जाएगा.

साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक राज्यों की सरकार को आदेश दिए थे, कि सभी राज्य अपने इस तरह के क्षेत्रों का चयनित कर उन्हें वन की श्रेणी में लाएं. इसी कड़ी में मंगलवार को मामले की सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट की खंडपीठ ने राज्य सरकार को दो हफ्ते के भीतर जवाब पेश करने को कहा है. जबकि, पहले ही हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ राज्य सरकार के कार्यालय आदेश पर रोक लगा चुकी है.

Last Updated : Feb 11, 2020, 11:53 PM IST
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