हल्द्वानी: उत्तराखंड के कुमाऊंनी होली की पहचान पूरे देश में है. होली के कुछ दिन ही बचे हैं, होली अब धीरे-धीरे अपने पूरे शबाब पर है. जगह-जगह बैठकी और खड़ी होली का आयोजन हो रहा है. वहीं जैसे-जैसी होली का पर्व नजदीक आ रहा है वैसे-वैसे युवाओं पर भी होली का खुमार चढ़ता जा रहा है. कुछ ऐसा ही हल्द्वानी में देखने को मिला. जहां बच्चों ने होली के रागों को गाकर कार्यक्रम में रंग जमा दिया.
गौर हो कि परंपरा कायम रहे इसके लिए जरूरी है कि नई पीढ़ी इससे जुड़े. कुछ लोग होली गीतों को नई पीढ़ी से जोड़कर परंपरा को सहेजने का बीड़ा उठाए हुए हैं. हल्द्वानी के हिमालय संस्कृत शोध समिति के अध्यक्ष डॉ. पंकज उप्रेती युवाओं को बच्चों को होली गीत सिखा रहे हैं. डॉ. पंकज उप्रेती बताते हैं कि कुमाऊं की पारंपरिक लोक कला और यहां की संस्कृति की पहचान पूरे देश ही नहीं विदेश तक है. शास्त्रीय संगीत पर आधारित कुमाऊं की बैठकी और खड़ी होली की शुरुआत पौष मास के पहले रविवार से शुरू हो जाती है. जहां राग,भैरवी, झिंझोरी,जैजैवंती, राग दरबारी के अलावा कई रागों में होली गाई जाती है. संगीताचार्य डॉ. पंकज उप्रेती ने बताया कि कुमाऊंनी होली का स्वरूप बिगड़ता जा रहा है.
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नई पीढ़ी कुमाऊंनी होली को छोड़ अब धीरे-धीरे भूलकर पश्चिमी संस्कृति की ओर जा रही है. ऐसे में कुमाऊं की इस संस्कृति को बचाने के लिए युवाओं और बच्चों को कार्यशाला के माध्यम से वह यह बताना चाहते हैं कि हमारी लोक परंपरा बहुत ही समृद्ध है. होली गीत में ऐसी मधुरता होती है कि वह पर्व के उत्साह को बढ़ा देती है. युवा पीढ़ी को होली गीतों की इसी खूबी को बताने के लिए कार्यशाला आयोजित कर रहे हैं. जिससे युवा पीढ़ी अपनी लोक संस्कृति को समझे और उसे संरक्षित कर आगे बढ़ा सके.हिमालय संगीत उत्सव समिति बच्चों को होली गायन के साथ साथ उनको उत्तराखंड के पारंपरिक होली वाद्य यंत्रों को बजाने का भी प्रशिक्षण दे रहा है. जिससे युवा और बच्चे अपने इस पारंपरिक वाद्य यंत्र को भी महत्व को समझ सके. वहीं कुमाऊं की बैठकी और खड़ी होली की परंपरा वर्षों से चली आ रही है. लेकिन आधुनिकता के दौर में कुमाऊंनी होली गीतों की यह परंपरा सिमटती जा रही है.