हल्द्वानी/रामनगर/कालाढ़ूंगी: प्रदेश में आज सुख, समृद्धि और हरियाली का प्रतीक माना जाने वाला 'घी त्यार' हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है. उत्तराखंड में घी संक्रांति का विशेष महत्व है. इसे भाद्रपद की संक्रांति भी कहते हैं. इस दिन सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करता है, इसलिए इसे भद्रा संक्रांति भी कहते हैं.
इस मौके पर घरों में पुए, पकौड़े और खीर बनाए जाते हैं. इन पकवानों को घी के साथ परोसा जाता है. यह त्योहार अच्छी फसल की कामना के लिए भी मनाया जाता है. 'घी त्यार' मनाए जाने की एक वजह यह भी है कि गर्मी और बरसात के मौसम में खान-पान को लेकर परहेज किया जाता था. खान-पान के लंबे परहेज के बाद खुशी में पकवान बनाए जाते हैं.
ज्योतिषाचार्य मोहन चंद्र पांडे के मुताबिक 'घी त्यार' को प्रदेश में हरियाली के पर्व के तौर पर मनाया जाता है. इसे पशुपालन और खेती-बाड़ी से भी जोड़कर देखा जाता है. इस त्योहार को एक-दूसरे के यहां फल-अनाज और ऋतु के अनुसार उत्पादित होने वाले अनाजों का आदान-प्रदान करने का दिन भी माना जाता है, जिससे कि एक-दूसरे की दरिद्रता दूर हो और आपस में भाईचारा भी बना रहे.
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ज्योतिषाचार्य ने बताया कि 'घी त्यार' को लेकर पौराणिक मान्यता है कि इस दिन घी का सेवन करने से ग्रहों के अशुभ प्रभाव से भी फायदा मिलता है. कहा जाता है कि इस दिन घी खाने से राहु और केतु का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव नहीं पड़ता है, बल्कि उसको सकारात्मक सोच मिलती है.
वहीं, इसके जानकार पंडित मोहन चंद्र पांडे कहते हैं कि इस मौसम से पहले किसानों के घरों में जो भी खानपान को लेकर कमियां होती थी, वह इस त्योहार पर दूर की जाती थी. इस त्योहार पर सभी प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं. 'घी त्यार' को लेकर बुजुर्गों का मानना है कि अगर घी नहीं खाया तो अगले जन्म में गनेल की योनि में आना पड़ेगा. साथ ही किसान अच्छी फसल की कामना के लिए भी है भी त्योहार मनाते हैं.
ये त्योहार कृषि प्रधान राज्य की सभ्यता जल, जंगल, ज़मीन से प्राप्त संसाधनों पर आधारित है. इस लोक त्योहार से यहां के प्राकृतिक जुड़ाव की पुष्टि होती है.
उत्तराखंड में घी त्यार किसानों के लिए अत्यंत महत्व रखता है.आज के दिन प्रत्येक उत्तराखंडी 'घी' का खाना जरूर बनाते हैं. यह भी कहा जाता है कि घी खाने से शरीर की कई व्याधियां भी दूर होती हैं. इससे स्मरण क्षमता बढ़ती है. नवजात बच्चों के सिर और तलुवों में भी घी लगाया जाता है. जिससे वे स्वस्थ्य और चिरायु होते हैं. कालाढूंगी के सामाजिक कार्यकर्ता जगदीश ढूंढ़ियाल ने बताया कि इस दिन का मुख्य भोजन 'बेडू' (रोटी)है. इस दिन उड़द की दाल को सिल-बट्टे में पीस कर भरते हैं. जिसे घी लगाकर खाया जाता है.